06-04-2018, 10:49 AM
जिन सहस्रनाम अर्थसहित दशम् अध्याय भाग २
९५१. आप जरा नष्ट होनेसे आप सुकोमल या सुंदर तनु के स्वामी है, इसलिये "सुतनु" हो।
९५२. शरीर तो आपका नाममात्र है, अर्थात संसारी शरीर को जो व्याप रहता है, वह आपका नही होता इसलिये आप"तनुर्निर्मुक्त" हो।
९५३. मोक्ष गती प्राप्त करनेवाले होनेसे अथवा आत्मा मे जाकर विश्राम करनेसे अथवा श्रेष्ठ ज्ञान धारी होनेसे "सुगत" हो।
९५४. मिथ्यादृष्टीयोंके खोटे नयोंका नाश करनेवाले होनेसे आपको "हतदुर्नय" भी कहा जाता है।
श्रीश:श्रीश्रितपादाब्जो वीतभी रभयंकर: ।उत्सन्नदोषो निर्विघ्नो निश्चलो लोकवत्सल:॥८॥
९५५. अंतरंग केवलज्ञान रुपी और बहिरंग समवशरण रुपी लक्ष्मीके स्वामी होनेसे आप को "श्रीश" हो।
९५६. लक्ष्मी आप कि दासी होके आपके चरणोमे रहती है अथवा आप के चरण कमल जहा भी पडते है, वहा पद्म, श्री अर्थात कमलो कि रचना होनेसे " श्रीश्रितपादाब्ज" हो।
९५७. भय को जीतने से "वीतभि" हो।
९५८. स्वयं भि भयमुक्त होकर समस्त जनोंको भि भयमुक्त करनेसे "अभयंकर" हो।
९५९. दोषोंका नाश करनेसे "उत्सन्नदोष" हो।
९६०. विघ्नरहीत होनेसे अथवा विघ्नोंका नाश करनेसे अथवा उपसर्गमुक्त होनेसे "निर्विघ्न" हो।
९६१. स्थिर, निर्विकार, निरामय होनेसे "निश्चल" हो।
९६२. लोगोंके प्रिय होनेसे अथवा आप लोगोंप्रती वात्सल्यसहित होनेसे "लोकवत्सल" कहे जाते है।
लोकोत्तरो लोकपति र्लोकचक्षुर पारधी: ।धीरधी र्बुध्दसन्मार्ग शुध्द: सुनृत-पूतवाक् ॥९॥
९६३. समस्त लोकोंमे उत्कृष्ट होनेसे अथवा लोक मे आपसे श्रेष्ठ कोई ना होनेसे "लोकोत्तर" हो।
९६४. तीनो लोक के नेता होनेसे "लोकपति" हो।
९६५. जैसे आपके ज्ञान के द्वारा तीनो लोक देखे जा सकते है, इसलिये "लोकचक्षु" हो।
९६६. अनंत ज्ञान के धारक होनेसे अथवा आपके ज्ञान का पार ना होनेसे "अपारधी" हो।
९६७. ज्ञान सदा स्थिर रहनेसे, आपका ज्ञान यथार्थ होनेसे किसी भि कालमे नही बदलेगा इसलिये "धीरधी" हो।
९६८. सबसे अच्छे मार्ग को अर्थात मोक्षमार्ग को यथार्थ जाननेसे "बुध्दसन्मार्ग" हो।
९६९. स्वरुप परमविशुध्द होनेसे "शुध्द" हो।
९७०. आपके वचन पवित्र, पतीतपावन तथा यथार्थ होनेसे "सुनृतपूतवाक्" भि कहे जात है।
प्रज्ञा-पारमित: प्राज्ञो यति र्नियमितेन्द्रिय:। भदन्तो भद्रकृत् भद्र कल्पवृक्षो वरप्रद:॥१०॥
९७१. आपके प्रज्ञा का पार नही किसी भि मिती मे, अथवा बुध्दीके पारगामी होनेसे आपको "प्रज्ञापारमीत" हो।
