08-13-2022, 12:30 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -54 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -56 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिदियं च पच्छण्णं /
सयलं सगं च इदरं तं णाणं हवदि पच्चक्खं // 54 //
अन्वयार्थ - (पेच्छदो जं) देखने वाले का जो ज्ञान (अमुत्तं) अमूर्त को, (मुत्तेसु) मूर्त पदार्थों में भी (अदिंदियं) अतीन्द्रिय को (च पच्छण्णं) और प्रच्छन्न को (सकलं) इन सबको (सगं च इदरं) स्व तथा पर को देखता है। (तं णाणं) वह ज्ञान (पच्चक्खं हवइ) प्रत्यक्ष हैं।
आगे अतीन्द्रियसुखका कारण अतीन्द्रिय ज्ञान उपादेय है, यह कहते हैं-[प्रेक्षमाणस्य ] देखनेवाले पुरुषका [ यद् ज्ञानं ] जो ज्ञान [ अमूर्त ] धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव इन पाँच अमूर्तीक द्रव्योंको [च ] और [ मूर्तेषु ] मूर्तीक अर्थात् पुद्गलद्रव्योंके पर्यायोंमें [ अतीन्द्रियं] इंद्रियोंसे नहीं ग्रहण करने योग्य परमाणुओंको [ प्रच्छन्नं ] द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे गुप्त पदार्थोंको [ सकलं स्वकं] सब ही स्वज्ञेय [च] और [इतरं] परज्ञेयोंको जानता है। [ तत् ] वह ज्ञान [प्रत्यक्षं] इंद्रिय विना केवल आत्माके आधीन [ भवति ] होता है / भावार्थ-जो सबको जानता है, उसे प्रत्यक्षज्ञान कहते हैं / इस ज्ञानमें अनंत शुद्धता है / अन्य सामग्री नहीं चाहता, केवल एक अक्षनामा आत्माके प्रति निश्चिन्त हुआ प्रवर्तता है, और अपनी शक्तिसे अनंत स्वरूप है / जैसे अग्नि (आग) ईंधनके आकार है, वैसे ही यह ज्ञान ज्ञेयाकारोंको नहीं छोड़ता है, इसलिये अनन्तस्वरूप है / इस प्रकार प्रत्यक्षज्ञानकी महिमाको कोई दूर नहीं कर सकता / इसलिये अनन्तस्वरूप है। इस प्रकार प्रत्यक्षज्ञानकी महिमाको कोई दूर नहीं कर सकता। इसलिये यह प्रत्यक्षज्ञान उपादेय है और अतीन्द्रिय सुखका कारण है |
गाथा -55 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -57 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं /
ओगेण्हित्ता जोग्गं जाणदि वा तण्ण जाणादि // 55 //
अन्वयार्थ - (सयं अमुत्तो) स्वयं अमूर्त (जीवो) जीव (मुत्तिगदो) मूर्त शरीर को प्राप्त होता हुआ (तेण मुत्तिणा) उस मूर्त शरीर के द्वारा (जोग्गं मुत्तं) योग्य मूर्त पदार्थ को (ओगेण्हित्ता) अवग्रह करके (इन्द्रिय ग्रहण योग्य पदार्थ का अवग्रह करके) (तं) उसे (जाणादि) जानता है, (वा ण जाणदि) अथवा नहीं जानता (कभी जानता है और कभी नहीं जानता)
आगे जो इंद्रियसुखका कारण इंद्रियज्ञान है, उसे हेय दिखलाकर निंदा करते हैं—[जीवः] आत्मद्रव्य [स्वयं] अपने स्वभावसे [अमूर्तः ] स्पर्श, रस गंध, वर्ण, रहित अमूर्तीक है, और [ स एव ] वही अनादि बंध-परिणमनकी अपेक्षा [ मूर्तिगतः मूर्तिमान् शरीरमें स्थित (मौजूद ) है / [तेन मूर्तेन] उस मूर्तीक शरीरमें ज्ञानकी उत्पत्तिको निमित्त कारणरूप मूर्तिवंत द्रव्येन्द्रियसे [ योग्यं मूते ] इन्द्रियके ग्रहण करने योग्य स्थूलस्वरूप मूर्तीकके अर्थात् स्पर्शादिरूप वस्तुको [ अवगृह्य ] अवग्रह ईहादि भेदोंसे, क्रमसे, ग्रहण करके [ जानाति जानता