08-13-2022, 12:17 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -54 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
तस्स णमाइं लोगो देवासुरमणुजराजसंबद्धो।
भत्तो करेदि णियदं उज्जुत्तो तं तहा विअहं।। ५४॥
अन्वयार्थ - (देवासुरमणुजराजसंबद्धो) देव, असुर और मनुष्यों के समूह से युक्त (भत्तो) भक्त (लोगो) लोक (उज्जुत्तो) उद्यत होता हुआ (णिच्चं) हमेशा (तस्स) उन सर्वज्ञदेव को (णमाइं) नमस्कार (करेदि) करता है (तं) उन्हीं सर्वज्ञ देव को (तहा) उसी प्रकार (अहं वि) मैं भी नमस्कार करता हूँ।
गाथा -53 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -55 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
अत्थि अमुत्तं मुत्तं अदिदियं इंदियं च अत्थेसु /
णाण च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं // 53 / /
अन्वयार्थ - (अत्थेसु णाणं) पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान (अमुत्तं मुत्तं) अमूर्त या मूर्त (अदिंदियं इंदियं च) अतीन्द्रिय या ऐन्द्रिय होता है। (च तधा सोक्खं) और इसी प्रकार सुख होता है। (तेसु च जं परं) उसमें जो प्रधान उत्कृष्ट है, (तं णेयं) वह जानना।
दूसरे अधिकार में ज्ञानसे अभिन्नरूप सुखका वर्णन करते हुए आचार्य महाराज पहले "कौन सुख हेय है, और कौन उपादेय है," यह विचार दिखाते हैं-[अर्थेषु ] पदाअॅमें [ अतीन्द्रियं ] इंद्रियोंकी आधीनतासे रहित [ज्ञानं ] ज्ञान है, वह [अमूर्त ] अमूर्तीक है, [च] और [ऐन्द्रियं] इंद्रियजनित ज्ञान [ मूर्त ] मूर्तीक [अस्ति ] है। [च तथा] और इसी तरह [ सौख्यं ] सुख भी हैं / अर्थात् जो इंद्रिय विना सुखका अनुभव है, वह अतींद्रिय अमूर्तीक सुख है, और जो इंद्रियके आधीन सुखका अनुभव है, सो इंद्रियजनित मूर्तीक सुख है / [च] और [तेषु ] उन ज्ञान सुखके भेदोंमें [ यत् ] जो [ परं] उत्कृष्ट है, [ तत् ] वह [ज्ञेयं ] जानने .1 इस गाथासूत्रकी भी श्रीमदमूतचन्द्राचार्यने टीका नहीं की, इससे मूलसंख्यामें नहीं रक्खा / योग्य है /
भावार्थ-ज्ञान और सुख दो प्रकारके हैं, एक अतीन्द्रिय अमूर्तीक और दूसरा इन्द्रियाधीन मूर्तीक / इनमें से अतीन्द्रिय अमूर्तीक ज्ञानसुख उपादेय है, और इंद्रियाधीन मूर्तीक ज्ञानसुख हेय है। जो ज्ञानसुख आत्मीक, अमूर्तीक, चैतन्यरूप परद्रव्योंके संयोगसे रहित केवल शुद्ध परिणतिरूप शक्तिसे उत्पन्न है, वह सब तरहसे आत्माके आधीन है, अबिनाशी है, एक ही बार अखंडित धारा प्रवाहरूप प्रवर्तता है, शत्रुरहित है, और घटता बढ़ता नहीं है। इस कारण उत्कृष्ट तथा उपादेय है, और जो आत्माके मूर्तीक क्षयोपशमरूप इंद्रियोंके आधीन चैतन्य शक्तिसे उत्पन्न है, वह पराधीन है, विनाशीक है, क्रमरूप प्रवर्तता है, शत्रुसे खंडित है, और घटता बढ़ता है, इस कारण हीन तथा हेय है
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 53
यहाँ ज्ञान की महिमा केवल ज्ञान के रूप में बताई हैं, ऐसे ज्ञान की महिमा को सारा लोक ,देव असुर,मनुष्य सब नमस्कार करते हैं। ऐसे ज्ञान को हमे भी जानकर हृदय से नमस्कार करना चाहिए,,औऱ आचार्य श्री भी यहाँ ऐसे ज्ञान को नमस्कार कर रहे है
53 पहले ज्ञान होना जरूरी है, फिर कोई सुख की आवयश्कता नहीं,,यहाँ ज्ञान और सुख एक माना गया,,अगर ज्ञान उत्तम होगा तो वैसा ही सुख होगा,,ज्ञान जिनमे नही उनमे सुखानुभूति नही होती,,सुख गुण और ज्ञान गुण दोनों जीव में ही हैं,, निर्जीव में ये गुण नही,,इसलिए ज्ञान वाला आत्मा ही सुख चाहता हैं,,ज्ञान क्षयिक होगा तो सुख भी क्षयिक होगा,
ज्ञान और सुख पदार्थो में अमूर्तिक ,मूर्तिक अतीन्द्रिय ओर इंद्रिय सभी प्रकार के होते है,, पर इनमें से जो उत्कृष्ट हैं वही जानने योग्य अर्थात उपादेय हैं,इनमे से अमूर्तिक ओर अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख ही मुक्तात्माओं का जानना चाहिए।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -54 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