९७२. प्रज्ञा के धनी होनेसे "प्राज्ञा" हो।
९७३. आपने मोक्ष के अलावा किसी और चिज को पाने का यत्न ना किया अथवा मन को जीतनेसे "यतीऽ "हो।
९७४. इन्द्रीयोंको आपके नियम पर चलने के लिये बाध्य करनेसे "नियमितेन्द्रिय" हो।
९७५. पूज्य अथवा प्रबुध्द होनेसे "भदन्त" हो।
९७६. आपने सदैव जनोंका कल्याण हि चाहा और किया हुआ होनेसे "भद्रकृत्" हो।
९७७. मंगल, शुभ, कल्याणकारी, निष्कपट होनेसे "भद्र" हो।
९७८. ईच्छीत पदार्थोंके दाता होनेसे "कल्पवृक्ष" हो।
९७९. उनकी प्राप्ति करानेवाले होनेसे "वरप्रद" कहलाते है।
समुन्मूलीत-कर्मारि: कर्मकाष्ठाऽऽशुशुक्षणि: । कर्मण्य कर्मठ: प्रान्शु र्हेयादेय-विचक्षण:॥११
९८०. कर्मरुप शत्रूओंको जडसे उखाड फेकनेसे "समुन्मूलितकर्मारि" हो।
९८१. लकडीके समान धीरे धीरे या थोडे थोडे जलनेवाले कर्मोको जलानेवाले अग्नी होनेसे "कर्मकाष्ठशुशुक्षणी" हो।
९८२. चारित्र्य के नितान्त कुशल होनेसे "कर्मण्य" हो।
९८३. आचरणनिष्ठ होनेसे "कर्मठ" हो।
९८४. सबसे उँचे, प्रकाशमान्, उत्कृष्ट होनेसे "प्रांशु" हो।
९८५. छोडने योग्य और ग्रहण करने योग्य पदार्थोंको जानने मे निष्णात होनेसे "हेयादेयविचक्षण" भी है।
अनन्तशक्ति रच्छेद्य स्त्रिपुरारि स्त्रिलोचन:। त्रिनेत्र स्त्र्यम्बक स्त्र्यक्ष केवलज्ञान-वीक्षण:॥ १२
९८६. अंतराय कर्म का नाश करके आप ने अनंतवीर्य पाया है, इसलिए आप"अनंतशक्ती" हो।
९८७. आपका छेदन या भेदन ना कर सकनेसे " अच्छेद्य" हो।
९८८. जन्म जरा मृत्यू का नाश करनेसे तथा स्वर्ग, मध्यलोक, अधोलोक मे पुन: जन्म लेकर इन तिनो पुरोंका स्वयंके जीव कि अपेक्षामे नाश करनेसे "त्रिपुरारि" हो।
९८९. रत्नत्रयरुपी तिन नेत्र होनेसे अथवा तिनो लोक के तिनो काल के समस्त पदार्थोंको एक साथ देखने कि क्षमता होनेसे "त्रिलोचन" हो।
९९०. जन्मसे तीन ज्ञानके धारी होनेसे " त्रिनेत्र" हो।
९९१. "त्र्यम्बक" हो।
९९२. "त्र्यक्ष" हो।
९९३. केवलज्ञान हि आपके नेत्र होनेसे अर्थात द्रव्येंद्रिय चक्षू का उपयोग आपको केवलज्ञान के वजहसे जरुरी ना होनेसे "केवलज्ञानवीक्षण" भि आप हि हो।
समन्तभद्र शान्तारि र्धमाचार्यो दयानिधी:। सूक्ष्मदर्शी जितानंग कृपालू धर्मदेशक:॥ १३॥
९९४. सर्व जन के लिये सर्वमंगल होनेसे "समंतभद्र" हो।
९९५. कर्मशत्रूओंको शान्त कर देनेसे अथवा कोई जन्मजात शत्रूभी (जैसे साप और नेवला अथवा हरिणी और सिंह) आपके सानिध्य मे वैरभाव भूलकर शांत हो जानेसे "शान्तारि" हो।