है, [वा ] अथवा [तत् ] उस मूर्तीकको [ न जानाति] नहीं जानता, अर्थात् जब कर्मके क्षयोपशमकी तीव्रता होती है, तब जानता है, मंदता होती है, तब नहीं जानता। भावार्थ-यह आत्मा अनादिकालसे अज्ञानरूप अंधकारकर अंधा हो गया है यद्यपि अपनी चैतन्यकी महिमाको लिये रहत है, तो भी कर्मके संयोगसे इंद्रियके विना अपनी शक्तिसे जाननेको असमर्थ है, इसलिये आत्माके यह परोक्ष ज्ञान है। यह परोक्षज्ञान मूर्तिवन्त द्रव्येद्रियके आधीन है, मूर्तीक पदार्थीको जानता है, अतिशयकर चंचल है, अनंतज्ञानकी महिमासे गिरा हुआ है, अत्यंत विकल है, महा-मोह-मल्लकी सहायतासे पर-परिणतिमें प्रवर्तता है, पद पद (जगह जगह) पर विवादरूप, उलाहना देने योग्य है, वास्तवमें स्तुति करने योग्य नहीं है, निंद्य है, इसी लिये हेय है |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 54, 55
गाथा 054 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि
* अतींद्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है जो मूर्त और अमूर्त पदार्थों को देखता है।
* मूर्त पदार्थ वह है जिसमें स्पर्श,रस,गंध,वर्ण होते हैं। यह सब पुद्ग़ल द्रव्य हैं।
* मूर्त पदार्थ इंद्रियों का विषय बनते हैं।
गाथा 055 के माध्यम से पूज्य श्री समझाते हैं कि
* जीव स्वयं अमूर्त द्रव्य है ।
* जिसका आत्मा शरीर को प्राप्त हो जाता है वह आत्मा मूर्तिक बन जाता है। यहाँ तक की अरिहंत भगवान की आत्मा भी मूर्तिक होती है।
* अमूर्तिक आत्मा केवल सिद्ध भगवान का होता है।
* जीव मूर्त को प्राप्त होके मूर्त को ही जानता है।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -54 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -56 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिदियं च पच्छण्णं /
सयलं सगं च इदरं तं णाणं हवदि पच्चक्खं // 54 //
अन्वयार्थ - (पेच्छदो जं) देखने वाले का जो ज्ञान (अमुत्तं) अमूर्त को, (मुत्तेसु) मूर्त पदार्थों में भी (अदिंदियं) अतीन्द्रिय को (च पच्छण्णं) और प्रच्छन्न को (सकलं) इन सबको (सगं च इदरं) स्व तथा पर को देखता है। (तं णाणं) वह ज्ञान (पच्चक्खं हवइ) प्रत्यक्ष हैं।
आगे अतीन्द्रियसुखका कारण अतीन्द्रिय ज्ञान उपादेय है, यह कहते हैं-[प्रेक्षमाणस्य ] देखनेवाले पुरुषका [ यद् ज्ञानं ] जो ज्ञान [ अमूर्त ] धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव इन पाँच अमूर्तीक द्रव्योंको [च ] और [ मूर्तेषु ] मूर्तीक अर्थात् पुद्गलद्रव्योंके पर्यायोंमें [ अतीन्द्रियं] इंद्रियोंसे नहीं ग्रहण करने योग्य परमाणुओंको [ प्रच्छन्नं ] द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे गुप्त पदार्थोंको [ सकलं स्वकं] सब ही स्वज्ञेय [च] और [इतरं] परज्ञेयोंको जानता है। [ तत् ] वह ज्ञान [प्रत्यक्षं] इंद्रिय विना केवल आत्माके आधीन [ भवति ] होता है / भावार्थ-जो सबको जानता है, उसे प्रत्यक्षज्ञान कहते हैं / इस ज्ञानमें अनंत शुद्धता है / अन्य सामग्री नहीं चाहता, केवल एक अक्षनामा आत्माके प्रति निश्चिन्त हुआ प्रवर्तता है, और अपनी शक्तिसे अनंत स्वरूप है / जैसे अग्नि (आग) ईंधनके आकार है, वैसे ही यह ज्ञान ज्ञेयाकारोंको नहीं छोड़ता है, इसलिये अनन्तस्वरूप है / इस प्रकार प्रत्यक्षज्ञानकी महिमाको कोई दूर नहीं कर सकता / इसलिये अनन्तस्वरूप है। इस प्रकार प्रत्यक्षज्ञानकी महिमाको कोई दूर नहीं कर सकता। इसलिये यह प्रत्यक्षज्ञान उपादेय है और अतीन्द्रिय सुखका कारण है |
