प्रवचनसारः गाथा -53 ज्ञान और सुख की महिमा
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -54 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
तस्स णमाइं लोगो देवासुरमणुजराजसंबद्धो।
भत्तो करेदि णियदं उज्जुत्तो तं तहा विअहं।। ५४॥

अन्वयार्थ - (देवासुरमणुजराजसंबद्धो) देव, असुर और मनुष्यों के समूह से युक्त (भत्तो) भक्त (लोगो) लोक (उज्जुत्तो) उद्यत होता हुआ (णिच्चं) हमेशा (तस्स) उन सर्वज्ञदेव को (णमाइं) नमस्कार (करेदि) करता है (तं) उन्हीं सर्वज्ञ देव को (तहा) उसी प्रकार (अहं वि) मैं भी नमस्कार करता हूँ।


गाथा -53 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -55 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


अत्थि अमुत्तं मुत्तं अदिदियं इंदियं च अत्थेसु /
णाण च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं // 53 / /


अन्वयार्थ - (अत्थेसु णाणं) पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान (अमुत्तं मुत्तं) अमूर्त या मूर्त (अदिंदियं इंदियं च) अतीन्द्रिय या ऐन्द्रिय होता है। (च तधा सोक्खं) और इसी प्रकार सुख होता है। (तेसु च जं परं) उसमें जो प्रधान उत्कृष्ट है, (तं णेयं) वह जानना।

दूसरे अधिकार में ज्ञानसे अभिन्नरूप सुखका वर्णन करते हुए आचार्य महाराज पहले "कौन सुख हेय है, और कौन उपादेय है," यह विचार दिखाते हैं-[अर्थेषु ] पदाअॅमें [ अतीन्द्रियं ] इंद्रियोंकी आधीनतासे रहित [ज्ञानं ] ज्ञान है, वह [अमूर्त ] अमूर्तीक है, [च] और [ऐन्द्रियं] इंद्रियजनित ज्ञान [ मूर्त ] मूर्तीक [अस्ति ] है। [च तथा] और इसी तरह [ सौख्यं ] सुख भी हैं / अर्थात् जो इंद्रिय विना सुखका अनुभव है, वह अतींद्रिय अमूर्तीक सुख है, और जो इंद्रियके आधीन सुखका अनुभव है, सो इंद्रियजनित मूर्तीक सुख है / [च] और [तेषु ] उन ज्ञान सुखके भेदोंमें [ यत् ] जो [ परं] उत्कृष्ट है, [ तत् ] वह [ज्ञेयं ] जानने .1 इस गाथासूत्रकी भी श्रीमदमूतचन्द्राचार्यने टीका नहीं की, इससे मूलसंख्यामें नहीं रक्खा / योग्य है /

भावार्थ-ज्ञान और सुख दो प्रकारके हैं, एक अतीन्द्रिय अमूर्तीक और दूसरा इन्द्रियाधीन मूर्तीक / इनमें से अतीन्द्रिय अमूर्तीक ज्ञानसुख उपादेय है, और इंद्रियाधीन मूर्तीक ज्ञानसुख हेय है। जो ज्ञानसुख आत्मीक, अमूर्तीक, चैतन्यरूप परद्रव्योंके संयोगसे रहित केवल शुद्ध परिणतिरूप शक्तिसे उत्पन्न है, वह सब तरहसे आत्माके आधीन है, अबिनाशी है, एक ही बार अखंडित धारा प्रवाहरूप प्रवर्तता है, शत्रुरहित है, और घटता बढ़ता नहीं है। इस कारण उत्कृष्ट तथा उपादेय है, और जो आत्माके मूर्तीक क्षयोपशमरूप इंद्रियोंके आधीन चैतन्य शक्तिसे उत्पन्न है, वह पराधीन है, विनाशीक है, क्रमरूप प्रवर्तता है, शत्रुसे खंडित है, और घटता बढ़ता है, इस कारण हीन तथा हेय है