९९६. धर्म को सिखानेवाले होनेसे "धर्माचार्य" हो।
९९७. दया का सागर होनेसे, दया का भांडार होनेसे "दयानिधी" हो।
९९८. सूक्षात्सूक्ष्म पदार्थ देखनेसे (जैसे अणु) अथवा जनोंको उसके बारेमें अवगत करानेसे "सूक्ष्मदर्शी" हो।
९९९. कामदेव पर विजय पानेसे "जितानंग" हो।
१०००. दयावान होनेसे "कृपालु" हो।
१००१. धर्म के यथार्थ उपदेश हि देशना के रुप मे देने वाले होनेसे "धर्मदेशक" भी आपको कहा जाता है।
शुभंयु सुखसाद्भूत: पुण्यराशी रनामय: । धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायक:॥१४॥
१००२. मोक्ष रुप शुभ को प्राप्त करनेसे "शुभंयु" हो।
१००३. अनंतसुख को आपने आधीन करनेसे अथवा अद्भुत सुख के साथ रहनेसे "सुखसाद्भूत" हो।
१००४. आप का नाम, गुण, स्मरण, भक्ती, अर्चना, पूजा, वंदना पुण्यकारक होनेसे "पुण्य - राशी" हो ।
१००५. रोग रहित होनेसे "अनामय" हो।
१००६. धर्म कि रक्षा करनेसे अथवा धर्म को शुरु करने वाले तीर्थंकर होनेसे "धर्मपाल" हो।
१००७. जगत् को जीने का उपदेश देकर उनका पालन करनेसे "जगत्पाल" हो।
१००८. धर्म रुपी साम्राज्य के स्वामी, उपदेशक, अधीश्वर होनेसे "धर्म साम्राज्यनायक " भी कहा जाता है।
९५१. आप जरा नष्ट होनेसे आप सुकोमल या सुंदर तनु के स्वामी है, इसलिये "सुतनु" हो।
९५२. शरीर तो आपका नाममात्र है, अर्थात संसारी शरीर को जो व्याप रहता है, वह आपका नही होता इसलिये आप"तनुर्निर्मुक्त" हो।
९५३. मोक्ष गती प्राप्त करनेवाले होनेसे अथवा आत्मा मे जाकर विश्राम करनेसे अथवा श्रेष्ठ ज्ञान धारी होनेसे "सुगत" हो।
९५४. मिथ्यादृष्टीयोंके खोटे नयोंका नाश करनेवाले होनेसे आपको "हतदुर्नय" भी कहा जाता है।
श्रीश:श्रीश्रितपादाब्जो वीतभी रभयंकर: ।उत्सन्नदोषो निर्विघ्नो निश्चलो लोकवत्सल:॥८॥
९५५. अंतरंग केवलज्ञान रुपी और बहिरंग समवशरण रुपी लक्ष्मीके स्वामी होनेसे आप को "श्रीश" हो।
९५६. लक्ष्मी आप कि दासी होके आपके चरणोमे रहती है अथवा आप के चरण कमल जहा भी पडते है, वहा पद्म, श्री अर्थात कमलो कि रचना होनेसे " श्रीश्रितपादाब्ज" हो।
९५७. भय को जीतने से "वीतभि" हो।
९५८. स्वयं भि भयमुक्त होकर समस्त जनोंको भि भयमुक्त करनेसे "अभयंकर" हो।
९५९. दोषोंका नाश करनेसे "उत्सन्नदोष" हो।
९६०. विघ्नरहीत होनेसे अथवा विघ्नोंका नाश करनेसे अथवा उपसर्गमुक्त होनेसे "निर्विघ्न" हो।
