06-05-2018, 10:32 AM
श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली द्वितीय अध्याय भाग २
१५१-ॐ ह्रीं अर्हं वृषकेतवे नमः -धर्म की पताका रूप होने से,
१५२ -ॐ ह्रीं अर्हं वृषायुधाय नमः-कर्मशत्रुओं को नष्ट करने के लिए धर्मरूप शास्त्र को धारण करने से
१५३-ॐ ह्रीं अर्हं वृषाय नमः -धर्मरूप होने से,
१५४-ॐ ह्रीं अर्हं वृषपतये नमः -धर्म के स्वामी होने से,
१५५-ॐ ह्रीं अर्हं भर्त्रे नमः -समस्त जीवों के पोषक होने से,,
१५६-ॐ ह्रीं अर्हं वृषभांकाय नमः -वृषभ /बैल चिन्ह अंकित होने से,,,
१५७-ॐ ह्रीं अर्हं वृषोद्भवाय नमः - पूर्व पर्यायों में उत्तम धर्म धारण कर ही तीर्थंकर होकर उत्पन्न होने से,,
१५८-ॐ ह्रीं अर्हं हिरण्यनाभये नमः -की सुंदर नाभि होने से ,
१५९-ॐ ह्रीं अर्हं भूतात्मने नमः -की आत्मा सत्यरूप होने से,,
१६०- ॐ ह्रीं अर्हं भूतभृते नमः -समस्त जीवों के रक्षक होने से,
१६१-ॐ ह्रीं अर्हं भूतवानाय नमः -अतिउत्तम भावनाये हो ने से,,
१६२-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभवाय नमः मोक्ष प्राप्ति में कारण अथवा जन्म प्रशंसनीय होने से,
१६३-ॐ ह्रीं अर्हं विभवाय नमः -संसार से रहित होने से,,
१६४- ॐ ह्रीं अर्हं भास्वते नमः -देदीप्यमान होने से,
१६५-ॐ ह्रीं अर्हं भवाय नमः -ध्रौव्य रूप से सदा विध्यमान होने से,
१६६-ॐ ह्रीं अर्हं भावाय नमः -अपने चैतन्य रूप भाव में लीन होने से,
१६७-ॐ ह्रीं अर्हं भवान्तकाय नमः -संसार भ्रमण का अंत भावनाये,
१६८-ॐ ह्रीं अर्हं हिरण्य गर्भाय नमः -के गर्भ में रहते हुए पृथिवी स्वर्णमय होने और आकाश से देवों द्वारा स्वर्ण की वर्षा करने से,,
१६९-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीगर्भाय नमः -अंतरंग में अनंत चतुष्टाय रूपलक्ष्मी देदीप्यमान रहने से,
१७०-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभूतविभवाय नमः -अत्यंत वैभवशाली होने से,
१७१-ॐ ह्रीं अर्हं अभवाय नमः -जन्मरहित होने से,
१७२-ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंप्रभाय नमः - स्वयं समर्थ होने से,
१७३-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभूतात्माने नमः -केवल ज्ञान की अपेक्षा सर्वत्र व्याप्त होने से,,
१७४-ॐ ह्रीं अर्हं भूतनाथाय नमः -समस्त जीवों के स्वामी होने से ,
१७५-ॐ ह्रीं अर्हं जगत्प्रभवे नमः -तीनो लोक के स्वामी होने से,
१७६-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वादये नमः -सब से मुख्य होने से,
१७७-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदृशे नमः -सभी पदार्थों को देखने वाले होने से ,
१७८-ॐ ह्रीं अर्हं सार्वाय नमः -सब का हित करने वाले होने से,
१७९-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वज्ञाय नमः -सब पदार्थों के ज्ञाता होने से,,
१८०- ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदर्शनाय नमः -का सम्यक्त्व/दर्शन /केवलदर्शन पूर्ण अवस्था को प्राप्त होने से,
१८१-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वात्मने नमः -सब के हितैषी /सबको अपने समान समझते है /संसार के समस्त पदार्थ उनके आत्मा में प्रतिबिंबितहोने से,
१८२-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकेशाय नमः -सभी लोगो के स्वामी होने से,
