प्रवचनसारः गाथा -14, 15
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित प्रवचनसार

गाथा -14


सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो।
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति॥१४॥


आगे शुद्धोपयोग सहित जीवका स्वरूप कहते हैं--
[एतादृशः श्रमणः शुद्धोपयोगः इति भणितः] ऐसा परम मुनि शुद्धोपयोग भावस्वरूप परिणमता है। इस प्रकार वीतरागदेवने कहा है। कैसा है, वह श्रमण अर्थात् मुनि / [सुविदितपदार्थसूत्रः] अच्छी रीतिसे जान लिये हैं, जीवादि नव पदार्थ तथा इन पदार्थोका कहनेवाला सिद्धांत जिसने, अर्थात् जिसने अपना और परका भेद भले प्रकार जान लिया है, श्रद्धान किया है, तथा निजस्वरूपमें ही आचरण किया है, ऐसा मुनीश्वर ही शुद्धोपयोगवाला है। फिर कैसा है ? [संयमतपःसंयुतः] पाँच इन्द्रिय तथा मनकी अभिलाषा और छह कायके जीवोंकी हिंसा इनसे आत्माको रोककर अपने स्वरूपका आचरण रूप जो संयम, और बाह्य तथा अंतरंग बारह प्रकार के तपके बलकर स्वरूपकी स्थिरताके प्रकाशसे ज्ञानका तपन (दैदीप्यमान होना) स्वरूप तप, इन दोनों कर सहित है / फिर कैसा है ? [विगतरागः] दूर हुआ हैं, परद्रव्यसे रमण करना रूप परिणाम जिसका / फिर कैसा है ? [समसुखदुःखः] समान हैं, सुख और दुःख जिसके अर्थात् उत्कृष्टज्ञान की कलाकी सहायताकर इष्ट वा अनिष्टरूप इन्द्रियोंके विषयोंमें हर्ष तथा खेद नहीं करता है, ऐसा जो श्रमण है, वही शुद्धोपयोगी कहा जाता है |

गाथा -15
उवओगविसुद्धो जो विगदावरणंतरायमोहरओ।
भूदो सयमेवादा जादि परं णेयभूदाणं // 15 //


आगे शुद्धोपयोगके लाभके बाद ही शुद्ध आत्मस्व भाक्की प्राप्ति होती हैं, ऐसा कहते हैं-
[यः उपयोगशुद्धः आत्मा ज्ञेयभूतानां पारं याति] जो आत्मा शुद्धोपयोगसे निर्मल हो गया है, वही आत्मा सब पदार्थोके अंतको पाता है, अर्थात् जो शुद्धोपयोगी जीव है, वही तीनकालवर्ती समस्त पदार्थोके जाननेवाले केवलज्ञानको प्राप्त होता है, कैसा होता हुआ कि [विगतावरणान्तरायमोहरजाः स्वयमेव भूतः सन् ] दूर हुई ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, तथा मोहनीयकर्मरूप धूलि (मल) जिससे ऐसा आप ही होता हुआ / भावार्थजो शुद्धोपयोगी जीव है, वह गुणस्थान गुणस्थान प्रति शुद्ध होता हुआ बारहवें गुणस्थान के अन्तमें संपूर्ण चार घातिया कर्मोंका नाशकर केवलज्ञानको पाता है, और आत्माका स्वभाव ज्ञान है, ज्ञान ज्ञेयके प्रमाण है, ज्ञेय तीनों कालोंमें रहेनेवाले सब पदार्थ हैं, इसलिये शुद्धोपयोग के प्रसादसे ही यह आत्मा सब ज्ञेयोंको जाननेवाले केवलज्ञानको प्राप्त होता है |

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी

Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha-14
Lord Jina has expounded that the ascetic (muni, śramana) who has right knowledge of the soul and other substances, is well versed in the Scripture, observes self-restraint (sanyama) and austerity (tapa), is free from attachment (rāga), and for whom happiness (sukha) and misery (duÍkha) are alike, represents pure-cognition (śuddhopayoga).

Explanatory Note: 
That ascetic (muni, śramana) represents pure-cognition (śuddhopayoga) who has right faith and knowledge about the nature of the Self and, shunning everything other than
the Self, establishes himself in the Self. He achieves this state through the power of self-restraint (sanyama) and austerity (tapa). Devoid of all attachment (rāga), he has no concern for anything other than the Self. He does not entertain dispositions of either like or dislike for the objects of the senses.