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 53


 यहाँ ज्ञान की महिमा केवल ज्ञान के रूप में बताई हैं, ऐसे ज्ञान की महिमा को सारा लोक ,देव असुर,मनुष्य सब नमस्कार करते हैं। ऐसे ज्ञान को हमे भी जानकर हृदय से नमस्कार करना चाहिए,,औऱ आचार्य श्री भी यहाँ ऐसे ज्ञान को नमस्कार कर रहे है

53 पहले ज्ञान होना जरूरी है, फिर कोई सुख की आवयश्कता नहीं,,यहाँ ज्ञान और सुख एक माना गया,,अगर ज्ञान उत्तम होगा तो वैसा ही सुख होगा,,ज्ञान जिनमे नही उनमे सुखानुभूति नही होती,,सुख गुण और ज्ञान गुण दोनों जीव में ही हैं,, निर्जीव में ये गुण नही,,इसलिए ज्ञान वाला आत्मा ही सुख चाहता हैं,,ज्ञान क्षयिक होगा तो सुख भी क्षयिक होगा,

ज्ञान और सुख पदार्थो में अमूर्तिक ,मूर्तिक अतीन्द्रिय ओर इंद्रिय सभी प्रकार के होते है,, पर इनमें से जो उत्कृष्ट हैं वही जानने योग्य अर्थात उपादेय हैं,इनमे से अमूर्तिक ओर अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख ही मुक्तात्माओं का जानना चाहिए।



Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha 53 
The knowledge of objects that is independent of the senses – atīndriya jñāna – is without form – amūrtīka. The knowledge of objects that is dependent on the senses – indriya jñāna – is with form – mūrtīka. The same applies to happiness; the sense independent happiness is without form, and the sense- dependent happiness is with form. One must know the commendable kinds of knowledge and happiness out of these divisions.

Explanatory Note: 
Knowledge and happiness are each of two kinds: sense-independent without form, and sense-dependent with form. The former – sense-independent without form – knowledge and happiness are worth accepting, and the latter – sense-dependent with form – worth rejecting. Knowledge and happiness produced by the non-corporeal soul, i.e. consciousness, through its own power of knowledge-transformation, without physical contact with the objects-of-knowledge (jñeya), are entirely sense-independent (atīndriya), non-destructible, incessant, without adversary, and steady. These are, therefore, commendable, and worth accepting. Knowledge and happiness  produced on destruction-cum-subsidence (ksayopaśama) of material-karmas are sense-dependent, destructible, sporadic, with adversary, and unsteady. These are, therefore, not commendable, and worth rejecting.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -53,54

इन्द्रियजन्य बोध सुख मूर्तिक हो इससे और तरह भी ।
हेय यही आदेय दूसरा यों कहते आचार्य सभी
सूक्ष्मान्तरित दूर चीजों को सबको सदा जानता है।
यह ही है प्रत्यक्ष वहाँ आत्माधीन प्रमाणता है २७ ॥


गाथा -51,52,53,54

सारांश:- इन्द्रियजन्य और इन्द्रियातीत के भेदसे ज्ञान जैसे दो प्रकारका होता है वैसे ही सुख भी दो प्रकारका होता है क्योंकि सुखका ज्ञानके साथमें अविनाभाव सम्बन्ध है। जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ सुख होता है और जहाँ ज्ञान नहीं होता है वहाँ सुख भी नहीं होता है।

