तत्वार्थ सुत्र अध्याय २ सुत्र ३१ से ४९तक
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जन्म के भेद -

सम्मूर्च्छनगर्भोपपादा:जन्म -३१ 
संधि विच्छेद -सम्मूर्च्छन+गर्भ:+उपपादा:+जन्म 
शब्दार्थ -सम्मूर्च्छन ,गर्भ और उपपाद ,जन्म के तीन भेद है !
अर्थ-संसारी जीवो  का जन्म सम्मूर्च्छन,गर्भ अथवा  उपपाद ,तीन प्रकार से होता है !
भावार्थ-
१-सम्मूर्च्छनजन्म- माता के रज और पिता के वीर्य की अपेक्षा रहित ,जीव द्वारा सभी ओर से अपने शरीर के  रचना योग्य पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण कर नवीन शरीर की रचना करना सम्मूर्च्छन जन्म है!जैसे स्थावर और विकलेन्द्रि त्रस जीवों का नियम से सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है ! उर्ध्व,मध्य,अधोमय तीनों लोक में जहां तहाँ अवयवों सहित शरीर बन जाना सम्मूर्च्छन है ! यहां सम्मूर्च्छन का अर्थ अवयवों की कल्पना !है 
-गर्भजन्म-माता के उदर में रज और पिता के वीर्य के संयोग ,मिश्रण होना गर्भ है !उसमे  जीव के  शरीर की रचना होना गर्भ जन्म है जैसे मनुष्य,पशु,पक्षी,कबूतर,चील,मुर्गी,शेर,हिरण इत्यादि का गर्भजन्म होता है और
३-उपपाद जन्म-माता के ऱज और पिता के वीर्य की अपेक्षा रहित  देवों / नारकियों के वैक्रियिक  शरीर की रचना यथायोग्य परमाणुओं को ग्रहण कर उपपाद शैया पर होना ,उपपाद  जन्म है ! देव और नारकी का नियम से  उपपाद जन्म ही  होता है , वे अंतर्मूर्हत काल  में ही पूर्ण होकर जन्म ले,उठने,बैठने ,चलने लगते है !
 उक्त सूत्र में सम्मूर्च्छन ,गर्भ और उपपाद जन्म को इसी क्रम  में इसलिए रखा है क्योकि सम्मूर्च्छन जन्म से उत्पन्न जीवों की आयु अपेक्षाकृत अल्पत्तम;तदुपरांत गर्भ  जन्म वालों की और उपपाद  जन्म वाले जीवों की सर्वाधिक है !
गर्भ जन्म (महीनों में) वाले जीवों को जन्म लेने में सम्मूर्च्छन जीवों(अंतर्मूर्हूत) से अधिक काल लगता है अत: उन्हें सम्मूर्च्छन के बाद रखा है !
उपपाद जन्म वाले जीवों की दीर्घतम आयु है,सांसारिक भोगोपभोग तथा अधिक ऋद्धि के धारक है इसलिए उन्हें अंत में रखा है !

 संसारी  जीव के नवीन जन्म स्थान को योनि कहते है -
योनियों के भेद -
सचित्तशीतसंवृतास्सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनय:-३२
संधिविच्छेद-सचित्त+शीत+संवृता:+सेतरा:+मिश्रा:+च+एकश:+तद्योनय :--
शब्दार्थ-सचित्त,शीत,संवृत और सेतरा:-इनकी क्रमश:विपरीत अर्थात अचित्त,उक्षण और विवृत और क्रम  से  इनकी मिश्र एक एक अर्थात सचित्ताचित्त ,शीतोष्ण और संवृतविवृत,तद्योनय: -ये नौ  ,उन सम्मूर्च्छन आदि जन्मो की योनियां अर्थात जीवों के उत्पन्न  होने वाले,  जन्म स्थान को योनि कहते  है! 
अर्थ-सचित्त,शीत,संवृत और (सेतराSmile-इनकी क्रमश:उल्टी अर्थात अचित्त,उष्ण  और विवृत और क्रम  से इनकी  एक एक मिश्र  अर्थात सचित्ताचित्त ,शीतोष्ण और संवृतविवृत ,(तद्योनय: -वे उन (सम्मूर्च्छन आदि जन्मों के स्थान;योनिया  है!
योनि आधार है जन्म अधेय है !क्योकि सचित्ताचित योनि में जीव सम्मूर्च्छन जन्म लेकर उत्पन्न होता है !
विशेषार्थ -
१-सचित्तयोनि- आत्मा सहित प्रवृत्ति करने वाला ,आत्मा का चैतन्य  विशेष रूप परिणाम चित्त है ,उस चित्त सहित योनि सचित्त योनि है,चेतना सहित योनि को सचित्त योनि कहते है!योनि रूप पुद्गलों का  होना सचित्त योनि है!माता के उदर में जन्म सचित्त है !