Gatha-15
The soul that has become pristine through pure-cognition (śuddhopayoga), and has washed away, by own effort, the dirt of the obscuring – knowledge-obscuring (jñānavaranīya) and faith obscuring (darśanāvaranīya) – along with the obstructive (antarāya) and the deluding (mohanīya) karmas, comprehends fully all objects-of-knowledge (jñeya).

Explanatory Note: 
Only the soul established in pure-cognition (śuddhopayoga) attains, on destruction of four inimical karmas, omniscience (kevalajñāna) that knows fully all objects of the three times (past, present, and future). The nature of the soul is knowledge, and knowledge is coextensive with the objects-of knowledge (jñeya); knowledge pervades the objects-of-knowledge.
Since the objects-of-knowledge are all objects of the three worlds and the three times, it follows that omniscience, the fruit of pure cognition (śuddhopayoga), knows all objects of the three worlds and the three times.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -13,14
शुद्धोपयोगसे हो चेतन नित्य सुखी कहलाता है ।
अनुपम विषयातीतः आत्मगत वह अनन्तसुख पाता है ।
तत्वार्थ श्रद्धानी होकर संयमतपयुक्त जो योगी
समसुखदुःखतया विराग हो वह शुद्धोपयोग भोगी ॥ ७ ॥


गाथा -15,16
निज विशुद्ध उपयोगद्वारा घातिकर्म जो हनता है
ज्ञेयभूत सम्पूर्ण वस्तुके पारङ्गत वह बनता है
यो लब्धस्वभाव होनेसे स्वयम्भू च सर्वज्ञ भया
सर्वलोकपतियोंसे पूजित होता है परमात्मतया ॥ ८ ॥


गाथा -13,14
सारांशः—यहाँ आचार्यश्रीने शुद्धोपयोगवालेको ही वास्तविक सुख होता हैं ऐसा कहते हुए यह बतलाया है कि शुद्धोपयोग उसी पुरुषके होता है जो सर्वप्रथम यथार्थ तत्त्वोंका श्रद्धान करके अपने उपयोगको अशुभसे हटाकर शुभरूप बना लेता है। बाह्य संपूर्ण पदार्थोंका त्याग करते हुए संयम धारण करके साधु दशाको स्वीकार कर लेता है। फिर अपने अंतरंगमें भी स्फुरायमान होने वाले रागद्वेष भाव पर भी विजय प्राप्त करता हुआ पूर्ण विरागता पर आजाता है। उसकी दृष्टिमें न तो कोई शत्रु हो होता है और न कोई मित्र ही होता है। वह सुख और दुःख को बिल्कुल समान समझता है। आत्मामें उत्पन्न होने वाले काम, क्रोध, मद, मात्सर्य और ईर्षा आदि विकारी भावोंका मूलोच्छेद करके जबतक अपने आपको शुद्ध न बना लिया जावे तबतक वास्तविक पूर्ण शान्ति नहीं मिल सकती है। और इन सब विकारोंका मूलोच्छेद इस दुनियाँदारीकी झंझटवाले कौटुम्बिक जीवनमें फँसे रह कर कभी नहीं हो सकता किन्तु इससे मुक्त होकर निर्द्वन्द दशा अपनानेसे ही हो सकता है।

गाथा -15,16
सारांश:-जब यह जीव अशुभसे शुभोपयोग पर आता है तब गुरुमुखसे तत्वोंका स्वरूप सुनकर ठीक ठीक श्रद्धान करता है। फिर शम और दम के  द्वारा विशुद्धसे विशुद्धतरके रूपमें परिणत होनेवाले अपने परिणामोंको प्राप्त करता है और अपने अन्तरङ्गको क्षुब्धताको भी जीतकर चित्तको स्थिरतासे पूर्ण वीतराग होता हुआ अपने ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायको भी दूर हटाकर साक्षात् सर्वज्ञ हो जाता है। एवं संसारी जीवोंके लिये परमाराध्य बन जाता है। जिसे परमात्मा, भगवान्, स्वयम्भू परमेष्ठी और अरहन्तादि नामोंसे पुकारते हुए स्मरण किया जाता है। इस प्रकार वह संसारमुक्त हो जानेके बादमें, फिर संसारी कभी भी नहीं होता है |
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