प्रवचनसारः गाथा -54, 55 मूर्तिक और अमूर्तिक पदार्थ का स्वभाव
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार



गाथा -54 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -56 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिदियं च पच्छण्णं /
सयलं सगं च इदरं तं णाणं हवदि पच्चक्खं // 54 //


अन्वयार्थ - (पेच्छदो जं) देखने वाले का जो ज्ञान (अमुत्तं) अमूर्त को, (मुत्तेसु) मूर्त पदार्थों में भी (अदिंदियं) अतीन्द्रिय को (च पच्छण्णं) और प्रच्छन्न को (सकलं) इन सबको (सगं च इदरं) स्व तथा पर को देखता है। (तं णाणं) वह ज्ञान (पच्चक्खं हवइ) प्रत्यक्ष हैं।

आगे अतीन्द्रियसुखका कारण अतीन्द्रिय ज्ञान उपादेय है, यह कहते हैं-[प्रेक्षमाणस्य ] देखनेवाले पुरुषका [ यद् ज्ञानं ] जो ज्ञान [ अमूर्त ] धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव इन पाँच अमूर्तीक द्रव्योंको [च ] और [ मूर्तेषु ] मूर्तीक अर्थात् पुद्गलद्रव्योंके पर्यायोंमें [ अतीन्द्रियं] इंद्रियोंसे नहीं ग्रहण करने योग्य परमाणुओंको [ प्रच्छन्नं ] द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे गुप्त पदार्थोंको [ सकलं स्वकं] सब ही स्वज्ञेय [च] और [इतरं] परज्ञेयोंको जानता है। [ तत् ] वह ज्ञान [प्रत्यक्षं] इंद्रिय विना केवल आत्माके आधीन [ भवति ] होता है / भावार्थ-जो सबको जानता है, उसे प्रत्यक्षज्ञान कहते हैं / इस ज्ञानमें अनंत शुद्धता है / अन्य सामग्री नहीं चाहता, केवल एक अक्षनामा आत्माके प्रति निश्चिन्त हुआ प्रवर्तता है, और अपनी शक्तिसे अनंत स्वरूप है / जैसे अग्नि (आग) ईंधनके आकार है, वैसे ही यह ज्ञान ज्ञेयाकारोंको नहीं छोड़ता है, इसलिये अनन्तस्वरूप है / इस प्रकार प्रत्यक्षज्ञानकी महिमाको कोई दूर नहीं कर सकता / इसलिये अनन्तस्वरूप है। इस प्रकार प्रत्यक्षज्ञानकी महिमाको कोई दूर नहीं कर सकता। इसलिये यह प्रत्यक्षज्ञान उपादेय है और अतीन्द्रिय सुखका कारण है |


गाथा -55 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -57 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं /
ओगेण्हित्ता जोग्गं जाणदि वा तण्ण जाणादि // 55 //


अन्वयार्थ - (सयं अमुत्तो) स्वयं अमूर्त (जीवो) जीव (मुत्तिगदो) मूर्त शरीर को प्राप्त होता हुआ (तेण मुत्तिणा) उस मूर्त शरीर के द्वारा (जोग्गं मुत्तं) योग्य मूर्त पदार्थ को (ओगेण्हित्ता) अवग्रह करके (इन्द्रिय ग्रहण योग्य पदार्थ का अवग्रह करके) (तं) उसे (जाणादि) जानता है, (वा ण जाणदि) अथवा नहीं जानता (कभी जानता है और कभी नहीं जानता)