२-शीतयोनि-शीत  स्पर्श युक्त पुद्गल  योनि को शीत  योनि कहते है जैसे ठंडे स्थानों ;बर्फ आदि  में जीवों की उत्पत्ति होना शीत योनि है !
३-संवृतयोनि -ऐसे जीव के उत्पत्ति स्थान जो किसी को दिखाई नहीं देते !जैसे माता का गर्भ में जीव का  गर्भ धारण करना संवृतयोनि है !
४-अचित्तयोनि -चेतना रहित,मात्र अचेतन पुद्गलमयी योनि अचित्त योनि है,दीवार ,कुर्सी इत्यादि में जो जीव  जाते है उनकी चित्त योनी है  !
५-उष्ण योनि -उष्ण स्पर्श युक्त पुद्गल योनि को उष्ण योनि कहते है !गर्म स्थानो जैसे मरुस्थल में जीवों की उत्पत्ति होना उष्ण योनि है !
६-विवृतयोनि-ऐसे जीव के उत्पत्ति स्थान जो स्पष्ट/प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते है !जैसे जल में उत्पन्न होने वाली काई ,विवृत योनि है !
७-सचिताचित्योनि-जो योनि चेतन और अचेतन दोनों युक्त है !मनुष्यों (सचित्त )की टोपियों(चित्त )में जीवों की उत्पत्ति होना सचित्ताचित्त रूप मिश्र योनि है !
८-शीतोष्णयोनि-जो पुद्गलमयी योनी शीत और उष्ण दोनों स्पर्श रूप  होती है वह शीतोष्ण योनि होती हैजैसे ठंडे जल के गड्ढे में सूर्य की  जीवों की उत्पत्ति होना ,शीतोष्ण योनि है !
९-संवृतविवृत-जिस पुद्गलमयी योनि का कुछ भाग नहीं  दिखाई देती हो और  कुछ भाग  दिखाई  देता, संवृतविवृत योनि  है !
चतुर्गति में जीवों की योनिया-
देव और नारकियों की अचित्त,संवृत तथा शीत और उष्ण स्पर्श की योनि होती है !
गर्भज मनुष्यो और तिर्यन्चों की सचित,अचित,शीत, उष्ण,शीतोष्ण तथा संवृत,विवृत  योनि होती है !सम्मूर्च्छन जन्म वालो   की सचित ,अचित्त,शीत -शीतोष्ण और उष्ण योनियाँ  होती है !एकेन्द्रिय की संवृत और विलेन्द्रिय जीवों की विवृत योनी होती है !
इस प्रकार से सामन्य से ९ और विस्तार से ८४ लाख योनियाँ होती है !नित्यनिगोद,इतर निगोद,पृथ्वीकायिक,जलकायिक,अग्निकायिक वायुकायिक जीवों की सात-सात लाख योनिया,वनस्पति कायिक की दस लाख,विकलेन्द्रियों में प्रत्येक की २ -२ लाख ,देव,तिर्यंच और नारकी -प्रत्येक  की ४-४ लाख,  मनुष्यों की १४ लाख ,कुल ८४ लाख योनियाँ होती है !
 श्री गोम्मटसारजी,जीवसमास नामक दुसरे अधिकार में,आचर्य नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने गर्भ जन्म के सदर्भ में  स्त्री की योनि के निम्न  तीन भेद बताये है!
१-शंखावर्त,-इसमें गर्भ ठहरता ही नही और यदि ठहर भी जाए तो बीच में ही नष्ट हो जाता है,इसमें जीव उत्पन्न नही होता है इसे  बाध्य/बाँझ भी कहते है !इसका आकार शंखवत होता है इसलिए यह नाम है 
२-कूर्मोन्नत योनि -इसमें तीर्थंकर,चक्रवर्ती,नारायण,प्रतिनारायण बलभद्र उर उनके शेष भाई-बहिन  जन्म लेते है !  यह कछुए /कूर्म के समान उठे आकार की  होने से  नाम यह है और
 ३-वंशपत्र  योनि-इसका आकार वंश/बांस के पत्र -पत्ते के आकार का होता है इसमें सामन्य मनुष्य उत्पन्न होते है !
गर्भ जन्म के स्वामी -
जरायुजाण्डजपोतानां गर्भ-३३
संधि विच्छेद 
जरायुज+अण्डज+पोत+अनां+गर्भ-३३
अर्थ-जरायुज अंडज और पोत,प्राणियों गर्भ जन्म होता है!गर्भ जन्म उक्त प्राणियों के ही होता है!
१-जरायुज-जन्म के समय प्राणियों के शरीर से जाल,रुधिर,और मांस की खोल लिपटी होती है उसे जरायु अथवा जर कहते है!उसमे जो उत्पन्न होता है उसे जरायुज कहते है!जैसे गाय,भैस,मनुष्य आदि के गजरायुज गर्भजन्म है  !
