09-17-2015, 11:16 AM
पंचमेरु पर्वतों का संक्षिप्त परिचय -
यदि हम पाँचों मेरु की ढाई द्वीपों में कर्मभूमि तदुपरांत जघन्य भोगभूमि है) उनकी भौगोलिक स्थिति एवं रचना को जानकर पूजन करे तो पूजन का आनंद और पुण्यार्जन शतप्रतिशत होगा!उपर्युक्त प्रथम चित्र में,मध्यलोक का ४५ लाख योजन विस्तार के ढाई द्वीप(मनुष्य लोक) में; एक लाख योजन विस्तार के जम्बूद्वीप को वेष्ठित करते हुए,२ लाख योजन विस्तार का लवण समुद्र है ,जिसे वेष्ठित करते हुए ४ लाख योजन विस्तार का धातकीखण्ड ,जिसे वेष्टित करते हुए ८ लाख योजन विस्तार का कालोदधि समुद्र और उसे वेष्ठित करते हुए ८ लाख योजन विस्तार का अर्द्धपुष्कवर द्वीप है,पुष्कवरद्वीप का मनोषोत्तर पर्वत द्वारा वलयाकार विभाजन करने से अर्द्धपुष्कवर द्वीप नाम से जाना जाता है! जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र के उत्तर कुरु और देवकुरु के मध्य सुदर्शन मेरु स्थित है !
धातकीखण्ड अर्द्धपुष्कवर द्वीप के उत्तर से दक्षिण विस्तृत इश्तगार पर्वत से दो दो पूर्व और पश्चिम खंड जाते है !प्रत्येक खंड के विदेह क्षेत्रमें उत्तम भोगभूमि के उत्तर और देव कुरु के मध्यस्थ क्रमश: विजय अचल ,मंदिर और विद्युन्माली मेरु पर्वत विराजमान है !(प्रथम और तृतीय चित्र)
दुसरे चित्र में,जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र के मध्य में उत्तर और देव कुरु के मध्यस्थ, एक लाख ४० योजन ऊंचा, चित्रा पृथ्वी के सतह पर १०००० योजन विस्तार का सुदर्शन मेरु पर्वत स्थित है जो की चित्रा पृथ्वी के नीचे १००० योजन तथा उसके ऊपर ९९०४० योजन ऊँचा है!मध्य लोक की ऊंचाई भी १०००४० योजन है!चित्रा पृथ्वी के तल पर भद्रसाल वन में चित्रा पृथ्वी से ५००योजन ठीक उर्ध्व दिशा में (९० डिग्री से ऊपर चलकर) नंदनवन है,उससे ६२५०० योजन ऊपर सुमनस वन तथा ३६००० योजन ऊपर पाण्डु वन है!चारों वनों की प्रत्येक,पूर्व, दक्षिण,पश्चिम और उत्तर दिशा में १-१ अकृत्रिम जिनचैत्यालय है, प्रत्येक में १०८ प्रतिमाओं विराजमान है !पाण्डु वन से ऊपर ४० योजन ऊंची, सतह पर १२ योजन और ऊपर ४ योजन विस्तार की चूलिका है !इससे १ बाल अंतराल से स्वर्गलोक आरम्भ हो जाता है !(चित्र ४ )
सुदर्शन मेरु की भांति ही पूर्व और पश्चिम धातकी खंड के विदेह क्षेत्र के उत्तर और देवकुरु के मध्यस्थ क्रमश: विजयमेरु और अचल तथा पूर्व तथा पश्चिमअर्द्धपुष्कवर द्वीप के विदेह के उत्तर और देव कुरु के मध्यस्थ क्रमश: मंदिर मेरु और विद्युन्माली मेरु स्थित है!इन चारो मेरुऔ में सुदर्शन मेरु की अपेक्षा अंतर है की ये ८५०४० योजन ऊँचे है!नंदनवन से सुमनसवन के बीच इनकी ऊंचाई ५५५०० योजन तथा सुमनस वन से पाण्डु वन की ऊंचाई २८००० योजन है!चारों मेरु के चारों वनों की चारो दिशाओं में १-१ अकृत्रिम चैत्यालय १०८ प्रतिमाये विराजमान है !इस प्रकार मेरु के कुल ८० चैत्यालय है जिनमे १०८ x ८०=८६४० प्रतिमाये है!
