तत्वार्थ सुत्र अध्याय ४ सुत्र १६ से २० तक
#1

वैमानिक देवों का वर्णन-

 वैमानिका:  !!१६!!
अर्थ-अब वैमानिक देवों  का वर्णन करते है !
विशेष-
१-विशेष पुण्य के उदय से उत्पन्न होने वाले  पुण्यशाली जीवो  के निवास  स्थान को  विमान कहते है!उन विमानों में जन्म लेने वाले देवों  को वैमानिक देव कहते है !
२- विमान के इन्द्रक,श्रेणीबद्ध और पुष्प  प्रकीर्णक तीन भेद है !जो इंद्र की तरह अन्य विमानों के बीच में रहते है उन्हें इन्द्रक,जो उसकी चारो दिशा इ कतारबद्ध होते है उन्हें श्रेणी बढ़ और जो विदिशाऔ  में फूलों के समान  यत्र तत्र बिखरे होते है उन्हें पुष्प  प्रकीर्णक विमान कहते है !
वैमानिक देवों  के भेद-
कल्पोपन्ना:कल्पातीताश्च !!१७!
संधि विच्छेद-कल्पोपन्ना:+कल्पातीत:+च 
शब्दार्थ- कल्पोपन्ना:-जहा १६ स्वर्गों में कल्पो (इन्द्रादि के १० भेदो ) की कल्पना है +कल्पातीत-कल्पातीत ,जहाँ कल्पो(इन्द्रादि १० भेदों की  की कल्पना नहीं है, च -और 
अर्थ वैमानिक देवों के कल्पोपन्न-जहाँ १६ स्वर्गों-कल्प  में इन्द्रादि के १० भेदो  की कल्पना होती है,उनमे उत्पन्न होने वाले देवों को कल्पोपन्न वैमानिक देव कहते  है,  और
 जहाँ  इन्द्रों आदि १० भेदों की कल्पना नहीं है ,उन्हें कल्पातीत (९ ग्रैवियिक,९ अनुदिदशो और ५ अनुत्तरों)  में उतपन्न होने होने वाले देवों को वैमानिक देवों को  कल्पातीत  देव कहते है !
विशेष-जिन कल्पो में १२ प्रकार के इंद्र रहते है वे कल्प १६ है उसमे से सौधर्मेन्द्र कल्प मेरु पर्वत के उप्र अवस्थित है जो की दक्षिण दिशा में फैला हुआ है !इस कल्प के ऋजु विमान और समरू पर्वत की चूलिका में १ बाल मात्र का अंतराल है!इसके समान आकाश प्रदेश में उत्तर दिशा में ऐशान कल्प है!
कल्पों की स्थित का क्रम -
उपर्युपरि  !!१८!!
अर्थ -ये कल्पादि क्रमश: ऊपर ऊपर है !सोलह स्वर्गों के आठ युगल ,नव ग्रैवेयिक,नव अनुदिश और पांच अनुत्तर  ये सब क्रम से ऊपर ऊपर है !
विशेष-ये कल्पोपण और कल्पातीत वैमानिक देव ज्योतिष्क देवों   के समान तिरच्छे या वियंत्र देवों  के समान विषम रूप से नहीं रहते बल्कि क्रम  से ऊपर ऊपर  रहते है !सभी स्वर्गो में परस्पर समीपता नहीं है,उनमे असंख्यात योजनों का अंतर है !कल्पातीत देवों को अहमिन्द्र कहते है !


