06-17-2021, 02:57 PM
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित- बुद्धि- बोधात्, त्वं शङ्करोऽसि भुवन-त्रय- शङ्करत्वात् ।
धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्, व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि॥
केवलज्ञानी सुर पूजित होने से बुद्ध तुम्हीं।
त्रिभुवन में सुख करने वाले शंकर नाथ तुम्हीं ।।
मोक्षमार्ग की विधि बतलाते ब्रह्मा कहलाते।
सारे जग में श्रेष्ठ विष्णु पुरुषोत्तम पद पाते ।।
दोष अठारह रहित बुद्ध शिव शंकर ब्रह्मा आप।
वीतराग सम देव न दूजा नमूँ-नमूँ जिननाथ !
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। ( 25 )
ॐ ह्रीं अर्हम् मेघ धारा चारण क्रिया ऋद्धये मेघ धारा चारण क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 25 )
तुभ्यं नमस्-त्रिभुवनार्ति-हराय नाथ! तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल - भूषणाय ।
तुभ्यं नमस्-त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ॥
तीन जगत के दुःख हर्ता, हे प्रभुवर तुम्हें प्रणाम।
पृथ्वीतल के निर्मल भूषण जिनवर तुम्हें प्रणाम ।।
त्रिभुवन के परमेश्वर तुमको बारम्बार प्रणाम ।
अपार भवदधि शोषण हारे आदि जिनेश प्रणाम ।।
मध्यम मंगल करूँ भाव से सारे बंध नशे ।
मेरी ज्ञान वेदी पर आदि जिनेश्वर नित्य बसें ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।1 (26)
ॐ ह्रीं अर्हम् तंतु चारण क्रिया ऋद्धये तंतु चारण क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (26)
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषै स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !
दोषै-रुपात्त- विविधाश्रय-जात-गर्वैः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥
सर्व गुणों को मिल नहीं पाया और कहीं आवास ।
अतः सभी गुण शरणागत हो बने आपके दास ।
अन्य विविध जन का आश्रय पा दोष करें अभिमान ।
स्वप्न मात्र में भी ना देखें दोष तुम्हें भगवान् ।
इसमें कुछ आश्चर्य नहीं निर्दोष स्वभावी आप ।
दोष रहित गुण कोष रहूँ मैं मात्र यही अभिलाष ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (27)
ॐ ह्रीं अर्हम् ज्योतिष चारण क्रिया ऋद्धये ज्योतिष चारण बुद्धि क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (27)
उच्चै- रशोक तरु- संश्रितमुन्मयूख माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।
स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो वितानं, - बिम्बं रवेरिव पयोधर- पाश्र्ववर्ति ॥
बारह गुणा प्रभु से ऊँचा वृक्ष अशोक विशाल ।
उसके नीचे प्रभु विराजे तरूवर हुआ निहाल ।।
ऊर्ध्व किरण से मण्डित उज्जवल रूप आपका है।
ज्यों बादल के निकट तेजमय सूर्य शोभता है।।
समवसरण में भवि जीवों का मोह तमस नाशी ।
प्रातिहार्यधारी प्रभु का मैं दर्शन अभिलाषी ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (28)
ॐ ह्रीं अर्हम् मरूच्चारण क्रिया ऋद्धये मरुच्चारण क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (28)
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्।
बिम्बं वियद्-विलस-दंशुलता-वितानं तुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे ॥
रत्न किरण के अग्र भाग से जड़ित सिंहासन है।
चउ अंगुल उस पर स्वर्णिम तन धारी भगवन् है।।
उदयाचल के उच्च शिखर पर ज्यों रवि शोभ रहा।
सुन्दर सिंहासन पर जिन रवि भवि मन मोह रहा।
मेरे स्वच्छ हृदय आसन पर आदीश्वर आओ।
भक्ति के उदयाचल पर प्रभु आकर बस जाओ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (29)
ॐ ह्रीं अर्हम् सर्व तपः ऋद्धये सर्व तपः ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (29)
कुन्द्रावदात- चल- चामर-चारु- शोभ, विभ्राजते तव वपुः कलधौत -कान्तम्॥
उद्यच्छशांङ्क- शुचिनिर्झर-वारि -बार मुच्चैस्तदं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥
प्रभु के दोनों ओर चॅवर चौसठ पावन्न दुरुते॥
कुन्द पुष्प सम स्वच्छ वॅवर ये सब जान-मान हरते॥
श्वेत चँवर से स्वर्णिम तन, प्रभु का ऐसा लगता।
स्वर्ण मेक्त के दोनों तट पर झरना च बहता।
उदित चन्द्रमा से भी सुन्दर तनधारी भगवान्॥
चॅवर सिखाते विनम्र होकर करो कर्म का होना।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (30)
ॐ ह्रीं अर्हन् अचोर ब्रह्मचारित्वऋद्धह्मचारिय ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (30)
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Bhaktambar stotra with meaning and riddhi mantra
धातासि धीर! शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्, व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि॥
केवलज्ञानी सुर पूजित होने से बुद्ध तुम्हीं।
त्रिभुवन में सुख करने वाले शंकर नाथ तुम्हीं ।।
मोक्षमार्ग की विधि बतलाते ब्रह्मा कहलाते।
सारे जग में श्रेष्ठ विष्णु पुरुषोत्तम पद पाते ।।
दोष अठारह रहित बुद्ध शिव शंकर ब्रह्मा आप।
वीतराग सम देव न दूजा नमूँ-नमूँ जिननाथ !