इन इन मेरु पर्वतों पर उन उन संबंधित तीर्थंकरो (बालक) का जन्माभिषेक निरंतर होता रहता है ,इसलिए पांचो मेरु अत्यंत पवित्र है !
पंचमेरु पूजा
गीता छन्द -
तीर्थंकरोंके न्हवन - जलतें भये तीरथ शर्मदा,
तातें प्रदच्छन देत सुर - गन पंच मेरुन की सदा |
दो जलधि ढाई द्वीप में सब गनत-मूल विराजहीं,
पूजौं असी जिनधाम - प्रतिमा होहि सुख दुख भाजहीं ||
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थजिनप्रतिमा-समूह! अत्र अवतर अवतरसंवौषट् |
ॐ ह्रीं पंचमेरू ................... प्रतिमा-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |
ॐ ह्रीं पंचमेरू ................... समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव पषट्
शब्दार्थ- -तीर्थंकरोंके न्हवन-जलतें भये तीरथ (तीर्थंकरों के न्हवन जल से से ये तीर्थ बन गए) शर्मदा-सुख देने वाले है!
तातें इसलिए इनकी,प्रदच्छन -प्रदक्षणा,देत-देते है, सुर-देवता लोग,गन- पंच मेरुन-पंच मेरु की, सदा-सदा |
दो जलधि-२ समुद्र ,ढाई द्वीप में, सब गनत पांचों -मूल-जड़ सहित , विराजहीं-विराजमान है ,
पूजौं-पूजा करता हूँ , असी-अस्सी, जिनधाम -जिनालयों की प्रतिमा-प्रतिमाये ,होहि सुख-सुख देने वाली है, दुख भाज हीं -दुखों को नष्ट कर !अर्थ-तीर्थंकरों के न्हवन जल से से ये तीर्थ बन गए है ये सुख देने वाले है!इसलिए पंच मेरु की प्रदक्षणा देवता लोग सदा देते है| २ समुद्र /ढाई द्वीप में, पांचों जड़ सहित विराजमान है! इन अस्सी,जिनालयों में विराजमान प्रतिमाओ की मै इनकी पूजा भक्तिभाव से करता हूँ क्योकि ये दुखों को नष्ट कर सुख देने वाली है!
चौपाई आंचलीबद्धशीतल-मिष्ट-सुवास मिलाय, जल सों पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ||
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ||ॐ ह्रीं सुदर्शन-विजय-अचल-मन्दर-विद्युन्मालि-पंचमेरूसम्बन्धि-जिन
चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः जलं निर्वमीति स्वाहा |1|
जल केशर करपूर मिलाय, गंध सों पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः चन्दनंनि0 स्वाहा |2|
अमल अखंड सुगंध सुहाय, अच्छत सों पूजौं जिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः अक्षतान् नि0 स्वाहा |3|
वरन अनेक रहे महकाय, फूल सों पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः पुष्पं नि0 स्वाहा |4|
मन वांछित बहु तुरत बनाय, चरू सों पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः नैवेद्यं नि0 |5|
तम-हर उज्जवल ज्योति जगाय, दीप सों पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः दीपं नि0 स्वाहा |6|
खेऊं अगर अमल अधिकाय, धूपसों पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः धूपं नि0 स्वाहा |7|
सरस सुवर्ण सुगंध सुभाय, फलसों पूजौं श्री जिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः फलं नि0 स्वाहा |8|
आठ दरबमय अरघ बनाय, 'द्यानत' पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ||
पांचो मेरू असी जिन धाम सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ||ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यं नि0 स्वाहा |9|
जयमालाप्रथम सुदर्शन-स्वामि, विजय अचल मंदर कहा |
विद्युन्माली नामि, पंच मेरु जग में प्रगट ||
केसरी छन्द
प्रथम सुदर्शन मेरु विराजे, भद्र शाल वन भू पर छाजे |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |1|
अर्थ-प्रथम सुदर्शन मेरु भूमि पर भद्रशाल वन में विराजमान है ! चारों चैत्यालय सुखकारी है अत:मन वचन काय से इनकी हम वंदना करते है !