वैमानिक देवों  के निवास स्थान -

सौधर्मैशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणा- च्युतयोर्नवसुग्रैवेयकेषुविजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषुसर्वार्थसिद्धौ !!१९!!
संधिविच्छेदसौधर्म-ऐशान+सानत्कुमार-माहेन्द्र+ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर+लान्तव-कापिष्ठ+शुक्र-महाशुक्र+शतार-सहस्रार+आनतप्राणत+आरण-अच्युत+योर्नवसु +ग्रैवेयकेषु +विजय +वैजयन्त +जयन्ता +पराजितेषु +सर्वार्थसिद्धौ +
अर्थ-सौधर्म-ऐशान,सानत्कुमार-माहेन्द्र,ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर,लान्तव-कापिष्ठ,शुक्र-महाशुक्र,शतार-सहस्रारआनतप्राणत,आरण-अच्युत आठ स्वर्गो के युगलों में देवो निवास स्थान विमान है तथा नौ ग्रैवेयक,(र्नवसु)नौ अनुदिश ,विजयवैजयंतजयन्त और अपराजित और सर्वाथसिद्धि  अनुत्तर विमानो मे अहमिन्द्र कल्पातीत देव  रहते है।
विशेष-१-उर्ध्व लोक मेमध्यलोक चित्रा पृथ्वी के भूमि तल से ९९०४० महायोजन ऊंचाई पर सुदर्शन मेरु की चूलिका से १ बाल अंतराल पर ,सौधर्मेन्द्र -ऐशान कल्प (स्वर्ग पहिला स्वर्ग का युगल)आरम्भ होता है !इसपर प्रथम इन्द्रक विमान ऋजु ,  ढाई द्वीप के विस्तार के बराबर ४५ लाख महायोजन विस्तार का है !इसकी चारों दिशाओं में ६२-६२ श्रेणीबद्ध विमान और विदिशाओं में बहुत सारे  प्रकीर्णक विमान है ,इनके ऊपर असंख्यात पटल  छोड़कर दूसरा पटल है.उसके मध्य में इन्द्रक विमान और चारों दिशाओं में ६१-६१ विमान है तथा विदिशाओं में असंख्यात प्रकीर्णक विमान है !इसी प्रकार योजनो के अंतराल पर १,५ राजू उंचाई  तक क्रमश ३१ पटल है !३१ वे पटल से असंख्यात योजन अंतराल पर सनत्कुमार और महेंद्र कल्प आरम्भ होता है उनके ७ पटल १.५  राजू की ऊंचाई तक है ! इसी प्रकार १/२ -१/२ राजू के अंतराल पर क्रमश  तीसरा कल्प ब्रह्म ब्रह्मोत्तर (४पटल), चौथा कल्प लांतव-कापिष्ट  (२ पटल ),पांचवा कल्प  शुक्र और महा शुक्र (१ पटल )और छठा  कल्प शतार - सहस्रार (१ पटल),सातवा कल्प  आनत -प्रणत(३ पटल) ,आठवां कल्प आरण-अच्युत( पटल)  लोक की कुल ६ राजू ऊंचाई  तक १६ स्वर्गइनके कुल ५२ पटल है !आठवे स्वर्ग के युगल से ऊपर लोक के अंत तक लगभग १ राजू ऊंचाई तक  क्रमशः ,नव ग्रैवेयक के  पटल है,उसके ऊपर नव अनुदिशों  का एक पटल और  इसके ऊपर  अनुत्तरों  विमान के एक पटल में है !इस प्रकार ऊर्ध्व लोक में  कुल ६३ पटल है!इन स्वर्गों  के ८ कल्प युगलों के १२ इन्द्रों में  सौधर्मेन्द्र,सनत्कुमार,ब्रह्म,शुक्र,आनत और आरण  ६ इंद्र  दक्षिणेन्द्र और ६;ऐशान ,माहेन्द्र ,लांतव ,शतार, प्राणत  और अच्युत  उत्तरेन्द्र है !
 २ -पांच अनुत्तारों में सर्वार्थ सिद्धि के विमान से १२ योजन ऊपर  योजन  मोटी ,इष्टतागार ,अष्टम पृथ्वी में चंद्रकार सिद्धशिला है!उसके ऊपर क्रमशः घनोदधि,घनवात और तनुवात वलय है,सिद्ध भगवान् के प्रदेश मनुष्यकार कायोत्सर्ग अथवा पद्मासन आकार में, इस तनुवातवलय के अंत को  शीर्ष  स्पर्श करते  हुए ५२५ धनुष मोटे और ४५लाख योजन विस्तार के सिद्धालय में विराजमान रहते हैस्वर्गों में ८४९७०२३ देवों  के विमान है,प्रत्येक में,  एक एक जिनचैत्यालय ,प्रत्येक  में १०८  रत्नमयी जिन बिम्ब विराजमान है !
सूत्र में सर्वार्थ सिद्धि को अलग से इसलिए रखा है क्योकि यहाँ पर  उत्पन्न देव एक भव ,में मनुष्य पर्याय पाकर मोक्ष  प्राप्त करते है!  
३-नवग्रैवेयिक;१-सुदर्शन,२-अमोध,३-सुप्रबद्ध,४-यशोधर,५-सुभद्र,६-सुविशाल,७-सुमनस,८-सोमप्रभ,९-प्रीतिकर है !
४-नवअनुदिश;१-आदित्य,२-अर्चि ,३-अर्चिमाली,४-बैरोचन ,५-प्रभास,६-अर्चिप्रभ,७-अर्चिमध्य ,८-अर्चिरावर्त ,९ -अर्चि विशिष्ट है 

वैमानिक देवों में उत्तरोत्तर अधिकता -

स्थितिप्रभावसुखद्युति लेश्या विशुद्धीन्द्रियावधिविषयोतोऽधिका: !!२० !!

