12-17-2022, 06:51 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -21 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -123 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
मणुवो ण हवदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा।
एवं अहोजमाणो अणण्णभावं कधं लहदि ॥ २१॥
आगे असत्उत्पादको अन्यरूपसे दिखाते हैं-[मनुजः] जो मनुष्य है, वह [देवः] देव [वा] अथवा [देवः] देव है, वह [मानुषः] मनुष्य [वा] अथवा [सिद्धः] सिद्ध अर्थात् मोक्ष-पर्यायरूप [न भवति] नहीं हो सकता, [एवं अभवन् ] इस प्रकार नहीं होता हुआ [अनन्यभावं] अभिन्नपनेको [कथं] किस तरह [लभते] प्राप्त हो सकता है ? । भावार्थ-जो देव मनुष्यादि पर्याय हैं, वे सब एक कालमें नहीं होते, किंतु जुदा जुदा समयमें होते हैं। जिस समय देव-पर्याय है उस समय मनुष्यादि पर्याय नहीं है, एक ही पर्याय हो सकती है। इस कारण जो एक पर्याय होती है, वह अन्यरूप नहीं हो सकती । सब जुदा जुदा ही पर्याय होते हैं। इसलिये पर्यायका कर्ता, करण, द्रव्य, आधार है, सो द्रव्य पर्यायसे जुदा नहीं है, पर्यायके पलटनेसे द्रव्य भी व्यवहारसे अन्य कहा जाता है । जैसे-मनुष्य-पर्यायरूप जीव देव-पर्यायरूप वा सिद्ध-पर्यायरूप नहीं होता, और देव-पर्यायरूप जीव मनुष्य-पर्यायरूप वा सिद्ध-पर्याय रूप नहीं होता, इस तरह पर्यायके भेदसे द्रव्य भी अन्य कहा जाता है । इस कारण पर्यायार्थिकनयसे द्रव्य अन्यरूप अवश्य करना चाहिये । जैसे सोना कंकण कुंडलादि पर्यायोंके भेदसे 'कंकणका सोना,' 'कुंडलका सोना' इस रीतिसे अन्य अन्यरूप कहा जाता है, उसी प्रकार मनुष्यजीव, देवजीव, सिद्धजीव इस तरह अन्य अन्य रूप कहनेमें आता है। इस कारण असत्उत्पादमें द्रव्यको अन्यरूप कहना चाहिये, यह सिद्ध हुआ
गाथा -22 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -124 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
दव्वट्टिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयहिएण पुणो।
हवदि य अण्णमणण्णं तकाले तम्मयत्तादो ॥ २२ ॥
आगे एक द्रव्यके अन्यत्व, अनन्यत्व ये दो भेद हैं, वे परस्पर विरोधी एक जगह किस तरह रह सकते है ? इसका समाधान आचार्य महाराज करते हैं-[द्रव्यार्थिन] द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षासे [तत् सर्व] वह समस्त वस्तु [अनन्यत् ] अन्य नहीं है, वही है, अर्थात् नर नारकादि पर्यायोंमें वही एक द्रव्य रहता है [पुनः] और [पर्यायार्थिन] पर्यायार्थिकनयकी विवक्षासे [अन्यत् ] अन्यरूप द्रव्य होता है, अर्थात् नर नारक आदि पर्यायोंसे जुदा जुदा कहा जाता है। क्योंकि [तत्कालं] नर नारकादि पर्यायोंके होनेके समय वह द्रव्य [तन्मयत्वात् ] उस पर्यायस्वरूप ही हो जाता है। भावार्थ-वस्तु सामान्य, विशेषरूप दो प्रकारसे है। इन दोनोंके देखनेवाले हैं, उनके दो नेत्र कहे हैं-एक तो द्रव्यार्थिक, दूसरा पर्यायार्थिक । इन दोनों नेत्रोंमेंसे जो पर्यायार्थिक नेत्रको सर्वथा बंद करके एक द्रव्यार्थिक नेत्रसे ही देखे, तब नारक, तिर्थंच, मनुष्य, देव, सिद्ध पर्यायोंमें स्थित जो सामान्य एक जीव उसके देखनेवाले पुरुषको सब जगह जीव ही प्रतिभासता ( दीखता ) है, भेद नहीं मालूम होता । और जब द्रव्यार्थिक नेत्रको सर्वथा बंद कर एक पर्यायार्थिक नेत्रसे ही देखा जावे, तब जीवद्रव्य में नर नारकादि पर्यायोंके देखनेवाले पुरुषोंको नर नारकादि पर्याय जुदा जुदा मालूम होते हैं । जिस कालमें जो