२-अण्डज-जो की नख की त्वचा के समान कठोर और जिसका आवरण शुक्र और शोणित से बना है उसे अंडा कहते है  जिन जीवों  उत्पत्ति अन्डो  से होती है जैसे कबूतर,पक्षी,चील,मुर्गी ,तिर्यंच आदि का  अण्डज गर्भजन्म है 
३-पोत-उत्पत्ति के समय जिन प्राणियों के ऊपर कोई आवरण नही होता,वे पैदा होते ही चलने फिरने लगते है,हिरण,सिंहादि के पोत गर्भजन्म है! 
१-सूत्र में जरायुजादि कर्म से ही गर्भ जन्म के भेद बताये है क्योकि असाधारण सुंदर रूप,भाषा अध्ययन मोक्षादि  शुभ क्रियाएँ जरायुज जन्म के जीवों के ही  होती है  अन्यों के नही ,शलाका पुरुष इसे से जन्म लेते है  अत: सर्वप्रथम जरायुज को सूत्र में रखा है! पोत जन्म वाले जीवों की अपेक्षा अंडज जन्म वाले जीवों के प्रधानत्व है क्योकि शुक,सरकादि पक्षी अक्षरों के उच्चारण आदि क्रियाओं से युक्त ही उत्पन्न होते है अत:जरायुज के बाद और उसके बाद पोत को  रखा है ! 
२- तीर्थंकर बालक आवरण रहित; उत्पन्न होते है,उनके शरीर पर रुधिर मांस रूप जाल के समान जरायु नही होता फिर भी इनका जन्म पोत न होकर जरायुज इसलिए कहा है क्योकि पोत जन्म वाले जीवों के समान वे जन्म लेते ही,अपनी पर्याय योग्य चलना,बोलना इत्यादि कार्य आरम्भ नही करते है ! अत: इनका जन्म जरायुज ही है ,ये तीर्थ के प्रवर्तन करते है !
उपपाद जन्म के स्वामी - 
देवनारकाणामुपपाद -३४ 
संधि विच्छेद -देव+नारकाणाम+उपपाद-
शब्द्दार्थ-देव-देव ,नारकाणाम-नारकियों का ही,उपपाद-उपपाद जन्म होता है !
अर्थ-नियम से उपपाद जन्म देव और नारकियों का ही होता है !
देवों का जन्म-सभी प्रकार के देवों संबंधी प्रसूति-स्थान पर अति सुगंधित ,कोमल ,संपुट आकार के आकार की उत्पाद शैय्या बनी हुई है वहां अंतर्मूर्हूत काल में सम्पूर्ण यौवन अवस्था प्राप्त देवों का जन्म होता है !इनकी कांति ,लम्बाई ,सौंदर्य आयु पर्यन्त समान रहता है !
नारकीयों का जन्म-सातों ही पृथ्वियों के नरक बिलो की छत में मधुमखी के छत्ते समान उलटे ,अधोमुख रूप उतपत्ति स्थानॉन में नारकियों  का जन्म होता है ! 
सम्मूर्च्छन जन्म के स्वामी -
शेषाणां सम्मूर्च्छनम् -३५ 
शब्दार्थ-शेषाणां शेष अर्थात गर्भ और उपपाद जन्म वालो के अतिरिक्त सभी जीवों का ,सम्मूर्च्छनम् -सम्मूर्च्छन जन्म है 
र्थ-शेष जीवों के सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है!समस्त एकेन्द्रिय स्थावरो,विकलेन्द्रिय ,मनुष्य तथा कुछ पंचेन्द्रिय तिर्यन्च जीवों का सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है !
विशेष-सूत्र ३२,३३,३४ सूत्र नियम दोनों ओर से नियम  है!अर्थात जरायुज,अंडज और पोत के गर्भ जन्म ही है,अन्य कोई नही !देवों  और नारकियों   का ही, उपपाद जन्म होता है,अन्य कोई नही,शेष जीवों का,सम्मूर्च्छन जन्म ही है अन्य कोई नही!मनुष्य और तिर्यन्चों के गर्भ और सम्मूर्च्छन दो जन्म है !
लब्धय पर्याप्तक सम्मूर्च्छन जन्म वाले ही होते है,उप्पाद जन्म वाले नही!
 सम्मूर्च्छनमनुष्य संज्ञी अपर्याप्तक ही,पर्याप्तक नही,असंज्ञी भी नही, नपुंसकवेदी होते है!ये स्त्री  की योनियों,स्तनों,मूत्रों आदि में उतपन्न होते है! 




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जीव के शरीरों के भे


औदारिकवैक्रियिकाहारकतेजसकर्माणानिशरीराणि -३६द -
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संधि विच्छेद:-औदारिक+वैक्रियिक+आहारक+तेजस+कर्माणानि+शरीराणि
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अर्थ-औदारिक,वैक्रयिक,आहारक,तेजस और कर्माण, शरीर  है !