 संधि विच्छेद -स्थिति+प्रभाव+सुख+द्युति+लेश्या +विशुद्धि +इन्द्रियाविषयात:+अवधिविषयत:+अधिका:
शब्दार्थ-स्थिति-आयु,प्रभाव-प्रभाव,सुख-सुख,द्युति-कांति लेश्याविशुद्धि-लेश्या की विशुद्धि ,इन्द्रियाविषयात:इन्द्रिय का विषय और अवधिविषयत:-अवधि ज्ञान का विषय ,अधिका:-अधिक अधिक है 
अर्थ - ऊपर ऊपर  के  देवों  की आयु,प्रभाव,सुख,कांति ,लेश्या विशुद्धि,इन्द्रिय विषय और अवधि ज्ञान के विषय क्रमश उत्तरोत्तर वृद्धिगत होते है !
विशेष-
१-आयु-नीचे से ऊपर के देवों  की आयु बढ़ती जाती है ;प्रथम स्वर्ग में उत्कृष्ट आयु २अगर से कुछ अधिक है जबकि सर्वार्थ सिद्धि में जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ३३ सागर है ,बीच के स्वर्गों और /ग्रैविकों अनुदिश और अनुत्तर में इनके बीच पहले स्वर्ग युगल से बढ़ती हुई है !
२-प्रभाव - देवों के श्राप  देने या उपकार करने की क्षमता को उनका प्रभाव कहते है !यह भीनीचे से ऊपर  स्वर्गों के डिवॉन में वृद्धिगत है !किन्तु ऊपर ऊपर के डिवॉन में अहंकार कम कम होता जाता है इसलिए इस प्रभाव को वे कभी प्रयोग में नहीं ला ते है!
३-सुख -इन्द्रियों के द्वारा उनके विषयों का अनुभव करना सुख है !यद्यपि ऊपर ऊपर के डिवॉन का नदी,पर्वत ,अटवी आदि में विहार करना क्रमश कम होता जाता है ,देवियों  की संख्या व् परिग्रह क्रमश  कम होता जाता  भी सुख की उन्हें क्रमश अधिक अनुभूति होती है !
४-द्युति-शरीर ,वस्त्र ,आभरण की छटा द्युति है !उप्र २ के देवों  का शरीर छोटा  है ,वस्त्र और आभरण भी कम होता जाता है,किन्तु इन सबकी द्युति क्रमश वृद्धिगत होती हैं !
५-लेश्या विशुद्धि-ऊपर के स्वर्गों में देवों  की लेश्या विशुद्धि  वृद्धिगत होती है ,उनकी लेश्या निर्मल होती जाती है !
६-इन्द्रियविषय -प्रत्येक इन्द्रिय का जघन्य और उत्कृष्ट विषय बतलाया है ! उस से अपेक्षा नीचे के देवों से  ऊपर के देवों के इन्द्रिय  विषय वृद्धिगत है !अर्थात ऊपर पर के देवों की  द्वारा विषय को ग्रहण करने  सामर्थ्य उत्तरोत्तर वृद्धिगत है !
७-अवधि विषय-ऊपर के देवों  की अवधि ज्ञान की सामर्थ्य  भी क्रमश वृद्धिगत है!प्रथम व् दुसरे कल्प के देव अवधिज्ञान द्वारा प्रथम , ३ सरे -४थे कल्प के देव दुसरे ,५ वे से ८ वे कल्प तक के देव तीसरी,९वे से १२ वे कल्प तक के देव चौथी ,१३ वे से१६वे तक के देव पांचवी , नव ग्रैवेयक के देव छठी नरक भूमि  तक और  नव अनुदिशों और अनुत्तरों के देव  पूरी लोक नाड़ी को जानते है !

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तत्वार्थ सुत्र अध्याय ४ सुत्र १६ से २० तक - by scjain - 02-16-2016, 08:36 AM
RE: तत्वार्थ सुत्र अध्याय ४ सुत्र १६ से २० तक - by Manish Jain - 07-15-2023, 09:34 AM

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