08-25-2014, 08:13 AM
पूर्व दिशा:-
वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भवन या भूखंड की दृष्टि से एक मध्य स्थान और आठ दिशाएं होती हैं। इन सभी का अपना-अपना महत्व है। जिस दिशा से सूर्योदय होता है, वह पूर्व दिशा होती है। अग्नि तत्व से संबंध रखने वाली इस दिशा के स्वामी इंद्र देवता हैं। पूर्व दिशा को पितृ स्थान भी कहा जाता है, इसलिए इस दिशा को बंद नहीं रखना चाहिए। अन्यथा रोग, मान-सम्मान की कमी, ऋण समस्या, पितृ दोष, कार्यों में रुकावट, परिवार के मुखिया की मृत्यु होने की आशंका भी बनी रहती है।
पश्चिम दिशा:-
पश्चिम दिशा को रखें हमेशा खाली सूर्य देवता के अस्त होने की दिशा पश्चिम है। इस दिशा के स्वामी वरुण देवता हैं। इस दिशा का संबंध वायु तत्व से है। चंचल मन से जुड़ी इस दिशा को बंद या दूषित रखने से भी कार्यों में विफलता, शिक्षा में रुकावट, मानसिक तनाव, लाभ न मिलने जैसी समस्याएं आती हैं।
उत्तर दिशा:-
वास्तु शास्त्र में मातृ भाव रखने वाली उत्तर दिशा को जल तत्व के रूप में माना गया है। दिशाओं में श्रेष्ठ इस दिशा के स्वामी कुबेर हैं। इस दिशा को सदैव रिक्त रखा जाना चाहिए। यह दिशा धन, धान्य, सुख, विद्या, शांति और पारस्परिक प्रेम की वृद्धि करने में सहायक है। धन रखने वाली तिजोरी का मुख उत्तर दिशा में खुलना शुभ है।
दक्षिण दिशा:-
पृथ्वी तत्व से संबंधित दक्षिण दिशा के स्वामी यम देवता हैं। धैर्य व स्थिरता की प्रतीक इस दिशा को बंद रखना श्रेष्ठ माना गया है। घर, दुकान व व्यापारिक संस्थान का भारी सामान इसी दिशा में रखना चाहिए। दक्षिण दिशा में बनी खिड़कियों को बंद रखना उचित है।
उत्तर-पूर्व दिशा:-
उत्तर-पूर्व में बनाएं पूजा गृह उत्तर-पूर्व दिशा अर्थात ईशान कोण जल तत्व से संबंधित है, जिसे सदैव पवित्र और साफ रखना अच्छा माना जाता है। इस दिशा के स्वामी रुद्र देवता हैं। बुद्धि, ज्ञान, विवेक, धैर्य, साहस, सुख, प्रसन्नता प्रदान करने वाली इस दिशा के दूषित होने से कष्ट, कलह, पुत्र की अल्प मृत्यु, भ्रष्ट आचरण अधिक होने की आशंका रहती है। इस दिशा में पूजा गृह बनाना और भजन-पूजन करना खासा शुभ और लाभदायक माना जाता है।
दक्षिण-पूर्व :-
दक्षिण-पूर्व में रखें सफाई, वास्तु शास्त्र के अनुसार दक्षिण-पूर्व दिशा को आग्नेय कोण की संज्ञा दी गई है। अग्नि तत्व से संबंधित इस दिशा के स्वामी अग्नि देव हैं। इस दिशा को दूषित रखने से स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है तथा अग्नि द्वारा आर्थिक क्षति होने की संभावना बनी रहती है। आग्नेय कोण में अग्नि से संबंधित उपकरण गैस चूल्हा, स्टोव, विद्युत उपकरण, विद्युत मीटर आदि रखना उत्तम रहता है। भोजन करते समय दक्षिण-पूर्व दिशा में थाली रखते हुए पूर्व दिशा की ओर मुख करके भोजन करने से निर्माण संबंधी वास्तु दोष दूर होता है।