ऊपर पंच-शतकपर सोहे, नंदन-वन देखत मन मोहे |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |2|
अर्थ-पांच सौ योजन ऊपर नंदन वन अत्यंत मोहनीय है !
साढ़े बांसठ सहस ऊंचाई, वन सुमनस शोभे अधिकाई |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |3|
अर्थ-साढ़े बांसठ सहस योजन ऊंचाई पर सुमनस वन अत्यंत शोभायमान है ! चारों चैत्यालय सुखकारी है अत:मन वचन काय से इनकी हम वंदना करते है !
ऊंचा जोजन सहस-छतीसं, पाण्डुक-वन सोहे गिरि-सीसं |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |4|
अर्थ- सुमनस वन से-छतीसं सहस योजन ऊंचाई पर पाण्डुक वन पर्वत के शीर्ष पर है ! चारों चैत्यालय सुखकारी है अत:मन वचन काय से इनकी हम वंदना करते है !
चारों मेरु समान बखाने, भू पर भद्रशाल चहुं जाने |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |5|
अर्थ-चारों मेरु(विजय,अचल,मंदर विद्युन्माली) एक समान अर्थात समान ऊंचाई के है ,भूमि पर चारों मेरु में भद्रशाल वन है !चैत्यालय सोलह सुखकारी है अत: मन वचन काय से हम उनकी वंदना/नमस्कार करते है
ऊंचे पांच शतक पर भाखे, चारों नंदन वन अभिलाखे |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |6|
अर्थ- चारों मेरुओं में पांच सौ योजन ऊपर चार नंदन वन कहा गया है!चैत्यालय सोलह सुखकारी है,मन वचन काय से हम उनकी वंदना करते है !
साढ़े पचपन सहस उतंगा, वन सोमनस चार बहुरंगा |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |7|
अर्थ- चारो मेरुओं में साढ़ेपचपन सहस ऊंचाई पर चार सोमनस वन बहुरंगे है! चैत्यालय सोलह सुखकारी है,मन वचन काय से हम वंदना करते है!
उच्च अठाइस सहस बताये, पांडुक चारों वन शुभ गाये |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |8|
अर्थ- चारों मेरुओं में उस से २८००० योजन ऊपर चारो पाण्डु वन शोभायमान है !चैत्यालय सोलह सुखकारी है,मन वचन काय से हम उनकी वंदना करते है !
सुर नर चारन वंदन आवें, सो शोभा हम किंह मुख गावें |
चैत्यालय अस्सी सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |9|दोहा -
अर्थ-सुर (देवता) नर(विद्याधर मनुष्य) चारन (चारण ऋद्धिधारी मुनिराज) मेरु पर्वतों की वंदना करते है !इनकी शोभा को हम किस मुख से कहे !चैत्यालय अस्सी सुखकारी है,मन वचन काय से हम उनकी वंदना करते है !
पंच मेरु की आरती,पढ़े सुनें जो कोय |
'द्यानत' फल जाने प्रभू, तुरत महासुख होय ||
पांच मेरु की आरती अर्थात गुणानुवाद जो करता है दयानत राय कवि कहते है उसका फल भगवान जाने किन्तु पूजा करने वाले को महासुख होता है
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धि जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यः पूर्णार्घ्यं नि0 स्वाहा |
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरु ( जम्बू द्वीप के मध्य में ,धातकी खंड के पूर्व में विराजमान विजय मेरु ,पश्चिम में विराजमान अचल मेरु ,पूर्व पुष्कर्द्ध द्वीप में विराजमान मंदर मेरु के और अंत में पश्चिम पुष्कार्द्ध द्वीप में स्थित विद्युन्माली मेरु के अस्सी चैत्यालयों में विराजमान ८६४० जिन बिम्बो के समक्ष क्रम से पुष्प पुंज से पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाह: कीजिये !
नोट- पंच मेरु पूजन करते समय आपको पांच मेरु उक्त चित्रों के अनुसार अंतरंग में दिखने चाहिए ,उसके बाद आप भाव से अर्थ समझकर पूजन करेंगे तो आपके पुण्यार्जन में अत्यंत अभिवृद्धि होगी!