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१-औदारिकशरीर-स्थूल शरीर जो अन्य शरीरों को बाधित भी करता है और  स्वयं उनसे बाधित भी होता है,औदारिक शरीर है जैसे मनुष्य,पशु आदि का शरीर !
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२-वैक्रियिक शरीर-जो शरीर एक,अनेक,स्थूल,सूक्ष्म,हल्का,भारी,लम्बा,छोटा आदि अणिमा आदि ऋद्धि द्वारा अथवा वैक्रयिक शरीर नाम कर्म के उदय में अनेक प्रकार से परिवर्तित किया जा सके वह वैक्रियिकशरीर है! देव और नारकी का होता है, ये दीखते भी है और नहीं भी दिख सकते!तपस्वी मुनिराज ऋद्धि प्राप्त कर अपने औदारिक शरीर को भी वैक्रयिक करते है !
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३आहारकशरीर-छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज,अपनी सूक्ष्म पदार्थों के सन्दर्भ में शंका निवारण,वर्तमान में उपलब्ध केवली अथवा श्रुत केवली के पास शंका समाधान के लिए,अपने संयम की रक्षा के लिए या देव वंदना के लिए अपने जिस शरीर को भेजते है,उनके सिर से एक हाथ का पुतला निकलता है,आहारक शरीर है !
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४-तेजसशरीर-औदारिक,वैक्रियिक,आहारक तीन शरीर की काँति और तापमान नियंत्रित करने वाला, शंख के समान श्वेत वर्णीय(अनि:सरणीय) तेजस शरीर है,यह सभी संसारी जीवों के होता है!
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तपश्चरण की लब्धि से उत्पन्न नि:सरणीय तेजस शरीर के दो भेद है
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१-शुभ नि;सरण तेजसशरीर-कोई तपस्वी ऋद्धिधारी मुनिराज करुणावश , किसी दुर्भिक्ष उपद्रव से प्रताड़ित ,१२ योजन क्षेत्र में अपने दाहिने कंधे से आत्मा के कुछ प्रदेशों सहित एक तेज़रूप पिंड निकाल कर जीवों का कष्ट निवारण के लिए भेजते है,वह दुःख का निवारण कर पुन: मूलशरीर में प्रविष्ट कर जाता है ! और
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२-अशुभ नि:सरण तेजस-किसी ऋद्धिधारी मुनिराज को क्रोद्धवश, बाए कंधे से कुछ आत्मा प्रदेशों सहित एक तेजस रूप पिंड,अंगुल के असंख्यातवे भाग प्रमाण निकलकर क्रमश बढ़ते बढ़ते १२ योजन प्रमाण होकर इतने क्षेत्र को भस्म कर   पुन:मुनिराज  के शरीर में प्रविष्ट कर,उन्हें भी भस्म कर देता है यह अशुभ नि:सरण तेजसशरीर है!दीपायानमुनि द्वारा द्वारिका का भस्म होना इसका ज्वलंत उद्धाहरण है !
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और
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५-कर्माण शरीर-ज्ञानवारणादि अष्टकर्मों के समूह को कार्मण शरीर कहते है,यह सभी संसारी जीवों के होता है!सभी शरीर को उत्पन्न करने वाला है !कार्माण शरीर का निमित्त जीव का मिथ्यादर्शन है!यह श्वेत वर्णीय है !
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जीव की मुक्ति तक,आत्मा के साथ साथ तेजस और कार्मण शरीर समस्त भवों  में यात्रा करते है,औदारिक और वैक्रियिक शरीर जीव को गति के बंध के अनुसार विभिन्न भव में  मिलते है !
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पांचों शरीर को सूत्र में उक्त क्रम से  रखने का कारण-
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औदारिक शरीर सबसे स्थूल (बड़ा) है ,इन्द्रियगोचर है,इसे सर्वप्रथम इसलिए रखा है !उसे आगे के शरीर क्रमश उत्तरोत्तर सूक्ष्म है !इसलिए इस क्रम में रखे है!सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में स्थूलत्व नही है फिर उनका औदारिक शरीर इसलिए कहा है क्योकि उनका सूक्ष्म शरीर = वैक्रियिकशरीर की अपेक्षा स्थूल है !
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शरीर के आकार -
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परं परं सूक्ष्मम् -३७
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शब्दार्थ - ये पांच शरीर क्रमश:उत्तरोत्तर सूक्ष्म सूक्ष्म है !
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अर्थ-औदारिकशरीर से वैक्रियिक सूक्ष्म है;आहारक,वैक्रियिक से सूक्ष्म है;तेजस आहारक से सूक्ष्म है और कार्माण तेजस से सूक्ष्म है !