दक्षिण-पश्चिम:-
दक्षिण-पश्चिम की पवित्रता देगी लाभदक्षिण-पश्चिम दिशा को वास्तु शास्त्र में नैऋत्य कोण के रूप में माना गया है। पृथ्वी तत्व से संबंधित इस दिशा के स्वामी नैरूत हैं। इस दिशा के पवित्र रहने से शत्रु भय नहीं होता और घर के सदस्यों का आचरण व चरित्र श्रेष्ठ बना रहता है, वहीं इस दिशा के दूषित होने से चरित्र हनन, शत्रु भय, आकस्मिक दुर्घटना या अल्प मृत्यु भय बना रहता है। इस दिशा में स्टोर कक्ष, सीढि़यां, वस्त्र धोने का स्थान बनाना अनुकूल व लाभकारी है।
उत्तर-पश्चिम:-
उत्तर-पश्चिम है महत्वपूर्ण दिशा,उत्तर-पश्चिम दिशा को वायव्य कोण माना जाता है। वास्तु तत्व से संबंध रखने वाली इस महत्वपूर्ण दिशा के स्वामी वरुण देव हैं। इसके पवित्र रहने से दीर्घायु, बेहतर स्वास्थ्य लाभ, शक्ति, शांति और धन लाभ होता है, जबकि दूषित होने से शत्रु भय, शारीरिक कमजोरी व व्यवहार परिवर्तन देखने को मिलता है। यह दिशा जल भंडार, परामर्श कक्ष, अतिथि गृह, गौशाला, बाल गृह, मनोरंजन कक्ष के लिए अनुकूल है।
भवन या भूखंड का मध्य या केंद्र स्थान आकाश तत्व से संबंध रखता है। इसके स्वामी सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी हैं। इसे पवित्र स्थान मानते हुए सदैव खुला व रिक्त रखना शुभ माना जाता है। भवन का आंगन ही केंद्र स्थान है। इसमें कोई भी सामान नहीं रखना चाहिए।
वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भवन या भूखंड की दृष्टि से एक मध्य स्थान और आठ दिशाएं होती हैं। इन सभी का अपना-अपना महत्व है। जिस दिशा से सूर्योदय होता है, वह पूर्व दिशा होती है। अग्नि तत्व से संबंध रखने वाली इस दिशा के स्वामी इंद्र देवता हैं। पूर्व दिशा को पितृ स्थान भी कहा जाता है, इसलिए इस दिशा को बंद नहीं रखना चाहिए। अन्यथा रोग, मान-सम्मान की कमी, ऋण समस्या, पितृ दोष, कार्यों में रुकावट, परिवार के मुखिया की मृत्यु होने की आशंका भी बनी रहती है।
पश्चिम दिशा:-
पश्चिम दिशा को रखें हमेशा खाली सूर्य देवता के अस्त होने की दिशा पश्चिम है। इस दिशा के स्वामी वरुण देवता हैं। इस दिशा का संबंध वायु तत्व से है। चंचल मन से जुड़ी इस दिशा को बंद या दूषित रखने से भी कार्यों में विफलता, शिक्षा में रुकावट, मानसिक तनाव, लाभ न मिलने जैसी समस्याएं आती हैं।
उत्तर दिशा:-
वास्तु शास्त्र में मातृ भाव रखने वाली उत्तर दिशा को जल तत्व के रूप में माना गया है। दिशाओं में श्रेष्ठ इस दिशा के स्वामी कुबेर हैं। इस दिशा को सदैव रिक्त रखा जाना चाहिए। यह दिशा धन, धान्य, सुख, विद्या, शांति और पारस्परिक प्रेम की वृद्धि करने में सहायक है। धन रखने वाली तिजोरी का मुख उत्तर दिशा में खुलना शुभ है।
दक्षिण दिशा:-
