08-24-2022, 10:21 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -56 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -58 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
फासो रसो य गंधो वण्णो सहो य पुग्गला होति /
अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गेण्हति // 56 //
आगे इंद्रियज्ञान यद्यपि अपने जानने योग्य मूर्तीक पदाऑको जानता है, तो भी एक ही बार नहीं जानता, इसलिये हेय है, ऐसा कहते हैं- [अक्षाणां] पाँचो इन्द्रियोंके [ स्पर्शः ] स्पर्श [ रसः] रस [च गन्धः] और गंध [ वर्णः ] रूप [च] तथा [ शब्दः ] शब्द ये पाँच विषय [ पुद्गलाः ] पुद्गलमयी [ भवन्ति ] हैं। अर्थात् पाँच इंद्रियाँ उक्त स्पर्शादि पाँचों विषयोंको जानती हैं, परंतु [ तानि अक्षाणि ] वे इंद्रियाँ [ तान्] उन पाँचों विषयोंको [युगपत् ] एक ही बार [ नैव] नहीं [गृह्णन्ति] ग्रहण करतीं |
भावार्थ
ये स्पर्शनादि पाँचों इन्द्रियाँ अपने अपने स्पर्शादि विषयोंको ग्रहण करती हैं, परंतु एक ही समय ग्रहण नहीं कर सकतीं / अर्थात् जिस समय जिह्वा इंद्रिय रसका अनुभव करती है, उस समय अन्य श्रोत्रादि इंद्रियोंका कार्य नहीं होता / सारांश-एक इंद्रियका जब कार्य होता है, तब दूसरीका बन्द रहता है, क्योंकि अंतरंगमें जो क्षायोपशमिकज्ञान है, उसकी शक्ति क्रमसे प्रवर्तती है / जैसे काकके दोनों नेत्रोंकी पूतली एक ही होती है, परंतु वह पूतली ऐसी चंचल है, कि लोगोंको यह मालूम पड़ता है, जो दोनों नेत्रों में जुदी जुदी पूतली हैं। यथार्थमें वह एक ही है, जिस समय वह जिस नेत्रसे देखता है, उस समय उसी नेत्र में आ जाती है, परंतु एक बार दोनों नेत्रोंसे नहीं देख सकता / यही दशा क्षायोपशमिकज्ञानकी है। यह ज्ञान स्पर्शादि पाँचों विषयोंको एक ही बार जाननेमें असमर्थ है / जिस समय जिस इंद्रियरूप द्वारमें जाननेरूप प्रवृत्ति करता है, उस समय उसी द्वारमें रहता है, अन्य द्रव्येन्द्रिय द्वारमें नहीं / इस कारण एक ही काल सब इन्द्रियोंसे ज्ञान नहीं होता / इसी लिये इन्द्रियज्ञान परोक्ष है, पराधीन है, और हेय है॥
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 56
अन्वयार्थ -
(फासो) स्पर्श (रसो य) रस (गंधो) गंध (वण्णो) वर्ण (सद्दो य) और शब्द (पोग्गला) पुद्गल है, वे (अक्खाणं होंति) इन्द्रियों के विषय हैं, (ते अक्खा) (परन्तु) वे इन्द्रियाँ (ते) उसे (भी) (जुगवं) एक साथ (णेव गेण्हेदि) ग्रहण नहीं करती (नहीं जान सकतीं)।
1. यदि हमारे भीतर संपूर्ण ज्ञान नहीं हैं तो हमें संपूर्ण सुख नहीं मिलता हैं।
2. हमें संपूर्ण सुख कैसे प्राप्त होगा और कब होगा? यह भी इस गाथा में बताया गया हैं।
3. अतीन्द्रिय सुख उपादेय हैं, एवं इन्द्रिय सुख हेय हैं।
4. सुख हमें न कल मिला था, न आज मिल रहा हैं और न कल मिलेगा, क्योंकि आत्मा के अंदर अनंत ज्ञान की शक्तियां पड़ी हैं, उसे हमने केवल मन की आदत में जोड़ दिया हैं।