९६१. स्थिर, निर्विकार, निरामय होनेसे "निश्चल" हो।
९६२. लोगोंके प्रिय होनेसे अथवा आप लोगोंप्रती वात्सल्यसहित होनेसे "लोकवत्सल" कहे जाते है।
लोकोत्तरो लोकपति र्लोकचक्षुर पारधी: ।धीरधी र्बुध्दसन्मार्ग शुध्द: सुनृत-पूतवाक् ॥९॥
९६३. समस्त लोकोंमे उत्कृष्ट होनेसे अथवा लोक मे आपसे श्रेष्ठ कोई ना होनेसे "लोकोत्तर" हो।
९६४. तीनो लोक के नेता होनेसे "लोकपति" हो।
९६५. जैसे आपके ज्ञान के द्वारा तीनो लोक देखे जा सकते है, इसलिये "लोकचक्षु" हो।
९६६. अनंत ज्ञान के धारक होनेसे अथवा आपके ज्ञान का पार ना होनेसे "अपारधी" हो।
९६७. ज्ञान सदा स्थिर रहनेसे, आपका ज्ञान यथार्थ होनेसे किसी भि कालमे नही बदलेगा इसलिये "धीरधी" हो।
९६८. सबसे अच्छे मार्ग को अर्थात मोक्षमार्ग को यथार्थ जाननेसे "बुध्दसन्मार्ग" हो।
९६९. स्वरुप परमविशुध्द होनेसे "शुध्द" हो।
९७०. आपके वचन पवित्र, पतीतपावन तथा यथार्थ होनेसे "सुनृतपूतवाक्" भि कहे जात है।
प्रज्ञा-पारमित: प्राज्ञो यति र्नियमितेन्द्रिय:। भदन्तो भद्रकृत् भद्र कल्पवृक्षो वरप्रद:॥१०॥
९७१. आपके प्रज्ञा का पार नही किसी भि मिती मे, अथवा बुध्दीके पारगामी होनेसे आपको "प्रज्ञापारमीत" हो।
९७२. प्रज्ञा के धनी होनेसे "प्राज्ञा" हो।
९७३. आपने मोक्ष के अलावा किसी और चिज को पाने का यत्न ना किया अथवा मन को जीतनेसे "यतीऽ "हो।
९७४. इन्द्रीयोंको आपके नियम पर चलने के लिये बाध्य करनेसे "नियमितेन्द्रिय" हो।
९७५. पूज्य अथवा प्रबुध्द होनेसे "भदन्त" हो।
९७६. आपने सदैव जनोंका कल्याण हि चाहा और किया हुआ होनेसे "भद्रकृत्" हो।
९७७. मंगल, शुभ, कल्याणकारी, निष्कपट होनेसे "भद्र" हो।
९७८. ईच्छीत पदार्थोंके दाता होनेसे "कल्पवृक्ष" हो।
९७९. उनकी प्राप्ति करानेवाले होनेसे "वरप्रद" कहलाते है।
समुन्मूलीत-कर्मारि: कर्मकाष्ठाऽऽशुशुक्षणि: । कर्मण्य कर्मठ: प्रान्शु र्हेयादेय-विचक्षण:॥११
९८०. कर्मरुप शत्रूओंको जडसे उखाड फेकनेसे "समुन्मूलितकर्मारि" हो।
९८१. लकडीके समान धीरे धीरे या थोडे थोडे जलनेवाले कर्मोको जलानेवाले अग्नी होनेसे "कर्मकाष्ठशुशुक्षणी" हो।
९८२. चारित्र्य के नितान्त कुशल होनेसे "कर्मण्य" हो।
९८३. आचरणनिष्ठ होनेसे "कर्मठ" हो।
९८४. सबसे उँचे, प्रकाशमान्, उत्कृष्ट होनेसे "प्रांशु" हो।
९८५. छोडने योग्य और ग्रहण करने योग्य पदार्थोंको जानने मे निष्णात होनेसे "हेयादेयविचक्षण" भी है।