पृथ्वी तत्व से संबंधित दक्षिण दिशा के स्वामी यम देवता हैं। धैर्य व स्थिरता की प्रतीक इस दिशा को बंद रखना श्रेष्ठ माना गया है। घर, दुकान व व्यापारिक संस्थान का भारी सामान इसी दिशा में रखना चाहिए। दक्षिण दिशा में बनी खिड़कियों को बंद रखना उचित है।
उत्तर-पूर्व दिशा:-
उत्तर-पूर्व में बनाएं पूजा गृह उत्तर-पूर्व दिशा अर्थात ईशान कोण जल तत्व से संबंधित है, जिसे सदैव पवित्र और साफ रखना अच्छा माना जाता है। इस दिशा के स्वामी रुद्र देवता हैं। बुद्धि, ज्ञान, विवेक, धैर्य, साहस, सुख, प्रसन्नता प्रदान करने वाली इस दिशा के दूषित होने से कष्ट, कलह, पुत्र की अल्प मृत्यु, भ्रष्ट आचरण अधिक होने की आशंका रहती है। इस दिशा में पूजा गृह बनाना और भजन-पूजन करना खासा शुभ और लाभदायक माना जाता है।
दक्षिण-पूर्व :-
दक्षिण-पूर्व में रखें सफाई, वास्तु शास्त्र के अनुसार दक्षिण-पूर्व दिशा को आग्नेय कोण की संज्ञा दी गई है। अग्नि तत्व से संबंधित इस दिशा के स्वामी अग्नि देव हैं। इस दिशा को दूषित रखने से स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है तथा अग्नि द्वारा आर्थिक क्षति होने की संभावना बनी रहती है। आग्नेय कोण में अग्नि से संबंधित उपकरण गैस चूल्हा, स्टोव, विद्युत उपकरण, विद्युत मीटर आदि रखना उत्तम रहता है। भोजन करते समय दक्षिण-पूर्व दिशा में थाली रखते हुए पूर्व दिशा की ओर मुख करके भोजन करने से निर्माण संबंधी वास्तु दोष दूर होता है।
दक्षिण-पश्चिम:-
दक्षिण-पश्चिम की पवित्रता देगी लाभदक्षिण-पश्चिम दिशा को वास्तु शास्त्र में नैऋत्य कोण के रूप में माना गया है। पृथ्वी तत्व से संबंधित इस दिशा के स्वामी नैरूत हैं। इस दिशा के पवित्र रहने से शत्रु भय नहीं होता और घर के सदस्यों का आचरण व चरित्र श्रेष्ठ बना रहता है, वहीं इस दिशा के दूषित होने से चरित्र हनन, शत्रु भय, आकस्मिक दुर्घटना या अल्प मृत्यु भय बना रहता है। इस दिशा में स्टोर कक्ष, सीढि़यां, वस्त्र धोने का स्थान बनाना अनुकूल व लाभकारी है।
उत्तर-पश्चिम:-
उत्तर-पश्चिम है महत्वपूर्ण दिशा,उत्तर-पश्चिम दिशा को वायव्य कोण माना जाता है। वास्तु तत्व से संबंध रखने वाली इस महत्वपूर्ण दिशा के स्वामी वरुण देव हैं। इसके पवित्र रहने से दीर्घायु, बेहतर स्वास्थ्य लाभ, शक्ति, शांति और धन लाभ होता है, जबकि दूषित होने से शत्रु भय, शारीरिक कमजोरी व व्यवहार परिवर्तन देखने को मिलता है। यह दिशा जल भंडार, परामर्श कक्ष, अतिथि गृह, गौशाला, बाल गृह, मनोरंजन कक्ष के लिए अनुकूल है।
भवन या भूखंड का मध्य या केंद्र स्थान आकाश तत्व से संबंध रखता है। इसके स्वामी सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी हैं। इसे पवित्र स्थान मानते हुए सदैव खुला व रिक्त रखना शुभ माना जाता है। भवन का आंगन ही केंद्र स्थान है। इसमें कोई भी सामान नहीं रखना चाहिए।