१८३-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविदे नमः -सब पदार्थों के ज्ञाता होने से,
१८४-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकजिताय नमः -समस्त लोकों के विजेता होने से,
१८५-ॐ ह्रीं अर्हं सुगतये नमः -की मोक्ष रुपी गति अतिशय सुंदर है,/ज्ञान सर्वोत्तम होने से,
१८६-ॐ ह्रीं अर्हं सुश्रुताय नमः - उत्तम शास्त्रों के धारक होने से,
१८७-ॐ ह्रीं अर्हं सुश्रुते नमः -सभी जीवों की प्रार्थना सुनते है अत:,
१८८-ॐ ह्रीं अर्हं सुवाचे नमः - वचन अति उत्तम ने से,
१८९-ॐ ह्रीं अर्हं सूरये नमः -समस्त विद्याओं को प्राप्त करने से,
१९०-ॐ ह्रीं अर्हं बहुश्रुताय नमः -सभी शास्त्रों के परिगामी होने से,
१९१-ॐ ह्रीं अर्हं विश्रुताय नमः -बहुत प्रसिद्द है अथवा उन्हें केवलज्ञान प्राप्ति से क्षयोपशमिक श्रुतज्ञान का क्षय होने से,
१९२-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वत:पादाय नमः -केवलज्ञान रूपी किरणे संसार में सर्वत्र व्याप्त होने से,
१९३-ॐ ह्रीं अर्हं विशवशीर्षाय नमः -लोकशिखर पर विराजमान होने से,
१९४-ॐ ह्रीं अर्हं शुचिश्रवसे नमः -श्रवण शक्ति अत्यंत पवित्र होने से,
१९५-ॐ ह्रीं अर्हं सहस्रशीर्षाय नमः -अनंत सुख की प्राप्ति से होने से,
१९६-ॐ ह्रीं अर्हं क्षेत्रज्ञाय नमः - क्षेत्र अर्थात आत्मा को जानने से क्षेत्रज्ञ,
१९७-ॐ ह्रीं अर्हं सहस्राक्षाय नमः -अनंत पदार्थों को जानने से ,
१९८-ॐ ह्रीं अर्हं सहस्रपादे नमः -अनंत बल के धारक होने से ,
१९९-ॐ ह्रीं अर्हं भूतभव्य भवद् भर्त्रे नमः -भूत,भविष्य और वर्तमान काल के स्वामी होने से,
२००-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वविद्यामहेश्वराय नमः -समस्त विद्याओं के प्रधान स्वामी होने से,
१५१-ॐ ह्रीं अर्हं वृषकेतवे नमः -धर्म की पताका रूप होने से,
१५२ -ॐ ह्रीं अर्हं वृषायुधाय नमः-कर्मशत्रुओं को नष्ट करने के लिए धर्मरूप शास्त्र को धारण करने से
१५३-ॐ ह्रीं अर्हं वृषाय नमः -धर्मरूप होने से,
१५४-ॐ ह्रीं अर्हं वृषपतये नमः -धर्म के स्वामी होने से,
१५५-ॐ ह्रीं अर्हं भर्त्रे नमः -समस्त जीवों के पोषक होने से,,
१५६-ॐ ह्रीं अर्हं वृषभांकाय नमः -वृषभ /बैल चिन्ह अंकित होने से,,,
१५७-ॐ ह्रीं अर्हं वृषोद्भवाय नमः - पूर्व पर्यायों में उत्तम धर्म धारण कर ही तीर्थंकर होकर उत्पन्न होने से,,
१५८-ॐ ह्रीं अर्हं हिरण्यनाभये नमः -की सुंदर नाभि होने से ,
१५९-ॐ ह्रीं अर्हं भूतात्मने नमः -की आत्मा सत्यरूप होने से,,
१६०- ॐ ह्रीं अर्हं भूतभृते नमः -समस्त जीवों के रक्षक होने से,
१६१-ॐ ह्रीं अर्हं भूतवानाय नमः -अतिउत्तम भावनाये हो ने से,,
१६२-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभवाय नमः मोक्ष प्राप्ति में कारण अथवा जन्म प्रशंसनीय होने से,
१६३-ॐ ह्रीं अर्हं विभवाय नमः -संसार से रहित होने से,,
१६४- ॐ ह्रीं अर्हं भास्वते नमः -देदीप्यमान होने से,
१६५-ॐ ह्रीं अर्हं भवाय नमः -ध्रौव्य रूप से सदा विध्यमान होने से,
१६६-ॐ ह्रीं अर्हं भावाय नमः -अपने चैतन्य रूप भाव में लीन होने से,
१६७-ॐ ह्रीं अर्हं भवान्तकाय नमः -संसार भ्रमण का अंत भावनाये,
१६८-ॐ ह्रीं अर्हं हिरण्य गर्भाय नमः -के गर्भ में रहते हुए पृथिवी स्वर्णमय होने और आकाश से देवों द्वारा स्वर्ण की वर्षा करने से,,