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प्रथम तीन शरीरों के प्रदेश-
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प्रदेशतोऽसंख्येय गुणं प्राक् तैजसात्-३८
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संधि विच्छेद-प्रदेशत:+असंख्ये+गुणं+प्राक्+तैजसात्
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शब्दार्थ-प्रदेशत-प्रदेशो/ परमाणु की संख्या की अपेक्षा,असंख्येय-असंख्यात ,गुणं-गुणे  प्राक्-पहिले तक,तैजसात्-तेजस् शरीर से
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अर्थ-प्रदेशों/परमाणु की (शरीर के बनाने में परमाणु की इस्तमाल करी गई वर्गणाए)अपेक्षा तेजस्  शरीर से पहले पहले शरीर असंख्यात-असंख्यात गुणे है!
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भावार्थ-औदारिकशरीर की अपेक्षा असंख्यात गुणे प्रदेश/(परमाणु),वैक्रियिक शरीर में है और वैक्रियिकशरीर की अपेक्षा असंख्यातगुणे प्रदेश आहारक शरीर में होते है!क्योकि वर्गणाए उत्तरोत्तर शरीरों की पतली होती जाती है! 
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शंका-औदारिक शरीर से आगे के शरीर में असंख्यात गुणे अधिक परमाणु होने  पर भी वे अधिक सूक्ष्म की जगह अधिक स्थूल होने चाहिए ?
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समाधान-उनमे क्रमश परमाणुओ का बंधन अधिक ठोस होने के कारण स्थूल नहीं है,इसीलिए आगे आगे के शरीर अधिक परमाणु होने का बावजूद भी अधिक सूक्ष्म है!जैसे लोहे का पिंड रुई के पिंड से सूक्ष्म होता है यदि दोनों  वजन बराबर होने  पर भी!
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तेजस्  और कार्माण शरीर के प्रदेश -
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अनन्तगुणे परे-३९ \
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संधि-विच्छेद-अनंत+गुणे +परे
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शब्दार्थ-अनन्त- अन्नत ,गुणे -गुणे,परे- (आहारक )के बाद अर्थात, दो शरीर अर्थात तेजस्  और कार्मण शरीर के है
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अर्थ-तेजस् शरीर के प्रदेश(परमाणु) आहारकशरीर से अनंतगुणे और कार्माणशरीर के प्रदेश(परमाणु) तेजस्  शरीर से अनन्तगुणे है!



तेजस् और कार्माण  शरीर की विशेषता -
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अप्रतिघाते -४०
संधि विच्छेद-अ+प्रतिघाते 
शब्दार्थ -अ-नही ,प्रतिघाते -अड़चन डालना/ रुकावट डालना /अथवा रुकना  
अर्थ-तेजस् और कार्माण दोनों शरीर अप्रतिघाती अर्थात बाधा रहित/ दोनों समस्त लोक में किसी भी मूर्तिक पदार्थ से न स्वयं रुकते है और न ही उन्हें रोकते है !जैसे अग्नि लोह के पिंड में प्रवेश कर लेती है वैसे ही ये दोनों शरीर, किसी वज्रमय पटल से भी बाधित नहीं होते !मूर्तिक पदार्थ तो एक दुसरे को बाधित करते है !वे प्रतिघाती होते है !
शंका-तेजस और कार्माण शरीर में इतने अधिक (अनंत गुणे - अंतहींन से अनंत गुणे ) परमाणु होने से संसारी जीव इन दोनों शरीर के साथ अपने इच्छित प्रदेश को गमन नहीं कर सकता है?
समाधान-ये दोष नहीं है क्योकि ये दोनों शरीर  अप्रतिघाती है,अर्थात ये दोनों एक दुसरे का व्याघात नहीं करते तथा अन्य किसी को भी बाधित नहीं करते अत: दोनों बाधा रहित है !
शंका-वैक्रियिक और आहारक शरीर भी सूक्ष्म होने के कारण किसी को रोकते नहीं,फिर इन्हे अप्रतिघाती क्यों नहीं कहा  ?
समाधान -तेजस् और कार्माण शरीर सर्व लोक में अप्रतिघाती अर्थात बाधा रहित गमन कर सकते है जबकि आहारक शरीर मात्र ढाई द्वीप तक , देवों का वैक्रियिक शरीर;मात्र त्रसनाड़ी के अंदर ही ऊपर १६ स्वर्गो से नीचे तीसरे नरक तक ही बाधारहितगमन कर सकता है.ऋद्धिधारी ऋषियों का वैक्रियिक/आहारक  शरीर भी मनुष्यलोक तक ही बाधा रहित गमन कर सकता है, लोक में अन्य  स्थान पर ये  शरीर नहीं गमन कर सकते इसलिए इन्हेअप्रतिघाती नहीं कहा है!अत:समस्त लोक में बाधा रहित विचरण करने के कारण तेजस् और कार्माण शरीर ही अप्रतिघाति है!