आगे जो इंद्रियसुखका कारण इंद्रियज्ञान है, उसे हेय दिखलाकर निंदा करते हैं—[जीवः] आत्मद्रव्य [स्वयं] अपने स्वभावसे [अमूर्तः ] स्पर्श, रस गंध, वर्ण, रहित अमूर्तीक है, और [ स एव ] वही अनादि बंध-परिणमनकी अपेक्षा [ मूर्तिगतः मूर्तिमान् शरीरमें स्थित (मौजूद ) है / [तेन मूर्तेन] उस मूर्तीक शरीरमें ज्ञानकी उत्पत्तिको निमित्त कारणरूप मूर्तिवंत द्रव्येन्द्रियसे [ योग्यं मूते ] इन्द्रियके ग्रहण करने योग्य स्थूलस्वरूप मूर्तीकके अर्थात् स्पर्शादिरूप वस्तुको [ अवगृह्य ] अवग्रह ईहादि भेदोंसे, क्रमसे, ग्रहण करके [ जानाति जानता है, [वा ] अथवा [तत् ] उस मूर्तीकको [ न जानाति] नहीं जानता, अर्थात् जब कर्मके क्षयोपशमकी तीव्रता होती है, तब जानता है, मंदता होती है, तब नहीं जानता। भावार्थ-यह आत्मा अनादिकालसे अज्ञानरूप अंधकारकर अंधा हो गया है यद्यपि अपनी चैतन्यकी महिमाको लिये रहत है, तो भी कर्मके संयोगसे इंद्रियके विना अपनी शक्तिसे जाननेको असमर्थ है, इसलिये आत्माके यह परोक्ष  ज्ञान है। यह परोक्षज्ञान मूर्तिवन्त द्रव्येद्रियके आधीन है, मूर्तीक पदार्थीको जानता है, अतिशयकर चंचल है, अनंतज्ञानकी महिमासे गिरा हुआ है, अत्यंत विकल है, महा-मोह-मल्लकी सहायतासे पर-परिणतिमें प्रवर्तता है, पद पद (जगह जगह) पर विवादरूप, उलाहना देने योग्य है, वास्तवमें स्तुति करने योग्य नहीं है, निंद्य है, इसी लिये हेय है |

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 54, 55

गाथा  054 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि
* अतींद्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है जो मूर्त और अमूर्त पदार्थों को देखता है।
* मूर्त पदार्थ वह है जिसमें स्पर्श,रस,गंध,वर्ण होते हैं। यह सब पुद्ग़ल द्रव्य हैं।
* मूर्त पदार्थ इंद्रियों का विषय बनते हैं।

गाथा 055 के माध्यम से पूज्य श्री समझाते हैं कि
* जीव स्वयं अमूर्त द्रव्य है ।
* जिसका आत्मा शरीर को प्राप्त हो जाता है वह आत्मा मूर्तिक बन जाता है। यहाँ तक की अरिहंत भगवान की आत्मा भी मूर्तिक होती है।
* अमूर्तिक आत्मा केवल सिद्ध भगवान का होता है।
* जीव मूर्त को प्राप्त होके मूर्त को ही जानता है।




Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha 54 
The knowledge of the ‘seeing’ soul that knows objects without form (amūrta), objects with-form (mūrta), objects beyond-the senses (atīndriya), objects hidden in terms of substance (dravya), place (ksetra), time (kāla), and being (bhāva), the self, and the others, is the direct (pratyaksa) knowledge, dependent only on the soul.

Explanatory Note: Direct (pratyaksa) knowledge knows all –objects without form like dharma, adharma, ākāśa, kāla, and jīva, objects with form like physical matter (pudgala), infinitesimal objects like the atom (paramānu), hidden objects like those belonging to the past and the future, and the self. Such knowledge is utterly pure. It is infinite and all-powerful; it evolves in the soul and does not rely on any outside help. As the fire takes the form of the fuel, direct (pratyaksa) knowledge takes the form of the objects-of-knowledge (jñeya) and, therefore, infinite. It is impossible to describe the glory of the direct (pratyaksa) knowledge; it is most desirable and source of the sense independent (atīndriya) happiness.

Gatha-55 
The soul, by own nature, is without-form (amūrtīka). From the standpoint of its bondage with karmas since beginning less time past, it is with-form (mūrtīka). The soul with-form (mūrtīka) knows, through the senses and in stages like apprehension (avagraha) and speculation (īhā), the sense-perceptible objects. It may also not know these objects.

