तत्वार्थ सुत्र अध्याय ४ सुत्र ३१ से ४२ तक
#1

त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानितु  !!३१!!


संधि विच्छेद -त्रि+सप्त+नव+ऐकादश त्रयोदश +पञ्चदशभि:+अधिकानि+ तु
शब्दार्थ-त्रि-तीन,सप्त-सात,नव-नौ,ऐकादश-ग्यारह, त्रयोदश-तरह,पञ्चदशभि:-पंद्रह ,अधिकानि-(सात से) अधिक , तु-बार्वे स्वर्ग से आगे इन से आधा सागर अधिक आयु नहीं है !
अर्थ- तीसरे युगल, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर में देवों  की उत्कृष्ट आयु ७+३ अर्थात १० सागर से कुछ अधिक (अंतर्मूर्हत कम   आधा सागर अधिक ,
चौथे युगल लांतव-लापिष्ट स्वर्गों में देवों की उत्कृष्ट आयु ७+७ =१४ सागर से कुछ अधिक  (अंतर्मूर्हत कम आधा सागर ),
पांचवे युगल शुक्र और महाशुक्र में देवों की उत्कृष्टायु  ७+९=१६ सागर में कुछ अधिक (अंतर्मूर्हत कम आधा सागर ),
छठे युगल शतार -सहस्रार स्वर्गों में देवों  की उत्कृष्टायु ७+११ =१८ सागर से कुछ अधिक (अंतर्मूर्हत कम आधा सागर ),
सातवे युगल -आणत -प्राणात स्वर्गों में देवों की उत्कृष्ट आयु ७+१३=२२ सागर और
आठवे युगल आरं-अच्युत स्वर्गों में देवों की उत्कृष्टायु ७+१५=२२ सागर है !
विशेष- घातायुष्क जीव १२ स्वर्गों तक ही उत्पन्न होते है !

ग्रैवेयिक ,अनुदिशों और अनुत्तरों में उत्कृष्टायु -

आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेनवसुग्रैवेयिकेषुविजयादिषुसर्वार्थसिद्धौच !!३२!!
संधि विच्छेद -
आरण +अच्युतात्+ऊर्ध्वम् ज़+एकैके+नवसु+ग्रैवेयिकेषु+विजयादिषु+सर्वार्थसिद्धौ+च -
शब्दार्थ-आरण-आरण,अच्युतात्-अच्युत से ,ऊर्ध्वम्-ऊपर के,एकैके-(एक-एक सागर),नवसु-नवअनुदिशों, ग्रैवेयिकेषु-नव ग्रैवेयिक,विजयादिषु-विजयादि ,सर्वार्थसिद्धौ-सर्वार्थ सिद्धि , च -और सर्वार्थ सिद्धि में ३३सागर ही जघ्य व् उत्कृष्ट आयु है !
अर्थ-आरण और अच्युत स्वर्गों के आठवे युगल से ऊपर नव अनुदिश ,और विजयादि चार अनुत्तरों और सर्वार्थसिद्धि में देवों की उत्कृष्ट आयु क्रमश १ -१ सागर वृद्धिगत है !
भावार्थ -पहले ग्रैवेयिक में उत्कृष्ट आयु देवों की २३ सागर है जो की प्रत्येक ग्रैवेयिक में एक एक सागर अधित होते होते  अंतिम ग्रैवियेयिक में ३१ सागर है ,नव अनुदिशों में ३२ सागर और पांचों अनुत्तरों में ३३सागर है 
उक्त सूत्र में सर्वार्थ सिद्धि को च से अन्य अनुत्तरों से अलग दर्शाने का कारण है की यहाँ उत्कृष्ट ही आयु ३३ सागर ही है !

  
सौधर्मेन्द्र और ऐशान स्वर्ग में देवों  की जघन्यायु -
अपरा पल्योपममधिकम्॥३३॥
संधि विच्छेद-अपरा+ पल्योपमम् +अधिकम्
शब्दार्थ -अपरा-जघन्य आयु , पल्योपमम्- पल्योपम , अधिकम्-से कुछ अधिक है
अर्थ-सौधर्मेन्द्र और ऐशान स्वर्ग में देवों  की जघन्यायु एक पल्य है !
परत:परत:पूर्वापूर्वा ऽनन्तरा॥३४॥
संधि विच्छेद-परत:+परत:+पूर्वा+पूर्वा +अनन्तरा
शब्दार्थ-परत:परत:-अगले अगले स्वर्गों में देवों की है, पूर्वापूर्वा -पहिले -पहिले  स्वर्गों के देवों की उत्कृष्टायु , अनन्तरा-जघन्यायु है !
अर्थ-स्वर्गों में अगले स्वर्ग युगल के देवों की जघन्यायु पाहिले-पाहिले स्वर्ग युगल के देवों  के उत्कृष्टायु  से एक समय अधिक है !
भावार्थ-सौधर्मेन्द्र-ऐशान स्वर्ग युगल में उत्कृष्टायु २ सागर से कुछ अधिक,सनत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्ग युगल के देवों की जघन्यायु २ सागर से कुछ अधिक से १ समय अधिक है ,इसी प्रकार सनत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गों मे देवों की उत्कृष्तायु ७ सागर से कुछ अधिक में १ समय अधिक जघन्यायु, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्गों के देवों की है !इसी प्रकार आगे के स्वर्गों के देवों की भी है,सर्वार्थ सिद्धि मे जघन्यायु नहीं होती !