यदि हम पाँचों मेरु की ढाई द्वीपों में कर्मभूमि तदुपरांत जघन्य भोगभूमि है) उनकी भौगोलिक स्थिति एवं रचना को जानकर पूजन करे तो पूजन का आनंद और पुण्यार्जन शतप्रतिशत होगा!उपर्युक्त प्रथम चित्र में,मध्यलोक का ४५ लाख योजन विस्तार के ढाई द्वीप(मनुष्य लोक) में; एक लाख योजन विस्तार के जम्बूद्वीप को वेष्ठित करते हुए,२ लाख योजन विस्तार का लवण समुद्र है ,जिसे वेष्ठित करते हुए ४ लाख योजन विस्तार का धातकीखण्ड ,जिसे वेष्टित करते हुए ८ लाख योजन विस्तार का कालोदधि समुद्र और उसे वेष्ठित करते हुए ८ लाख योजन विस्तार का अर्द्धपुष्कवर द्वीप है,पुष्कवरद्वीप का मनोषोत्तर पर्वत द्वारा वलयाकार विभाजन करने से अर्द्धपुष्कवर द्वीप नाम से जाना जाता है! जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र के उत्तर कुरु और देवकुरु के मध्य सुदर्शन मेरु स्थित है !
धातकीखण्ड अर्द्धपुष्कवर द्वीप के उत्तर से दक्षिण विस्तृत इश्तगार पर्वत से दो दो पूर्व और पश्चिम खंड जाते है !प्रत्येक खंड के विदेह क्षेत्रमें उत्तम भोगभूमि के उत्तर और देव कुरु के मध्यस्थ क्रमश: विजय अचल ,मंदिर और विद्युन्माली मेरु पर्वत विराजमान है !(प्रथम और तृतीय चित्र)
दुसरे चित्र में,जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र के मध्य में उत्तर और देव कुरु के मध्यस्थ, एक लाख ४० योजन ऊंचा, चित्रा पृथ्वी के सतह पर १०००० योजन विस्तार का सुदर्शन मेरु पर्वत स्थित है जो की चित्रा पृथ्वी के नीचे १००० योजन तथा उसके ऊपर ९९०४० योजन ऊँचा है!मध्य लोक की ऊंचाई भी १०००४० योजन है!चित्रा पृथ्वी के तल पर भद्रसाल वन में चित्रा पृथ्वी से ५००योजन ठीक उर्ध्व दिशा में (९० डिग्री से ऊपर चलकर) नंदनवन है,उससे ६२५०० योजन ऊपर सुमनस वन तथा ३६००० योजन ऊपर पाण्डु वन है!चारों वनों की प्रत्येक,पूर्व, दक्षिण,पश्चिम और उत्तर दिशा में १-१ अकृत्रिम जिनचैत्यालय है, प्रत्येक में १०८ प्रतिमाओं विराजमान है !पाण्डु वन से ऊपर ४० योजन ऊंची, सतह पर १२ योजन और ऊपर ४ योजन विस्तार की चूलिका है !इससे १ बाल अंतराल से स्वर्गलोक आरम्भ हो जाता है !(चित्र ४ )
सुदर्शन मेरु की भांति ही पूर्व और पश्चिम धातकी खंड के विदेह क्षेत्र के उत्तर और देवकुरु के मध्यस्थ क्रमश: विजयमेरु और अचल तथा पूर्व तथा पश्चिमअर्द्धपुष्कवर द्वीप के विदेह के उत्तर और देव कुरु के मध्यस्थ क्रमश: मंदिर मेरु और विद्युन्माली मेरु स्थित है!इन चारो मेरुऔ में सुदर्शन मेरु की अपेक्षा अंतर है की ये ८५०४० योजन ऊँचे है!नंदनवन से सुमनसवन के बीच इनकी ऊंचाई ५५५०० योजन तथा सुमनस वन से पाण्डु वन की ऊंचाई २८००० योजन है!चारों मेरु के चारों वनों की चारो दिशाओं में १-१ अकृत्रिम चैत्यालय १०८ प्रतिमाये विराजमान है !इस प्रकार मेरु के कुल ८० चैत्यालय है जिनमे १०८ x ८०=८६४० प्रतिमाये है!