शङ्काः- -ज्ञानके साथमें सुख ही क्यों? दुःख भी तो हुआ करता है। जब हम लोग शक्कर खाते हैं तब सुख होता है किन्तु नमक खाते हैं तो दुःख होता है।
उत्तर: - तुमने बात कही किन्तु कुछ सोच विचारकर नहीं कहीं। नमक खाने से दुःख ही होता हो, ऐसी बात नहीं है। कभी सुख भी होता है। जैसे किसी शाक में नमक न हो या कम हो तब यह कहा जाता है कि आज शाक में नमक नहीं है, इसलिये अच्छा नहीं लगता है। यहाँ नमक से सुख भी होता है। इसी प्रकार जब एक मनुष्य बरफी खाता है और बरफीमें यदि मावा (खोवा) कम होकर शक्कर अधिक होती है तब कह देता है कि इसमें तो शक्कर ही शक्कर है, इसलिये अच्छी नहीं लगती है। यहाँ शक्कर से सुख न होकर दुःख हो रहा है, अतः न नमक खाने में दुख है और न शक्कर खाने में सुख हैं किन्तु बात कुछ और ही है।
वह यह है कि संसारी आत्मा के ज्ञान के साथ में इच्छा लगी हुई होती है। इस इच्छा में जब कोई बाधा आती है तब उस विपरीत कार्य में ज्ञान सुखरूप न रह कर दुःखरूपमें  परिणत हो जाता है अर्थात् उसमें विकार आ जाता है। इच्छा के होने से ही आत्मा का ज्ञान सर्वाङ्गी व्यापक न होकर एकाङ्गी और क्रमिक बना हुआ है।

मानलो आप किसी शहरके बाजारमें पहुँचे और एक कुकर चूल्हा खरीदने की इच्छासे चले जारहे हैं। अनेक दुकानें आपकी दृष्टिमें आती हैं परन्तु उन्हें छोड़ते हुए आप सीधे किसी बरतनवाले की दुकान पर पहुँचते हैं। वहाँ पर भी कई प्रकार के बरतन रखे हुए हैं जो आपके देखने में आ रहे हैं परन्तु आपका मन तो कुकर चूल्हे की ओर ही है। उधर हो लग रहा है कि यह रहा कुकर चूल्हा । यदि वहाँ कुकर चूल्हा न हो तो आप दुकानदार से पूछते हैं कि क्या तुम्हारे पास कुकर चूल्हा है? इस पर यदि उसने उत्तर दिया कि कुकर चूल्हा तो नहीं है। तब आप शीघ्र ही कह देते हैं कि जब तुम्हारे पास कुकर चूल्हा नहीं है तो और क्या है? कुछ भी नहीं है ऐसा कहकर चल देते हैं।

मार्ग में भी यदि कोई पूछता है कि आप कहाँ गये थे? तब आप यहाँ उत्तर देते हैं कि बाजार में गया था परन्तु बाजार में क्या रक्खा है? कुछ भी तो नहीं है। मुझे एक कुकर की आवश्यकता थी, वहीं यहाँ नहीं मिला। अब विचार की बात है कि यद्यपि बाजार में बहुत सी चीजें हैं किन्तु आपका ज्ञान कुकर की इच्छा से बँधा हुआ है इसीलिये आप ऐसा कहते हैं और दुखी होते हैं। यदि आपके यह इच्छा न हो तो आप ही कह देंगे कि इस बाजार में तो बहुत सी विचित्र विचित्र वस्तुएं हैं। इनको देखकर मेरा मन प्रसन्न हो रहा है। तुम्हें क्या २ बताऊं जिनको देखा उनको मेरा मन हो जानता है। यह तो एक उदाहरण है।

इसी प्रकार संसारी जीव का ज्ञान सदा इच्छाओं में फँसा रहता है, अतः संकुचित हो रहा है। केवल इन्द्रियों के आश्वासन रूप सुखके साथ साथ श्रम रूप दुःख को भी लिये हुए होता है। जिन लोगों ने सब प्रकार की आवश्यकताओं पर विजय प्राप्त करली हो, जो निरीह हो चुके हों, उन्हें जिन कहते हैं। इसका ज्ञान अखण्ड और सबको एकसाथ जाननेवाला होता है। इनका सुख भी स्वाभाविक और शाश्वत होता है, जो उपादेय है। इन्द्रियजन्य ज्ञान और सुख पराधीन होते हैं इसलिये हेय हैं
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