5. यदि हमारे भीतर इच्छाएँ अधिक हो और हम उसे प्राप्त नहीं कर पाएं तो उससे हमारे अंदर जो खेद खिन्नता आती हैं उसी का नाम दुःख हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -56 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -58 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
फासो रसो य गंधो वण्णो सहो य पुग्गला होति /
अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गेण्हति // 56 //
आगे इंद्रियज्ञान यद्यपि अपने जानने योग्य मूर्तीक पदाऑको जानता है, तो भी एक ही बार नहीं जानता, इसलिये हेय है, ऐसा कहते हैं- [अक्षाणां] पाँचो इन्द्रियोंके [ स्पर्शः ] स्पर्श [ रसः] रस [च गन्धः] और गंध [ वर्णः ] रूप [च] तथा [ शब्दः ] शब्द ये पाँच विषय [ पुद्गलाः ] पुद्गलमयी [ भवन्ति ] हैं। अर्थात् पाँच इंद्रियाँ उक्त स्पर्शादि पाँचों विषयोंको जानती हैं, परंतु [ तानि अक्षाणि ] वे इंद्रियाँ [ तान्] उन पाँचों विषयोंको [युगपत् ] एक ही बार [ नैव] नहीं [गृह्णन्ति] ग्रहण करतीं |
भावार्थ
ये स्पर्शनादि पाँचों इन्द्रियाँ अपने अपने स्पर्शादि विषयोंको ग्रहण करती हैं, परंतु एक ही समय ग्रहण नहीं कर सकतीं / अर्थात् जिस समय जिह्वा इंद्रिय रसका अनुभव करती है, उस समय अन्य श्रोत्रादि इंद्रियोंका कार्य नहीं होता / सारांश-एक इंद्रियका जब कार्य होता है, तब दूसरीका बन्द रहता है, क्योंकि अंतरंगमें जो क्षायोपशमिकज्ञान है, उसकी शक्ति क्रमसे प्रवर्तती है / जैसे काकके दोनों नेत्रोंकी पूतली एक ही होती है, परंतु वह पूतली ऐसी चंचल है, कि लोगोंको यह मालूम पड़ता है, जो दोनों नेत्रों में जुदी जुदी पूतली हैं। यथार्थमें वह एक ही है, जिस समय वह जिस नेत्रसे देखता है, उस समय उसी नेत्र में आ जाती है, परंतु एक बार दोनों नेत्रोंसे नहीं देख सकता / यही दशा क्षायोपशमिकज्ञानकी है। यह ज्ञान स्पर्शादि पाँचों विषयोंको एक ही बार जाननेमें असमर्थ है / जिस समय जिस इंद्रियरूप द्वारमें जाननेरूप प्रवृत्ति करता है, उस समय उसी द्वारमें रहता है, अन्य द्रव्येन्द्रिय द्वारमें नहीं / इस कारण एक ही काल सब इन्द्रियोंसे ज्ञान नहीं होता / इसी लिये इन्द्रियज्ञान परोक्ष है, पराधीन है, और हेय है॥
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 56
अन्वयार्थ -
(फासो) स्पर्श (रसो य) रस (गंधो) गंध (वण्णो) वर्ण (सद्दो य) और शब्द (पोग्गला) पुद्गल है, वे (अक्खाणं होंति) इन्द्रियों के विषय हैं, (ते अक्खा) (परन्तु) वे इन्द्रियाँ (ते) उसे (भी) (जुगवं) एक साथ (णेव गेण्हेदि) ग्रहण नहीं करती (नहीं जान सकतीं)।
1. यदि हमारे भीतर संपूर्ण ज्ञान नहीं हैं तो हमें संपूर्ण सुख नहीं मिलता हैं।
2. हमें संपूर्ण सुख कैसे प्राप्त होगा और कब होगा? यह भी इस गाथा में बताया गया हैं।
3. अतीन्द्रिय सुख उपादेय हैं, एवं इन्द्रिय सुख हेय हैं।
4. सुख हमें न कल मिला था, न आज मिल रहा हैं और न कल मिलेगा, क्योंकि आत्मा के अंदर अनंत ज्ञान की शक्तियां पड़ी हैं, उसे हमने केवल मन की आदत में जोड़ दिया हैं।
5. यदि हमारे भीतर इच्छाएँ अधिक हो और हम उसे प्राप्त नहीं कर पाएं तो उससे हमारे अंदर जो खेद खिन्नता आती हैं उसी का नाम दुःख हैं।