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। ( 25 )
ॐ ह्रीं अर्हम् मेघ धारा चारण क्रिया ऋद्धये मेघ धारा चारण क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 25 )
तुभ्यं नमस्-त्रिभुवनार्ति-हराय नाथ! तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल - भूषणाय ।
तुभ्यं नमस्-त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ॥
तीन जगत के दुःख हर्ता, हे प्रभुवर तुम्हें प्रणाम।
पृथ्वीतल के निर्मल भूषण जिनवर तुम्हें प्रणाम ।।
त्रिभुवन के परमेश्वर तुमको बारम्बार प्रणाम ।
अपार भवदधि शोषण हारे आदि जिनेश प्रणाम ।।
मध्यम मंगल करूँ भाव से सारे बंध नशे ।
मेरी ज्ञान वेदी पर आदि जिनेश्वर नित्य बसें ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।1 (26)
ॐ ह्रीं अर्हम् तंतु चारण क्रिया ऋद्धये तंतु चारण क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (26)
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणै-रशेषै स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !
दोषै-रुपात्त- विविधाश्रय-जात-गर्वैः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥
सर्व गुणों को मिल नहीं पाया और कहीं आवास ।
अतः सभी गुण शरणागत हो बने आपके दास ।
अन्य विविध जन का आश्रय पा दोष करें अभिमान ।
स्वप्न मात्र में भी ना देखें दोष तुम्हें भगवान् ।
इसमें कुछ आश्चर्य नहीं निर्दोष स्वभावी आप ।
दोष रहित गुण कोष रहूँ मैं मात्र यही अभिलाष ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (27)
ॐ ह्रीं अर्हम् ज्योतिष चारण क्रिया ऋद्धये ज्योतिष चारण बुद्धि क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (27)
उच्चै- रशोक तरु- संश्रितमुन्मयूख माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।
स्पष्टोल्लसत्-किरण-मस्त-तमो वितानं, - बिम्बं रवेरिव पयोधर- पाश्र्ववर्ति ॥
बारह गुणा प्रभु से ऊँचा वृक्ष अशोक विशाल ।
उसके नीचे प्रभु विराजे तरूवर हुआ निहाल ।।
ऊर्ध्व किरण से मण्डित उज्जवल रूप आपका है।
ज्यों बादल के निकट तेजमय सूर्य शोभता है।।
समवसरण में भवि जीवों का मोह तमस नाशी ।
प्रातिहार्यधारी प्रभु का मैं दर्शन अभिलाषी ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (28)
ॐ ह्रीं अर्हम् मरूच्चारण क्रिया ऋद्धये मरुच्चारण क्रिया ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (28)
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्।
बिम्बं वियद्-विलस-दंशुलता-वितानं तुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्र-रश्मे ॥
रत्न किरण के अग्र भाग से जड़ित सिंहासन है।
चउ अंगुल उस पर स्वर्णिम तन धारी भगवन् है।।
उदयाचल के उच्च शिखर पर ज्यों रवि शोभ रहा।
सुन्दर सिंहासन पर जिन रवि भवि मन मोह रहा।
मेरे स्वच्छ हृदय आसन पर आदीश्वर आओ।
भक्ति के उदयाचल पर प्रभु आकर बस जाओ।।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (29)
ॐ ह्रीं अर्हम् सर्व तपः ऋद्धये सर्व तपः ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (29)
कुन्द्रावदात- चल- चामर-चारु- शोभ, विभ्राजते तव वपुः कलधौत -कान्तम्॥
उद्यच्छशांङ्क- शुचिनिर्झर-वारि -बार मुच्चैस्तदं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥
प्रभु के दोनों ओर चॅवर चौसठ पावन्न दुरुते॥
कुन्द पुष्प सम स्वच्छ वॅवर ये सब जान-मान हरते॥
श्वेत चँवर से स्वर्णिम तन, प्रभु का ऐसा लगता।
स्वर्ण मेक्त के दोनों तट पर झरना च बहता।
उदित चन्द्रमा से भी सुन्दर तनधारी भगवान्॥
चॅवर सिखाते विनम्र होकर करो कर्म का होना।
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है।
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (30)
ॐ ह्रीं अर्हन् अचोर ब्रह्मचारित्वऋद्धह्मचारिय ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (30)
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