इन इन मेरु पर्वतों पर उन उन संबंधित तीर्थंकरो (बालक) का जन्माभिषेक निरंतर होता रहता है ,इसलिए पांचो मेरु अत्यंत पवित्र है !
पंचमेरु पूजा
गीता छन्द -
तीर्थंकरोंके न्हवन - जलतें भये तीरथ शर्मदा,
तातें प्रदच्छन देत सुर - गन पंच मेरुन की सदा |
दो जलधि ढाई द्वीप में सब गनत-मूल विराजहीं,
पूजौं असी जिनधाम - प्रतिमा होहि सुख दुख भाजहीं ||
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि अस्सी जिनचैत्यालयस्थजिनप्रतिमा-समूह! अत्र अवतर अवतरसंवौषट् |
ॐ ह्रीं पंचमेरू ................... प्रतिमा-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |
ॐ ह्रीं पंचमेरू ................... समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव पषट्
शब्दार्थ- -तीर्थंकरोंके न्हवन-जलतें भये तीरथ (तीर्थंकरों के न्हवन जल से से ये तीर्थ बन गए) शर्मदा-सुख देने वाले है!
तातें इसलिए इनकी,प्रदच्छन -प्रदक्षणा,देत-देते है, सुर-देवता लोग,गन- पंच मेरुन-पंच मेरु की, सदा-सदा |
दो जलधि-२ समुद्र ,ढाई द्वीप में, सब गनत पांचों -मूल-जड़ सहित , विराजहीं-विराजमान है ,
पूजौं-पूजा करता हूँ , असी-अस्सी, जिनधाम -जिनालयों की प्रतिमा-प्रतिमाये ,होहि सुख-सुख देने वाली है, दुख भाज हीं -दुखों को नष्ट कर !अर्थ-तीर्थंकरों के न्हवन जल से से ये तीर्थ बन गए है ये सुख देने वाले है!इसलिए पंच मेरु की प्रदक्षणा देवता लोग सदा देते है| २ समुद्र /ढाई द्वीप में, पांचों जड़ सहित विराजमान है! इन अस्सी,जिनालयों में विराजमान प्रतिमाओ की मै इनकी पूजा भक्तिभाव से करता हूँ क्योकि ये दुखों को नष्ट कर सुख देने वाली है!
चौपाई आंचलीबद्धशीतल-मिष्ट-सुवास मिलाय, जल सों पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ||
पाँचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ||ॐ ह्रीं सुदर्शन-विजय-अचल-मन्दर-विद्युन्मालि-पंचमेरूसम्बन्धि-जिन
चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः जलं निर्वमीति स्वाहा |1|
जल केशर करपूर मिलाय, गंध सों पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः चन्दनंनि0 स्वाहा |2|
अमल अखंड सुगंध सुहाय, अच्छत सों पूजौं जिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः अक्षतान् नि0 स्वाहा |3|
वरन अनेक रहे महकाय, फूल सों पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः पुष्पं नि0 स्वाहा |4|
मन वांछित बहु तुरत बनाय, चरू सों पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः नैवेद्यं नि0 |5|
तम-हर उज्जवल ज्योति जगाय, दीप सों पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः दीपं नि0 स्वाहा |6|
खेऊं अगर अमल अधिकाय, धूपसों पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः धूपं नि0 स्वाहा |7|
सरस सुवर्ण सुगंध सुभाय, फलसों पूजौं श्री जिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय || पाँचों0ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः फलं नि0 स्वाहा |8|
आठ दरबमय अरघ बनाय, 'द्यानत' पूजौं श्रीजिनराय |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ||
पांचो मेरू असी जिन धाम सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम |
महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ||ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यं नि0 स्वाहा |9|
जयमालाप्रथम सुदर्शन-स्वामि, विजय अचल मंदर कहा |
विद्युन्माली नामि, पंच मेरु जग में प्रगट ||
केसरी छन्द
प्रथम सुदर्शन मेरु विराजे, भद्र शाल वन भू पर छाजे |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |1|
अर्थ-प्रथम सुदर्शन मेरु भूमि पर भद्रशाल वन में विराजमान है ! चारों चैत्यालय सुखकारी है अत:मन वचन काय से इनकी हम वंदना करते है !