कार्माण व् तेज़स शरीर का संबंध -
अनादिसंबन्धेच -४१
शब्दार्थ--अनादि काल से ,संबंध -संबंध है, च- यह सादि संबंध भी है 
अर्थ-(तेजस् शरीर और कार्माण शरीर का) आत्मा से अनादि संबंध है !'च' विकल्पार्थक है जो सूचित करता है की आत्मा से तेजस् और कार्माण शरीर का संबंध सादि भी है देखिये कैसे ?
कार्य और कारण रूप बंध की अपेक्षा तो,तेजस् और कार्माण शरीर का अनादि संबन्ध है अर्थात औदारिक,वैक्रियिक और आहारक शरीर का संबंध जीव से अनित्य है -कभी कोई शरीर आत्मा के साथ होता है कभी दूसरा  होता है किन्तु तेजस् और कार्माण शरीर संसारी आत्मा /जीव के साथ सदैव रहते है !अत: इनका आत्मा के साथ अनादि संबंध ,जीव की मुक्ति तक है!
पूर्व मे बंधे तेजस् शरीर और कार्मण  कर्म  की प्रति समय निर्जरा होती रहती है और नवीन शरीर  बनते रहते है अर्थात परमाणु वर्गणाए बदलती रहती है,इस अपेक्षा से इनका आत्मा से इनका संबंध सादि है ! 
विशेषार्थ -जो लोग आत्मा शरीर का संबंध सर्वथा सादि अथवा सर्वथा अनादि मानते है उसमे अनेको दोष आ जाते है !यदि संबंध सर्वथा सादि ही माना जाये तो शरीर से संबंध होने से पूर्व आत्मा विशुद्ध ,अत्यंत शुद्ध थी ऐसी अवस्था में सर्वथा शुद्ध आत्मा का किसी,निमित्त के अभाव में शरीर के साथ संबंध कैसे हो सकता है!यदि शुद्धात्मा का निमित्त के अभाव में शरीर से संबंध हो सकता है तब मुक्त जीवों का भी शरीर संबंध होने का प्रसंग आएगा और मुक्त आत्माओं का ही अभाव जाएगा !
आत्मा और शरीर का संबंध एकांत से अनादि ही माना जाये तो जो सदैव से अनादि है उसका अंत नहीं हो सकता  अत:जीव कर्मों से मुक्त नहीं होगा!इसीलिए आत्मा का शरीर से संबंध कदाचित् अनादि और कदाचित् सादि है 
तेजस् और कार्माण शरीर की विशेषता -

सर्वस्य -४२ 
संधि विच्छेद -सर्वस्य-सर्व+अस्य 
शब्दार्थ-सर्व-सभी संसारी जीवों  ,अस्य- के साथ है !
भावार्थ -तेजस्  और कार्माण  शरीर सभी संसारी जीवो के( चारो गतियों में)  होते है !
एक जीव के युगपत होने वाले शरीर -
तदादीनिभाज्यानियुगपदेकस्याचतुर्भ्य:-४३ 
संधि विच्छेद -तत् +आदिनि +भाज्यानि+युगपत् +एकस्य +आचतुर्भ्य:-
शब्दार्थ -तत्-उन (तेजस् और कार्माण सरीर को ) आदिनि-आदि लेकर , भाज्यानि-विभक्त करना चाहिए, युगपद्-एक साथ , एकस्य -एक जीव के ,आचतुर्भ्य:-चार शरीर तक हो सकते है !
अर्थ-उन(३६ वे सूत्र में आये ) तेजस और कार्माण, दोनों शरीर को आदि लेकर एक संसारी जीव में एक साथ चार शरीर में विभक्त करना चाहिए!अर्थात 
१-संसारी जीव के विग्रह गति में तेजस्  और कार्माण दो  शरीर  होते है !
२-कार्माण,तेजस् और औदारिक/वैक्रियिक-तीन शरीर होते है जैसे क्रमश: मनुष्य और तिर्यंच  तथा नारकी और देवों के होते है,
३-तेजस् कार्माण,औदारिक और आहारक चार शरीर होते  है जैसे छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के होते है !  वैक्रयिक और आहारक शरीर  किसी जीव के एक साथ नहीं हो सकते !अत: किसी भी जीव के चार से अधिक शरीर एक साथ नहीं हो सकते 
कार्माण  शरीर की विशेषता -
निरुपभोगमन्त्यम् -४४ 
संधि विच्छेद-निरुपभोगम्+अंत्यम्  
शब्दार्थ-निरुपभोगम् -उपभोग रहित है ,अंत्यम् -अंतिम शरीर अर्थात कार्माण शरीर 
अर्थ -अंत का कार्माण  शरीर उपभोग रहित है !