पर्याय होता है, उस पर्यायमें जीव उसी स्वरूप परिणमता है। जैसे कि आग, गोबरके छाने - कंडे, तृण, पत्ता, काठ आदि ईंधन आकार हो जाती है, उसी प्रकार जीव भी अनेक पर्यायोंको धारण करता हुआ अनेक आकाररूप होजाता है । तथा जब द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोनों ही नेत्रोंसे इधर उधर सब जगह देखा जाय, तो एक ही समय नर नारकादि पर्यायोंमें वही एक द्रव्य देखनेमें आता है, और अन्य अन्य रूप भी दीखता है । इस कारण एक नयरूप नेत्रसे देखना एक अंगका देखना है, तथा दो नयरूप नेत्रोंसे देखना सब अंगोंका देखना कहा जाता है । इसलिये सर्वांग द्रव्यके देखनेमें अन्यरूप और अनन्यरूप -- इस तरह दो स्वरूप कहनेका निषेध नहीं हो सकता
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
गाथा -21
हो देव मानव न या नर देव ना हो , किं वा मनुष्य शिव भी स्वयमेव ना हो ।
ऐसी दशा जब रही व्यवहार गाता , कैसे अनन्यपन को वह धार पाता ।l
अन्वयार्थ - ( मणुसो ) मनुष्य ( देवो ण हवदि ) देव नहीं है , ( वा ) अथवा ( देवो ) देव ( मणुसो । | व सिद्धो वा ) मनुष्य या सिद्ध नहीं है ; ( एवं अहोजमाणो ) सो ऐसा न होता हुआ वह ( अणण्णभावं कधं लहदि ) अनन्यभाव को कैसे प्राप्त हो सकता है ? |
गाथा -22
द्रव्यार्थि के वश सभी बस द्रव्य भाता , पर्याय अर्थिवश पर्यय रूप पाता ।
ऐसा कथंचित् अनन्य व अन्य होता , तत्काल क्योंकि वह तन्मय द्रव्य होता ।
अन्वयार्थ - ( दव्वट्ठियेण ) द्रव्याथिक नय से ( तं सव्वं ) वह सब ( दबं ) द्रव्य ( अणण्ण ) अनन्य है ; ( पुणो य ) और ( पज्जयट्ठिएण ) पर्यायार्थिक नय से ( तं ) वह ( सब द्रव्य ) ( अण्णं ) अन्य - अन्य है , ( तक्काले तम्मयत्तादो ) क्योंकि उस समय द्रव्य की पर्याय से तन्मयता है।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -21 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -123 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
मणुवो ण हवदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा।
एवं अहोजमाणो अणण्णभावं कधं लहदि ॥ २१॥
आगे असत्उत्पादको अन्यरूपसे दिखाते हैं-[मनुजः] जो मनुष्य है, वह [देवः] देव [वा] अथवा [देवः] देव है, वह [मानुषः] मनुष्य [वा] अथवा [सिद्धः] सिद्ध अर्थात् मोक्ष-पर्यायरूप [न भवति] नहीं हो सकता, [एवं अभवन् ] इस प्रकार नहीं होता हुआ [अनन्यभावं] अभिन्नपनेको [कथं] किस तरह [लभते] प्राप्त हो सकता है ? । भावार्थ-जो देव मनुष्यादि पर्याय हैं, वे सब एक कालमें नहीं होते, किंतु जुदा जुदा समयमें होते हैं। जिस समय देव-पर्याय है उस समय मनुष्यादि पर्याय नहीं है, एक ही पर्याय हो सकती है। इस कारण जो एक पर्याय होती है, वह अन्यरूप नहीं हो सकती । सब जुदा जुदा ही पर्याय होते हैं। इसलिये पर्यायका कर्ता, करण, द्रव्य, आधार है, सो द्रव्य पर्यायसे जुदा नहीं है, पर्यायके पलटनेसे द्रव्य भी व्यवहारसे अन्य कहा जाता है । जैसे-मनुष्य-पर्यायरूप जीव देव-पर्यायरूप वा सिद्ध-पर्यायरूप नहीं होता, और देव-पर्यायरूप जीव मनुष्य-पर्यायरूप वा सिद्ध-पर्याय रूप नहीं होता, इस तरह पर्यायके भेदसे द्रव्य भी अन्य कहा जाता है । इस कारण पर्यायार्थिकनयसे द्रव्य अन्यरूप अवश्य करना चाहिये । जैसे सोना कंकण कुंडलादि पर्यायोंके भेदसे 'कंकणका सोना,' 'कुंडलका सोना' इस रीतिसे अन्य अन्यरूप कहा जाता है, उसी प्रकार मनुष्यजीव, देवजीव, सिद्धजीव इस तरह अन्य अन्य रूप कहनेमें आता है। इस कारण असत्उत्पादमें द्रव्यको अन्यरूप कहना चाहिये, यह सिद्ध हुआ