१६९-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीगर्भाय नमः -अंतरंग में अनंत चतुष्टाय रूपलक्ष्मी देदीप्यमान रहने से,
१७०-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभूतविभवाय नमः -अत्यंत वैभवशाली होने से,
१७१-ॐ ह्रीं अर्हं अभवाय नमः -जन्मरहित होने से,
१७२-ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंप्रभाय नमः - स्वयं समर्थ होने से,
१७३-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभूतात्माने नमः -केवल ज्ञान की अपेक्षा सर्वत्र व्याप्त होने से,,
१७४-ॐ ह्रीं अर्हं भूतनाथाय नमः -समस्त जीवों के स्वामी होने से ,
१७५-ॐ ह्रीं अर्हं जगत्प्रभवे नमः -तीनो लोक के स्वामी होने से,
१७६-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वादये नमः -सब से मुख्य होने से,
१७७-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदृशे नमः -सभी पदार्थों को देखने वाले होने से ,
१७८-ॐ ह्रीं अर्हं सार्वाय नमः -सब का हित करने वाले होने से,
१७९-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वज्ञाय नमः -सब पदार्थों के ज्ञाता होने से,,
१८०- ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदर्शनाय नमः -का सम्यक्त्व/दर्शन /केवलदर्शन पूर्ण अवस्था को प्राप्त होने से,
१८१-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वात्मने नमः -सब के हितैषी /सबको अपने समान समझते है /संसार के समस्त पदार्थ उनके आत्मा में प्रतिबिंबितहोने से,
१८२-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकेशाय नमः -सभी लोगो के स्वामी होने से,
१८३-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविदे नमः -सब पदार्थों के ज्ञाता होने से,
१८४-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकजिताय नमः -समस्त लोकों के विजेता होने से,
१८५-ॐ ह्रीं अर्हं सुगतये नमः -की मोक्ष रुपी गति अतिशय सुंदर है,/ज्ञान सर्वोत्तम होने से,
१८६-ॐ ह्रीं अर्हं सुश्रुताय नमः - उत्तम शास्त्रों के धारक होने से,
१८७-ॐ ह्रीं अर्हं सुश्रुते नमः -सभी जीवों की प्रार्थना सुनते है अत:,
१८८-ॐ ह्रीं अर्हं सुवाचे नमः - वचन अति उत्तम ने से,
१८९-ॐ ह्रीं अर्हं सूरये नमः -समस्त विद्याओं को प्राप्त करने से,
१९०-ॐ ह्रीं अर्हं बहुश्रुताय नमः -सभी शास्त्रों के परिगामी होने से,
१९१-ॐ ह्रीं अर्हं विश्रुताय नमः -बहुत प्रसिद्द है अथवा उन्हें केवलज्ञान प्राप्ति से क्षयोपशमिक श्रुतज्ञान का क्षय होने से,
१९२-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वत:पादाय नमः -केवलज्ञान रूपी किरणे संसार में सर्वत्र व्याप्त होने से,
१९३-ॐ ह्रीं अर्हं विशवशीर्षाय नमः -लोकशिखर पर विराजमान होने से,
१९४-ॐ ह्रीं अर्हं शुचिश्रवसे नमः -श्रवण शक्ति अत्यंत पवित्र होने से,
१९५-ॐ ह्रीं अर्हं सहस्रशीर्षाय नमः -अनंत सुख की प्राप्ति से होने से,
१९६-ॐ ह्रीं अर्हं क्षेत्रज्ञाय नमः - क्षेत्र अर्थात आत्मा को जानने से क्षेत्रज्ञ,
१९७-ॐ ह्रीं अर्हं सहस्राक्षाय नमः -अनंत पदार्थों को जानने से ,
१९८-ॐ ह्रीं अर्हं सहस्रपादे नमः -अनंत बल के धारक होने से ,
१९९-ॐ ह्रीं अर्हं भूतभव्य भवद् भर्त्रे नमः -भूत,भविष्य और वर्तमान काल के स्वामी होने से,
२००-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वविद्यामहेश्वराय नमः -समस्त विद्याओं के प्रधान स्वामी होने से,