ऊपर पंच-शतकपर सोहे, नंदन-वन देखत मन मोहे |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |2|
अर्थ-पांच सौ योजन ऊपर नंदन वन अत्यंत मोहनीय है !
साढ़े बांसठ सहस ऊंचाई, वन सुमनस शोभे अधिकाई |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |3|
अर्थ-साढ़े बांसठ सहस योजन ऊंचाई पर सुमनस वन अत्यंत शोभायमान है ! चारों चैत्यालय सुखकारी है अत:मन वचन काय से इनकी हम वंदना करते है !
ऊंचा जोजन सहस-छतीसं, पाण्डुक-वन सोहे गिरि-सीसं |
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |4|
अर्थ- सुमनस वन से-छतीसं सहस योजन ऊंचाई पर पाण्डुक वन पर्वत के शीर्ष पर है ! चारों चैत्यालय सुखकारी है अत:मन वचन काय से इनकी हम वंदना करते है !
चारों मेरु समान बखाने, भू पर भद्रशाल चहुं जाने |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |5|
अर्थ-चारों मेरु(विजय,अचल,मंदर विद्युन्माली) एक समान अर्थात समान ऊंचाई के है ,भूमि पर चारों मेरु में भद्रशाल वन है !चैत्यालय सोलह सुखकारी है अत: मन वचन काय से हम उनकी वंदना/नमस्कार करते है
ऊंचे पांच शतक पर भाखे, चारों नंदन वन अभिलाखे |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |6|
अर्थ- चारों मेरुओं में पांच सौ योजन ऊपर चार नंदन वन कहा गया है!चैत्यालय सोलह सुखकारी है,मन वचन काय से हम उनकी वंदना करते है !
साढ़े पचपन सहस उतंगा, वन सोमनस चार बहुरंगा |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |7|
अर्थ- चारो मेरुओं में साढ़ेपचपन सहस ऊंचाई पर चार सोमनस वन बहुरंगे है! चैत्यालय सोलह सुखकारी है,मन वचन काय से हम वंदना करते है!
उच्च अठाइस सहस बताये, पांडुक चारों वन शुभ गाये |
चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |8|
अर्थ- चारों मेरुओं में उस से २८००० योजन ऊपर चारो पाण्डु वन शोभायमान है !चैत्यालय सोलह सुखकारी है,मन वचन काय से हम उनकी वंदना करते है !
सुर नर चारन वंदन आवें, सो शोभा हम किंह मुख गावें |
चैत्यालय अस्सी सुखकारी, मन वच तन वंदना हमारी |9|दोहा -
अर्थ-सुर (देवता) नर(विद्याधर मनुष्य) चारन (चारण ऋद्धिधारी मुनिराज) मेरु पर्वतों की वंदना करते है !इनकी शोभा को हम किस मुख से कहे !चैत्यालय अस्सी सुखकारी है,मन वचन काय से हम उनकी वंदना करते है !
पंच मेरु की आरती,पढ़े सुनें जो कोय |
'द्यानत' फल जाने प्रभू, तुरत महासुख होय ||
पांच मेरु की आरती अर्थात गुणानुवाद जो करता है दयानत राय कवि कहते है उसका फल भगवान जाने किन्तु पूजा करने वाले को महासुख होता है
ॐ ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धि जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यः पूर्णार्घ्यं नि0 स्वाहा |
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरु ( जम्बू द्वीप के मध्य में ,धातकी खंड के पूर्व में विराजमान विजय मेरु ,पश्चिम में विराजमान अचल मेरु ,पूर्व पुष्कर्द्ध द्वीप में विराजमान मंदर मेरु के और अंत में पश्चिम पुष्कार्द्ध द्वीप में स्थित विद्युन्माली मेरु के अस्सी चैत्यालयों में विराजमान ८६४० जिन बिम्बो के समक्ष क्रम से पुष्प पुंज से पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाह: कीजिये !
नोट- पंच मेरु पूजन करते समय आपको पांच मेरु उक्त चित्रों के अनुसार अंतरंग में दिखने चाहिए ,उसके बाद आप भाव से अर्थ समझकर पूजन करेंगे तो आपके पुण्यार्जन में अत्यंत अभिवृद्धि होगी!