तस्स णमाइं लोगो देवासुरमणुजराजसंबद्धो।
भत्तो करेदि णियदं उज्जुत्तो तं तहा विअहं।। ५४॥
अन्वयार्थ - (देवासुरमणुजराजसंबद्धो) देव, असुर और मनुष्यों के समूह से युक्त (भत्तो) भक्त (लोगो) लोक (उज्जुत्तो) उद्यत होता हुआ (णिच्चं) हमेशा (तस्स) उन सर्वज्ञदेव को (णमाइं) नमस्कार (करेदि) करता है (तं) उन्हीं सर्वज्ञ देव को (तहा) उसी प्रकार (अहं वि) मैं भी नमस्कार करता हूँ।
गाथा -53 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -55 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
अत्थि अमुत्तं मुत्तं अदिदियं इंदियं च अत्थेसु /
णाण च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं // 53 / /
अन्वयार्थ - (अत्थेसु णाणं) पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान (अमुत्तं मुत्तं) अमूर्त या मूर्त (अदिंदियं इंदियं च) अतीन्द्रिय या ऐन्द्रिय होता है। (च तधा सोक्खं) और इसी प्रकार सुख होता है। (तेसु च जं परं) उसमें जो प्रधान उत्कृष्ट है, (तं णेयं) वह जानना।
दूसरे अधिकार में ज्ञानसे अभिन्नरूप सुखका वर्णन करते हुए आचार्य महाराज पहले "कौन सुख हेय है, और कौन उपादेय है," यह विचार दिखाते हैं-[अर्थेषु ] पदाअॅमें [ अतीन्द्रियं ] इंद्रियोंकी आधीनतासे रहित [ज्ञानं ] ज्ञान है, वह [अमूर्त ] अमूर्तीक है, [च] और [ऐन्द्रियं] इंद्रियजनित ज्ञान [ मूर्त ] मूर्तीक [अस्ति ] है। [च तथा] और इसी तरह [ सौख्यं ] सुख भी हैं / अर्थात् जो इंद्रिय विना सुखका अनुभव है, वह अतींद्रिय अमूर्तीक सुख है, और जो इंद्रियके आधीन सुखका अनुभव है, सो इंद्रियजनित मूर्तीक सुख है / [च] और [तेषु ] उन ज्ञान सुखके भेदोंमें [ यत् ] जो [ परं] उत्कृष्ट है, [ तत् ] वह [ज्ञेयं ] जानने .1 इस गाथासूत्रकी भी श्रीमदमूतचन्द्राचार्यने टीका नहीं की, इससे मूलसंख्यामें नहीं रक्खा / योग्य है /
भावार्थ-ज्ञान और सुख दो प्रकारके हैं, एक अतीन्द्रिय अमूर्तीक और दूसरा इन्द्रियाधीन मूर्तीक / इनमें से अतीन्द्रिय अमूर्तीक ज्ञानसुख उपादेय है, और इंद्रियाधीन मूर्तीक ज्ञानसुख हेय है। जो ज्ञानसुख आत्मीक, अमूर्तीक, चैतन्यरूप परद्रव्योंके संयोगसे रहित केवल शुद्ध परिणतिरूप शक्तिसे उत्पन्न है, वह सब तरहसे आत्माके आधीन है, अबिनाशी है, एक ही बार अखंडित धारा प्रवाहरूप प्रवर्तता है, शत्रुरहित है, और घटता बढ़ता नहीं है। इस कारण उत्कृष्ट तथा उपादेय है, और जो आत्माके मूर्तीक क्षयोपशमरूप इंद्रियोंके आधीन चैतन्य शक्तिसे उत्पन्न है, वह पराधीन है, विनाशीक है, क्रमरूप प्रवर्तता है, शत्रुसे खंडित है, और घटता बढ़ता है, इस कारण हीन तथा हेय है
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 53
यहाँ ज्ञान की महिमा केवल ज्ञान के रूप में बताई हैं, ऐसे ज्ञान की महिमा को सारा लोक ,देव असुर,मनुष्य सब नमस्कार करते हैं। ऐसे ज्ञान को हमे भी जानकर हृदय से नमस्कार करना चाहिए,,औऱ आचार्य श्री भी यहाँ ऐसे ज्ञान को नमस्कार कर रहे है
53 पहले ज्ञान होना जरूरी है, फिर कोई सुख की आवयश्कता नहीं,,यहाँ ज्ञान और सुख एक माना गया,,अगर ज्ञान उत्तम होगा तो वैसा ही सुख होगा,,ज्ञान जिनमे नही उनमे सुखानुभूति नही होती,,सुख गुण और ज्ञान गुण दोनों जीव में ही हैं,, निर्जीव में ये गुण नही,,इसलिए ज्ञान वाला आत्मा ही सुख चाहता हैं,,ज्ञान क्षयिक होगा तो सुख भी क्षयिक होगा,
ज्ञान और सुख पदार्थो में अमूर्तिक ,मूर्तिक अतीन्द्रिय ओर इंद्रिय सभी प्रकार के होते है,, पर इनमें से जो उत्कृष्ट हैं वही जानने योग्य अर्थात उपादेय हैं,इनमे से अमूर्तिक ओर अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख ही मुक्तात्माओं का जानना चाहिए।