Explanatory Note: 
Our soul, since infinite time past, is blinded by the darkness of ignorance (ajñāna). Though equipped inherently with the glory of knowledge-consciousness, due to the bondage of karmas, it relies on the senses to know. Sensory knowledge is indirect (paroksa) knowledge for the soul. Indirect knowledge depends on the physical senses, knows only the physical objects, and is extremely unsteady, degrading [in comparison to the direct (pratyaksa), infinite-knowledge (kevalajñāna)], edgy, accompanied by the dirt of delusion, dubious, and reproachable. It, indeed, is not adorable and, hence, deplorable and worth rejecting.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -53,54

इन्द्रियजन्य बोध सुख मूर्तिक हो इससे और तरह भी ।
हेय यही आदेय दूसरा यों कहते आचार्य सभी
सूक्ष्मान्तरित दूर चीजों को सबको सदा जानता है।
यह ही है प्रत्यक्ष वहाँ आत्माधीन प्रमाणता है २७ ॥


गाथा -55,56

है अमूर्त यह किन्तु मूर्तिगत है अनादि से इसीलिये ।।
जाया करता मूर्त चीजको यथायोग्य व्यवधान किये।

स्पर्श और रसगन्धवर्ण या शब्दरुप पुद्गल क्रमसे ।
जाती जाया करती किन्तु न एक साथ इन्द्रिय श्रमसे २८



गाथा -51,52,53,54

सारांश:- इन्द्रियजन्य और इन्द्रियातीत के भेदसे ज्ञान जैसे दो प्रकारका होता है वैसे ही सुख भी दो प्रकारका होता है क्योंकि सुखका ज्ञानके साथमें अविनाभाव सम्बन्ध है। जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ सुख होता है और जहाँ ज्ञान नहीं होता है वहाँ सुख भी नहीं होता है।



गाथा -55,56
सारांश: – यह चेतना लक्षण वाला आत्मा यदि अपने स्वभाव में आजावे तब तो बिलकुल अमूर्त है। आकाश के समान किसी से भी बाँधा हुआ बँध नहीं सकता। जल में गल नहीं सकता। अग्नि से जल नहीं सकता और हवा से सुख नहीं सकता है किन्तु यह तो अनादिकाल से मूर्त्तिमान् पुद्गलके साथ में घुलमिल रहा है। अपने आपमें न होकर मूर्त्तपन धारण किये हुए है अत: इस मूर्त शरीरगत स्पर्शनादि इन्द्रियों द्वारा मूर्त पदार्थ को ही अवग्रहादिक के रूपमें कुछ कुछ जानता रहता है। ऐसा जानना, इस विश्वप्रकाशक आत्मा प्रभु के लिए न जानने के समान ही है। स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा स्पर्श का, जीभ के द्वारा रसका, नाक से गंध का, आँख से रूपका और कान से शब्दरूप पुद्गल का स्थूल ज्ञान होता है। यह भी एक साथ न होकर क्रमपूर्वक होता है। जिस समय रूप को देखता है, उस समय रसको  नहीं चख सकता है। जिस समय रस को चखता है, उस समय गंध को नहीं सूंघ सकता है अर्थात् एक समय में एक ही इन्द्रियके विषय का ज्ञान कर सकता है।


शङ्काः—जब हम आम चूसते हैं तब जीभसे उसके रसको, नाकसे उसको गंधको, हाथसे उसके स्पर्शको और आँख से उसके रूपको एकसाथ हो तो जानते हैं?
उत्तर:- स्थूल दृष्टि से तुम कह रहे हो वैसा ही है परन्तु यदि गंभीरता के साथ विचार कर देखें तो वहाँ समय का भेद बना हुआ रहता है। जैसे किसी मनुष्य ने सैकड़ों पानों के समूहमें बड़े वेग के साथ सूई चुभी दी, जिससे उन सब पानों में छेद हो गया। तब हम लोग कहते हैं कि इसने एक ही साथ इन सब पानों में छेद कर दिया है। वास्तवमें  देखा जाये तो छेद, उन पत्तों में एकसाथ न होकर क्रमपूर्वक ही हुआ है। इसी प्रकार इन्द्रिय ज्ञान को प्रवृत्ति भी भिन्न भिन्न इन्द्रियों के विषयों में क्रम पूर्वक ही होती है। इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष ज्ञान होता है.
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