09-23-2022, 03:47 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -81 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -87 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जीवो ववगमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्म /
जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं // 81 //
आगे कहते हैं, कि यद्यपि मैंने स्वरूप-चिंतामणि पाया है, तो भी प्रमादरूप चोर अभी मौजूद है, इसलिये सावधान होकर मैं जागता हूँ-[व्यपगतमोहः ] जिससे मोह दूर हो गया है, ऐसा [ जीवः ] आत्मा [आत्मनः] आत्माका [सम्यक् तत्त्वं] यथार्थ स्वरूप [उपलब्धवान् ] प्राप्त करता हुआ [यदि] जो [रागद्वेषौ] राग द्वेषरूप प्रमाद भाव [जहाति ] त्याग देवे, [तदा] तो [सः] वह जीव शिद्धं आत्मानं] निर्मल निज स्वरूपको [लभते ] प्राप्त होवे /
भावार्थ-जो कोई भव्यजीव पूर्व कहे हुए उपायसे मोहका नाश करे, आत्म-तत्त्वरूप चिंतामणि-रत्नको पावे, और पानेके पश्चात् राग द्वेष रूप प्रमादके वश न होवे, तो शुद्धात्माका अनुभव कर सके, और यदि राग द्वेषके वशीभूत होवे, तो प्रमादरूप चोरसे शुद्धात्म अनुभवरूप चिंतामणि-रत्नको लुटाके पीथे अंतःकरणमें (चित्तमें ) अत्यंत दुःख पावे / इसलिये राग द्वेषके विनाशके निमित्त मुझको सावधान होके जागृत ही रहना चाहिये //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 81
अन्वयार्थ- (ववगदमोहो) जिसने माह को दूर किया है, और (सम्मं अप्पणो तच्चं) आत्मा के सम्यक् तत्त्व को (उवलद्धो) प्राप्त किया है, ऐसा (जीवो) जीव (जदि) यदि (रागदोसे) राग द्वेष को (जहदि) छोड़ती है, (सो ) तो वह (सुद्धं अप्पाणं ) शुद्ध आत्मा को (लहदि) प्राप्त करता है।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -81 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -87 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जीवो ववगमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्म /
जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं // 81 //
आगे कहते हैं, कि यद्यपि मैंने स्वरूप-चिंतामणि पाया है, तो भी प्रमादरूप चोर अभी मौजूद है, इसलिये सावधान होकर मैं जागता हूँ-[व्यपगतमोहः ] जिससे मोह दूर हो गया है, ऐसा [ जीवः ] आत्मा [आत्मनः] आत्माका [सम्यक् तत्त्वं] यथार्थ स्वरूप [उपलब्धवान् ] प्राप्त करता हुआ [यदि] जो [रागद्वेषौ] राग द्वेषरूप प्रमाद भाव [जहाति ] त्याग देवे, [तदा] तो [सः] वह जीव शिद्धं आत्मानं] निर्मल निज स्वरूपको [लभते ] प्राप्त होवे /
भावार्थ-जो कोई भव्यजीव पूर्व कहे हुए उपायसे मोहका नाश करे, आत्म-तत्त्वरूप चिंतामणि-रत्नको पावे, और पानेके पश्चात् राग द्वेष रूप प्रमादके वश न होवे, तो शुद्धात्माका अनुभव कर सके, और यदि राग द्वेषके वशीभूत होवे, तो प्रमादरूप चोरसे शुद्धात्म अनुभवरूप चिंतामणि-रत्नको लुटाके पीथे अंतःकरणमें (चित्तमें ) अत्यंत दुःख पावे / इसलिये राग द्वेषके विनाशके निमित्त मुझको सावधान होके जागृत ही रहना चाहिये //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 81
अन्वयार्थ- (ववगदमोहो) जिसने माह को दूर किया है, और (सम्मं अप्पणो तच्चं) आत्मा के सम्यक् तत्त्व को (उवलद्धो) प्राप्त किया है, ऐसा (जीवो) जीव (जदि) यदि (रागदोसे) राग द्वेष को (जहदि) छोड़ती है, (सो ) तो वह (सुद्धं अप्पाणं ) शुद्ध आत्मा को (लहदि) प्राप्त करता है।