उपभोग-इन्द्रियों,शब्दादि के ग्रहण करने को उपभोग कहते है !विग्रह गति में कार्माण  शरीर  के द्वारा ही योग होता है किन्तु विग्रहगति के समय लब्धि रूप भावेन्द्रिय हीं होती है, द्रव्येंद्रियां नहीं होती है !इसलिए शब्द आदि विषयों का अनुभव विग्रहगति में नहीं होने के कारण कार्मण शरीर को निरुपभोग कहा है  !
शंका-तेजस्  शरीर भी तो निरुपभोग है उसे ऐसा क्यों नहीं कहा है ?
 समाधान -तेजस्  शरीर योग में भी निमित्त नहीं है !अर्थात जैसे अन्य शरीरों के निमित्त से आत्म प्रदेशों में कम्पन होता है तेजस्  शरीर के निमित्त से भी वह नहीं होता !अत: वह तो निरुपभोग ही है इसलिए उसे नहीं कहा है क्योकि निरुपभोग और सपोभोग करते समय उसी शरीर का विचार है जो योग में निमित्त है !ऐसे शरीर, तेजस्  के अतिरिक्त चार है,उनमे भी केवल कार्मण शरीर निरुपभोग मय है बाकी तीनो सपोभोग है क्योकि उनमे इन्द्रिय होती है जिनके माध्यम से जीव इन्द्रिय विषयों को भोगता है!



औदारिक शरीर का लक्षण -
गर्भसम्मूर्च्छनजमाद्यम्-४५
संधि विच्छेद-गर्भ+सम्मूर्च्छनजम्+आद्यम्
 शब्दार्थ-गर्भ-गर्भ,सम्मूर्च्छनज-सम्मूर्च्छनज,आद्यम्-आदि/पहिला वाला,औदारिक शरीर होता है
अर्थ-गर्भ और सम्मूर्च्छन जन्म से उत्पन्न हुए जीवों का औदारिक शरीर  है !
भावार्थ-गर्भ और सम्मूर्च्छन जन्म तिर्यन्चों और मनुष्यों का ही होता है अत: उनका सूत्र में पहिला औदारिक शरीर होता है! 
वैक्रियिक शरीर का लक्षण -
औपपादिकंवैक्रयिकम्-४६
शब्दार्थ-औपपादिकं-उपपाद जन्म वाले जीवों का,वैक्रयिकम्-वैक्रियिक शरीर होता है !
अर्थ- उपपाद जन्म वाले देवों और नारकियों  का वैक्रियिक शरीर है !
यदि वैक्रियिक  शरीर उपपाद जन्म वाले जीवों के ही होता है ,तो उपपाद  जन्म रहित जीवों में विक्रिया का अभाव मानना पड़ेगा ,अन्यत्र विक्रिया का सद्भाव बताने के लिए निम्न सूत्र में आचार्य कहते है-  
विशेष वैक्रियिक का लक्षण -
लब्धिप्रत्ययंच-४७
संधि विच्छेद-लब्धि +प्रत्ययं+च
शब्दार्थ -लब्धि-लब्धि,प्रत्ययं-निमित्तक ,च-भी होता है
अर्थ -वैक्रियिक शरीर लब्धि-(तपश्चर्ण)  के निमित्त से भी होता है !
भावार्थ-तपस्या के फलस्वरुप प्राप्त ऋद्धि को लब्धि कहते है!अत:तप के प्रभाव से भी वैक्रयिक शरीर होता  है !विशेष -जैसे विष्णु महाराज ने अपने शरीर को वैक्रियिक कर विशाल कर दो डग में मध्य लोक को और समेरू पर्वत पर्यन्त क्षेत्र को नाप दिया था! चक्रवर्ती का मूल औदारिक शरीर पटरानी के पास रहते हुए शेष ९५९९९ रानियों के साथ संसर्ग के लिए उनका उत्तर शरीर अंतर्मूर्हूत काल में जाकर सन्तानोत्पत्ति कर मूल शरीर में आजाते  है! इस विक्रिया में जीव अपने औदारिक शरीर में ही लब्धि के निमित्त से छोटे ,बड़े ,हल्के -भारी,एक से अनेक शरीर रूप विक्रिया करते है !
लब्धि प्रत्यय शरीर और भी है-
तेजसमपि -४८
संधि विच्छेद-तेजसं+अपि
अर्थ-तेजस शरीर भी लब्धि प्रत्यय भी होता है !अर्थात तपस्वी जीवों  को  भी लब्धि प्रत्यय/ऋद्धि से प्राप्त होता है!