गाथा -22 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -124 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
दव्वट्टिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयहिएण पुणो।
हवदि य अण्णमणण्णं तकाले तम्मयत्तादो ॥ २२ ॥
आगे एक द्रव्यके अन्यत्व, अनन्यत्व ये दो भेद हैं, वे परस्पर विरोधी एक जगह किस तरह रह सकते है ? इसका समाधान आचार्य महाराज करते हैं-[द्रव्यार्थिन] द्रव्यार्थिकनयकी विवक्षासे [तत् सर्व] वह समस्त वस्तु [अनन्यत् ] अन्य नहीं है, वही है, अर्थात् नर नारकादि पर्यायोंमें वही एक द्रव्य रहता है [पुनः] और [पर्यायार्थिन] पर्यायार्थिकनयकी विवक्षासे [अन्यत् ] अन्यरूप द्रव्य होता है, अर्थात् नर नारक आदि पर्यायोंसे जुदा जुदा कहा जाता है। क्योंकि [तत्कालं] नर नारकादि पर्यायोंके होनेके समय वह द्रव्य [तन्मयत्वात् ] उस पर्यायस्वरूप ही हो जाता है। भावार्थ-वस्तु सामान्य, विशेषरूप दो प्रकारसे है। इन दोनोंके देखनेवाले हैं, उनके दो नेत्र कहे हैं-एक तो द्रव्यार्थिक, दूसरा पर्यायार्थिक । इन दोनों नेत्रोंमेंसे जो पर्यायार्थिक नेत्रको सर्वथा बंद करके एक द्रव्यार्थिक नेत्रसे ही देखे, तब नारक, तिर्थंच, मनुष्य, देव, सिद्ध पर्यायोंमें स्थित जो सामान्य एक जीव उसके देखनेवाले पुरुषको सब जगह जीव ही प्रतिभासता ( दीखता ) है, भेद नहीं मालूम होता । और जब द्रव्यार्थिक नेत्रको सर्वथा बंद कर एक पर्यायार्थिक नेत्रसे ही देखा जावे, तब जीवद्रव्य में नर नारकादि पर्यायोंके देखनेवाले पुरुषोंको नर नारकादि पर्याय जुदा जुदा मालूम होते हैं । जिस कालमें जो पर्याय होता है, उस पर्यायमें जीव उसी स्वरूप परिणमता है। जैसे कि आग, गोबरके छाने - कंडे, तृण, पत्ता, काठ आदि ईंधन आकार हो जाती है, उसी प्रकार जीव भी अनेक पर्यायोंको धारण करता हुआ अनेक आकाररूप होजाता है । तथा जब द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोनों ही नेत्रोंसे इधर उधर सब जगह देखा जाय, तो एक ही समय नर नारकादि पर्यायोंमें वही एक द्रव्य देखनेमें आता है, और अन्य अन्य रूप भी दीखता है । इस कारण एक नयरूप नेत्रसे देखना एक अंगका देखना है, तथा दो नयरूप नेत्रोंसे देखना सब अंगोंका देखना कहा जाता है । इसलिये सर्वांग द्रव्यके देखनेमें अन्यरूप और अनन्यरूप -- इस तरह दो स्वरूप कहनेका निषेध नहीं हो सकता
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
गाथा -21
हो देव मानव न या नर देव ना हो , किं वा मनुष्य शिव भी स्वयमेव ना हो ।
ऐसी दशा जब रही व्यवहार गाता , कैसे अनन्यपन को वह धार पाता ।l
अन्वयार्थ - ( मणुसो ) मनुष्य ( देवो ण हवदि ) देव नहीं है , ( वा ) अथवा ( देवो ) देव ( मणुसो । | व सिद्धो वा ) मनुष्य या सिद्ध नहीं है ; ( एवं अहोजमाणो ) सो ऐसा न होता हुआ वह ( अणण्णभावं कधं लहदि ) अनन्यभाव को कैसे प्राप्त हो सकता है ? |
गाथा -22
द्रव्यार्थि के वश सभी बस द्रव्य भाता , पर्याय अर्थिवश पर्यय रूप पाता ।
ऐसा कथंचित् अनन्य व अन्य होता , तत्काल क्योंकि वह तन्मय द्रव्य होता ।
अन्वयार्थ - ( दव्वट्ठियेण ) द्रव्याथिक नय से ( तं सव्वं ) वह सब ( दबं ) द्रव्य ( अणण्ण ) अनन्य है ; ( पुणो य ) और ( पज्जयट्ठिएण ) पर्यायार्थिक नय से ( तं ) वह ( सब द्रव्य ) ( अण्णं ) अन्य - अन्य है , ( तक्काले तम्मयत्तादो ) क्योंकि उस समय द्रव्य की पर्याय से तन्मयता है।