जिन सहस्रनाम अर्थसहित षष्ठम अध्याय भाग २
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जिन सहस्रनाम अर्थसहित षष्ठम अध्याय भाग २


५५१. आप स्वयं आत्मस्वरुप है अथवा आत्मा का यथार्थ स्वरुप का ज्ञान रखते है , इसलिये "आत्मज्ञ" हो। 
५५२. समस्त देवोंकेभि आप पूज्य है, उनके लिये भि आप महान है, इसलिये "महादेव" हो। 
५५३. विलक्षण ऐश्वर्य के स्वामी होनेसे "महेशिता" भि कहे जाते है। 

सर्वक्लेशापह: साधु: सर्वदोषहरो हर:। असंख्येयोऽ प्रमेयात्मा शमात्मा प्रशमाकर:॥८॥
५५४. शारीरिक और मानसिक क्लेष दूर करने वाले आप"सर्वक्लेषापह" है। 
५५५. आपने रत्नत्रय सिध्द किया इसलिये "साधु" हो। 
५५६. समस्त जनोंके सर्व दोष आपके नाम मात्र से दूर होते है अथवा आप दोष हरने वाले होनेसे "सर्वदोषहर" है। 
५५७. अनेक जन्मोंके पाप को हराने वाले आप "हर" है, अथवा आपके उपदेश पर चलनेवालोंके अनेक् जन्मोंके पाप भि नष्ट होते है, इसलिये "हर" है। 
५५८. आप असंख्यात गुणोंके धारक है, आप के गुणोंकि संख्या करने का सामर्थ्य किसी मे नही है, इसलिये "असंख्येय" हो। 
५५९. आप किसीसेभि यथार्थ रुपमें जाने नही जा सकते, अथवा कोई भि आपको सम्पुर्ण जानने का सामर्थ्य नही रखता इसलिये आप"अप्रमेयात्मा" है। 
५६०. आप दोषोंका, दु:खोंका शमन करनेवाले होनेसे "शमात्मा" हो। 
५६१. आप स्वयंभि शांतमूर्ती होनेसे "प्रशमात्मा" कहलाते हो। 


सर्वयोगी श्वरोऽ चिन्त्य: श्रुतात्मा विष्टरश्रवा:। दान्तात्मा दमतीर्थेशो योगात्मा ज्ञानसर्वग:॥९
५६२. समस्त योगीयोंके पूज्य है, स्वामि है, ईश्वर है,. आप"सर्वयोगीश्वर" है। 
५६३. चिंतवन कि सीमासे परे है, इसलिये "अचिन्त्यहै। 
५६४. आप कि आत्मा सर्व शास्त्रोंका रहस्यरुप है, अथवा आप भावश्रुतज्ञान- रूप है, इसलिये "श्रुतात्माहै। 
५६५. समस्त विश्व का समस्त ज्ञान आपमे समाविष्ट होनेसे अथवा तिनो लोकोंके समस्त पदार्थोंकि समस्त पर्यायोंके जाननेवाले आप" विष्टरश्रवाहो। 
५६६. सबको आत्मा के स्वरुप को पानेकि शिक्षा देनेसे "दान्तात्माहो। 
५६७. इंद्रिय दमन के तीर्थ के स्वामी होनेसे अथवा योग के दम के प्रवीण होनेसे "दमतीर्थेशहो। 
५६८. योग स्वरुप होनेसे अथवा आत्मासे ही आपका योग होनेसे "योगात्मा" हो। 
५६९. केवलज्ञान के द्वारा सर्वत्र व्याप्त होनेसे "ज्ञानसर्वग" भि कहे जाते है। 