भावार्थ -यह अनि:सरण, तेजस शरीर-शरीर को कांति,तापमान प्रदान करने वाला,भोजन को पचाने वाला ,सभी संसारी जीवों के होता है  और
तेजस् शरीर भी लब्धि प्रत्यय नि:सरण तेजस शरीर  अर्थात तपश्चरण द्वारा ऋद्धि प्राप्त करने से होता है यह 
२- मुनिराज के शरीर से निकलकर बाहर निकलने  वाला तेजस् शरीर ऋद्धि प्राप्त कर   दो प्रकार का
१-शुभतेजस् शरीर-किसी क्षेत्र के जीव दुर्भिक्ष/महामारी/रोगों आदि से पीड़ित होने पर ,उनके प्रति अत्यंत  करुणा के  भाव उत्पन्न होने पर, मुनिराज के दाहिने कंधे से शुभ सफ़ेद रंग का तेजस शरीर निकल कर १२ योजन क्षेत्र  के मनुष्यों का कष्ट दूर कर पुन: उनके शरीर में प्रवेश कर जाता है ! और
२-अशुभतेजस् शरीर-मुनिराज के किसी के प्रति अत्यंत क्रोधित  भाव उत्पन्न होने पर,उनके बाए कंधे से सिन्दूर के सामान  लाल रंग का अशुभतेजस्  शरीर निकलकर, उस क्षेत्र के १२ योजन के जीवों को भस्म कर पुन :मुनिराज के शरीर में प्रवेश कर उन्हें भी भस्म कर देता है!ये  तेजस् शरीर  भी   लब्धि  निमित्तिक /ऋद्धि प्राप्ति के द्वारा तपस्वी मुनिराज के होते है !प्रथमानुयोग के ग्रंथों में उल्लेखित दीपायान मुनि के क्रोद्ध से द्वारिका के विनाश की  लीला किसी से छुपी नहीं है  और अंतत: मुनिराज का शरीर भी भस्म हो गया था!
वर्तमान में किसी भी मुनिमहाराज  शरीर उत्पन्न करने की शक्ति नहीं है !
आहारक शरीर के स्वामी के लक्षण-
शुभंविशुद्धमंव्यघातीचाहरकंप्रमत्तसंयतस्यैव -४९
संधि विच्छेद-शुभं+विशुद्धं+अव्यघाती+च+आहरकं+प्रमत्त+संयतस्य्+ऐव्
शब्दार्थ-शुभं-शुभ कार्य के लिए ही  निकलता  है,विशुद्धं-अत्यंत विशुद्ध होता है,महान पुण्य का फल से  होता है  अर्थात सप्तधातुओं से रहित होता है,अव्यघाती-अबाधित होता है,किसी को बाधित नहीं करता और स्वयं भी बाधित नहीं होता है,च-और,आहरकं-आहारक शरीर,प्रमत्तसंयतस्य् -छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्त संयत मुनिराज के,ऐव-ही होता है,सातवे  गुणस्थानवर्ती मुनि के नहीं होता !
अर्थः-आहारकऋद्धिधारी,प्रमत्तसंयत छठेगुणस्थानवर्तीमुनिराज के ही शुभ-शुभ कार्य करने के कारण है, विशुद्ध-विशुद्धकर्म का कार्य होने के कारण विशुद्ध है-महान पुण्य के फलस्वरूप सप्तधातु रहित,अबाधित रुकावट रहित आहारक शरीर होता है!यह शरीर किसी के भी मार्ग में बाधक नही होता और नहीं कोई इसके मार्ग को बाधित कर सकता है!यह शरीर शुभ कार्य करने के कारण शुभ  है
यह  छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज की  इच्छानुसार अंतर्मूर्हत के लिए शरीर से निकलता है,अपना कार्य पूर्ण कर वापिस मुनिराज  के मूल शरीर में प्रवेश कर जाता है!इसकी रचना,मुनिराज
१-अपनी, शंका  समाधान के लिए केवली के पद मूल में जाकर शंका समाधान के लिए अथवा
२-कोई आचार्य समाधी मरण ले रहे हो उनके स्वस्थ क्षेम के पता लगाने के लिए,अपने संयम की रक्षा के लिए,जीवों की हिंसा से बचने के लिए अथवा
३-दूरगामी स्थान  जैसे शिखर जी/ गिरनार जी   पर  वंदना करने के लिए ,करते है !
इसकी अवगाहना १ हाथ और रंग  सफ़ेद होता है!आहारक ऋद्धिधारी मुनि के मस्तक से यह शरीर  निकलकर अनुश्रेणी गमन करता है !
इस प्रकार सूत्र ३६ से ४९ तक पांचों संसारी जीवों के शरीरों का निरूपण हुआ !
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तत्वार्थ सुत्र अध्याय २ सुत्र ३१ से ४९तक - by scjain - 02-09-2016, 11:29 AM
RE: तत्वार्थ सुत्र अध्याय २ सुत्र ३१ से ४९तक - by Manish Jain - 06-13-2023, 10:38 AM

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