अनन्तशक्ति रच्छेद्य स्त्रिपुरारि स्त्रिलोचन:। त्रिनेत्र स्त्र्यम्बक स्त्र्यक्ष केवलज्ञान-वीक्षण:॥ १२
९८६. अंतराय कर्म का नाश करके आप ने अनंतवीर्य पाया है, इसलिए आप"अनंतशक्ती" हो।
९८७. आपका छेदन या भेदन ना कर सकनेसे " अच्छेद्य" हो।
९८८. जन्म जरा मृत्यू का नाश करनेसे तथा स्वर्ग, मध्यलोक, अधोलोक मे पुन: जन्म लेकर इन तिनो पुरोंका स्वयंके जीव कि अपेक्षामे नाश करनेसे "त्रिपुरारि" हो।
९८९. रत्नत्रयरुपी तिन नेत्र होनेसे अथवा तिनो लोक के तिनो काल के समस्त पदार्थोंको एक साथ देखने कि क्षमता होनेसे "त्रिलोचन" हो।
९९०. जन्मसे तीन ज्ञानके धारी होनेसे " त्रिनेत्र" हो।
९९१. "त्र्यम्बक" हो।
९९२. "त्र्यक्ष" हो।
९९३. केवलज्ञान हि आपके नेत्र होनेसे अर्थात द्रव्येंद्रिय चक्षू का उपयोग आपको केवलज्ञान के वजहसे जरुरी ना होनेसे "केवलज्ञानवीक्षण" भि आप हि हो।
समन्तभद्र शान्तारि र्धमाचार्यो दयानिधी:। सूक्ष्मदर्शी जितानंग कृपालू धर्मदेशक:॥ १३॥
९९४. सर्व जन के लिये सर्वमंगल होनेसे "समंतभद्र" हो।
९९५. कर्मशत्रूओंको शान्त कर देनेसे अथवा कोई जन्मजात शत्रूभी (जैसे साप और नेवला अथवा हरिणी और सिंह) आपके सानिध्य मे वैरभाव भूलकर शांत हो जानेसे "शान्तारि" हो।
९९६. धर्म को सिखानेवाले होनेसे "धर्माचार्य" हो।
९९७. दया का सागर होनेसे, दया का भांडार होनेसे "दयानिधी" हो।
९९८. सूक्षात्सूक्ष्म पदार्थ देखनेसे (जैसे अणु) अथवा जनोंको उसके बारेमें अवगत करानेसे "सूक्ष्मदर्शी" हो।
९९९. कामदेव पर विजय पानेसे "जितानंग" हो।
१०००. दयावान होनेसे "कृपालु" हो।
१००१. धर्म के यथार्थ उपदेश हि देशना के रुप मे देने वाले होनेसे "धर्मदेशक" भी आपको कहा जाता है।
शुभंयु सुखसाद्भूत: पुण्यराशी रनामय: । धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायक:॥१४॥
१००२. मोक्ष रुप शुभ को प्राप्त करनेसे "शुभंयु" हो।
१००३. अनंतसुख को आपने आधीन करनेसे अथवा अद्भुत सुख के साथ रहनेसे "सुखसाद्भूत" हो।
१००४. आप का नाम, गुण, स्मरण, भक्ती, अर्चना, पूजा, वंदना पुण्यकारक होनेसे "पुण्य - राशी" हो ।
१००५. रोग रहित होनेसे "अनामय" हो।
१००६. धर्म कि रक्षा करनेसे अथवा धर्म को शुरु करने वाले तीर्थंकर होनेसे "धर्मपाल" हो।
१००७. जगत् को जीने का उपदेश देकर उनका पालन करनेसे "जगत्पाल" हो।
१००८. धर्म रुपी साम्राज्य के स्वामी, उपदेशक, अधीश्वर होनेसे "धर्म साम्राज्यनायक " भी कहा जाता है।