गाथा -55 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -57 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं /
ओगेण्हित्ता जोग्गं जाणदि वा तण्ण जाणादि // 55 //
अन्वयार्थ - (सयं अमुत्तो) स्वयं अमूर्त (जीवो) जीव (मुत्तिगदो) मूर्त शरीर को प्राप्त होता हुआ (तेण मुत्तिणा) उस मूर्त शरीर के द्वारा (जोग्गं मुत्तं) योग्य मूर्त पदार्थ को (ओगेण्हित्ता) अवग्रह करके (इन्द्रिय ग्रहण योग्य पदार्थ का अवग्रह करके) (तं) उसे (जाणादि) जानता है, (वा ण जाणदि) अथवा नहीं जानता (कभी जानता है और कभी नहीं जानता)
आगे जो इंद्रियसुखका कारण इंद्रियज्ञान है, उसे हेय दिखलाकर निंदा करते हैं—[जीवः] आत्मद्रव्य [स्वयं] अपने स्वभावसे [अमूर्तः ] स्पर्श, रस गंध, वर्ण, रहित अमूर्तीक है, और [ स एव ] वही अनादि बंध-परिणमनकी अपेक्षा [ मूर्तिगतः मूर्तिमान् शरीरमें स्थित (मौजूद ) है / [तेन मूर्तेन] उस मूर्तीक शरीरमें ज्ञानकी उत्पत्तिको निमित्त कारणरूप मूर्तिवंत द्रव्येन्द्रियसे [ योग्यं मूते ] इन्द्रियके ग्रहण करने योग्य स्थूलस्वरूप मूर्तीकके अर्थात् स्पर्शादिरूप वस्तुको [ अवगृह्य ] अवग्रह ईहादि भेदोंसे, क्रमसे, ग्रहण करके [ जानाति जानता है, [वा ] अथवा [तत् ] उस मूर्तीकको [ न जानाति] नहीं जानता, अर्थात् जब कर्मके क्षयोपशमकी तीव्रता होती है, तब जानता है, मंदता होती है, तब नहीं जानता। भावार्थ-यह आत्मा अनादिकालसे अज्ञानरूप अंधकारकर अंधा हो गया है यद्यपि अपनी चैतन्यकी महिमाको लिये रहत है, तो भी कर्मके संयोगसे इंद्रियके विना अपनी शक्तिसे जाननेको असमर्थ है, इसलिये आत्माके यह परोक्ष ज्ञान है। यह परोक्षज्ञान मूर्तिवन्त द्रव्येद्रियके आधीन है, मूर्तीक पदार्थीको जानता है, अतिशयकर चंचल है, अनंतज्ञानकी महिमासे गिरा हुआ है, अत्यंत विकल है, महा-मोह-मल्लकी सहायतासे पर-परिणतिमें प्रवर्तता है, पद पद (जगह जगह) पर विवादरूप, उलाहना देने योग्य है, वास्तवमें स्तुति करने योग्य नहीं है, निंद्य है, इसी लिये हेय है |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 54, 55
गाथा 054 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि
* अतींद्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है जो मूर्त और अमूर्त पदार्थों को देखता है।
* मूर्त पदार्थ वह है जिसमें स्पर्श,रस,गंध,वर्ण होते हैं। यह सब पुद्ग़ल द्रव्य हैं।
* मूर्त पदार्थ इंद्रियों का विषय बनते हैं।
गाथा 055 के माध्यम से पूज्य श्री समझाते हैं कि
* जीव स्वयं अमूर्त द्रव्य है ।
* जिसका आत्मा शरीर को प्राप्त हो जाता है वह आत्मा मूर्तिक बन जाता है। यहाँ तक की अरिहंत भगवान की आत्मा भी मूर्तिक होती है।
* अमूर्तिक आत्मा केवल सिद्ध भगवान का होता है।
* जीव मूर्त को प्राप्त होके मूर्त को ही जानता है।