प्रधानमात्मा प्रकृति: परम: परमोदय:। प्रक्षीणबन्ध: कामारि: क्षेमकृत् क्षेमशासन:॥ १०॥
५७०. एकाग्रता आत्मा का ध्यान चिंतन करनेसे "प्रधानहो। 
५७१. आपका अब केवलज्ञान के अलावा कोई स्वरुप नही, अर्थात आपहि "आत्माहो, आत्मरुप हो। 
५७२. आप कृति प्रशंसनीय है अथवा आप हि " प्रकृतिहो। 
५७३. श्रेष्ठ होनेसे, ज्येष्ठ होनेसे, पूज्य होनेसे, महान यती तथा इन्द्रोद्वारा भि पुजित होनेसे आप "परम" हो, परमात्मा हो । 
५७४. आपके उदित होने मात्र से कल्याण होता है इसलिए"परमोदय " हो। 
५७५. आपके कर्म बंध क्षीण होते होते गल गये है इसलिये आप"प्रक्षीणबन्ध" हो। 
५७६. आपने कामदेव का विनाश किया है, इसलिए आप"कामारि" हो । 
५७७. आप सबका कल्याण करनेवाले "क्षेमकृत्" हो। 
५७८. आपने चलाया हुआ शासन भि कल्याणकारी होनेसे " क्षेमशासनहो। 


प्रणव: प्रणय: प्राण: प्राणद: प्रणतेश्वर: । प्रमाणं प्रणिधिर्दक्षो दक्षिणोऽ ध्वर्युरध्वर:॥११॥
५७९. ध्वनीस्वरुप होनेसे, ॐकाररूप होनेसे "प्रणव" हो। 
५८०. सबके नेता होनेसे अथवा मित्र होनेसे अथवा प्रिय होनेसे "प्रणयहो। 
५८१. आप सबके लिये जीवनदायी हो, इसलिये "प्राणकहे जाते हो। 
५८२. दयालु होकर प्राणदान करनेसे अथवा प्राण का ज्ञान देनेसे "प्राणदहो। 
५८३. जो भि आपको प्रणाम करते है, जैसे इन्द्रादिक तथा समस्त जीव , उनका पालन करनेवाले होनेसे "प्रणतेश्वर" हो। 
५८४. आप लोकोंमे, देहसे, ज्ञानसे तथा सम्यकदर्शन के "प्रमाण" है । 
५८५. सबके मर्मज्ञ होनेसे अथवा योगीयोंद्वारा गुप्त (आत्मामे) चिंतन के योग्य होनेसे "प्रणिधिहो। 
५८६. आप मोक्ष के कारण के लिये "दक्ष" है। 
५८७. सरल स्वभाव होनेसे "दक्षिण" हो। 
५८८. जैसे यज्ञ के पुरोहित तज्ञ होते है, वैसे हि कर्मोके यज्ञ मे आप श्रेष्ठ हो इस लिये " अध्वर्यु" हो। 
५८९. सरल, सन्मार्ग कि प्रवृत्ति करनेवाले होनेसे "अध्वरभि कहलाते है। 


आनन्दो नन्दनो नन्दो वन्द्योऽ निन्द्योऽ भिनन्दन:। कामहा कामद: काम्य: कामधेनुररिञ्जय:॥१२॥
[b]५९०. सदैव संतुष्ट है, आत्मसुखमे लीन है इसलिये आपको " आनंदकहा जाता है। 
५९१. सबको आनंददायक सुखकारक होनेसे "नंदन" हो। 
५९२. आप स्वयं भि सुखस्वभावी है, "नंदहै। 
५९३. आप स्तुत्य है, पूज्य है"वंद्यहै । 
५९४. आप अठारह दोषोंसे रहित है, कोई भि ऐसा कारण नही जिससे आपकि निन्दा हो सके अर्थात निन्दा के अयोग्य होनेसे "अनिंद्य" हो। 
५९५. आपके निकट मे भय का कोई भि कारण नही होता है, तथा आप जहा भि विहार करते है, वहा आनंद मात्र हि चहु ओर होता है, इसलिए आपको "अभिनंदनभि कहा जाता है। 
५९६. कामदेव को हरानेसे "कामह" हो। 
५९७. कामना पूर्ती करनेवाले होनेसे "कामदहो। 
५९८. आपकि आपके स्वरुप कि प्राप्ति कि चाह भक्तोंको भव्य जीवोंको सदैव रहती है, इसलिये आप "काम्य" हो। 
५९९. इच्छित फल को देनेवाले आप को "कामधेनूकहते है। 
६००. समस्त शत्रुओंपर विजयी होनेसे आपको "अरिंजयभि कहा जाता है। 

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