द्वित्यादि नरको में नारकियों की जघन्यायु -
नारकाणां च द्वित्यादिषु !!३५!!
संधि विच्छेद -नारकाणां +च+ द्वित्यादिषु 
शब्दार्थ-नारकाणांनरकों में भी, च-देवों के समान है , द्वित्यादिषु-द्वित्यादि नरकों में नारकीयों की  जघन्यायु
अर्थ- पाहिले नरक में नारकियों की उत्कृष्टायु १ सागर है,दुसरे नरक मे  जघन्यायु १ सागर  समय  नारकियों की है उत्कृष्टायु ३ सागर है  ,तीसरे नरक  की जघन्यायु ३सागर  से  १ समय  है,उत्कृष्तायु ७ सागर है  !चौथे नरक में जघन्यायु ७ सागर १ समय और उत्कृष्टायु १० सागर  है ,पांचवे नरक में जघन्यायु १० सागर १ समय और उत्कृष्ट १७ सागर है,छठे नरक में जघन्य आयु १७ सागर १ समय है,उत्कृष्टायु २२ सागर , सातवे में जघन्यायु २२ सागर से एक समय अधिक है और  उत्कृष्ट आयु ३३ सागर  है 
विशेष-नारके भी देवों की भांति  जितने सागर की आयु का बंध होता है  उतने ही पक्ष में नारकी  श्वासोच्छ्वास लेते है !
प्रथम नरक में जघन्यायु -
दशवर्षसहस्राणिप्रथमायाम् !!३६!!
संधि -विच्छेद -दश+वर्ष+सहस्राणि +प्रथमायाम्
शब्दार्थ-दश-दस ,वर्ष-वर्ष,सहस्राणि-हज़ार, प्रथमायाम्-प्रथम नरक में है 
अर्थ-प्रथम नरक में नारकी की जघन्यायु  दस हज़ार वर्ष है !
भवनवासी देवों  की जघन्य आयु -
भवनेषु च !!३७!!
शब्दार्थ -भवनेषु -भवनों में,च-भी (दस हज़ार वर्ष आयु है )
अर्थ-भवनवासी देवों  की जघन्यायु  भी १० हज़ार वर्ष है !
व्यंतर देवों  की जघन्यायु-
व्यन्तराणां च !!३८!!
संधि विच्छेद -व्यन्तर+अणां +च 
शब्दार्थ -व्यन्तर-व्यन्तर, अणां -वासियों में ,च-भी (१० हज़ार वर्ष है )
अर्थ -व्यन्तर देवों  की  भी दस हज़ार वर्ष जघन्यायु है!
व्यन्तर  देवों  की उत्कृष्टायु -
परा पल्योपममधिकम्  !!३९!!
 शब्दार्थ-परा -उत्कृष्तायु,पल्योपममधिकम्- पल्य  से कुछ अधिक है !
अर्थ - व्यन्तर  देवों की उत्कृष्टायु पल्य  से कुछ अधिक है,पल्य  असंख्यात वर्षों का होता है !१० कोडाकोड़ी  पल्य का १  सागर होता है  
ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्टायु -
ज्योतिष्काणां च !!४०!!
अर्थ- ज्योतिष्क देवों  की भी उत्कृष्टायु १ पल्य  से कुछ अधिक होती है !
विशेष-चन्द्रमा की १ लाख वर्ष अधिक एक पल्य है!सूर्य की १००० वर्ष अधिक १ पल्य है !शुक्र की १०० वर्ष अधिक १ पल्य है !वृहस्पति की उत्कृष्ट स्थिति मात्र १ पल्य  है !
ज्योतिष्क देवों की जघन्यायु -
तदष्ट-भागो परा  !!४१!!
शब्दार्थ-तदष्ट -वह आठवा ,भागो-भाग, ऽपरा -ऊपर  कहे पल्य का है 
अर्थ- ज्योतिष्क देवों  में जघन्यायु एक पल्य का आठवा भाग है !
विशेष-चन्द्र,सूर्य,शुक्र,वृहस्पति,की जघन्यायु  १/४ पल्य ,तारों,नक्षत्र,बुद्ध की १/८ पल्य है !
लौकांतिक देवों की आयु-
लौकान्तिकानामष्टौसागरोपमाणिसर्वेषाम् !!४२ !!
संधि विच्छेद -लौकान्तिकानाम+अष्टौ+ सागरोपम+,अणि+ सर्वेषाम्
शब्दार्थ-लौकान्तिकानाम-लौकांतिक देवों  में , अष्टौ-आठ , सागरोपम-सागर ,आणि-अस्ति है,, सर्वेषाम्-समान 
अर्थ- लौकांतिक देवों की एक समान;जघन्यायु और उत्कृष्टायु  ८ सागर है  प्रमाण  ही है !
विशेष -सभी लौकांतिक देवों की ऊंचाई ५ हाथ प्रमाण होती है और शुक्ललेश्याधारी होते है !ये ब्रह्मऋषि कहलाते है!इनकी देवांगनाएँ नहीं होती !

देवों का  स्वरूप -
१-सभी देवों का शरीर का आकार सुंदर,अंग-उपांग अति सुन्दर,मनोहर ,समचतुर संस्थान सहित  सप्त धातुओं(रस,लहू,हड्डि,मांस,मेद,मज्जा,वीर्य,/शुक्र)पसीने आदि से रहित महा सुगंधित,भव प्रत्यय से वैक्रयिक  होता है।
२-इनके शरीर के वैक्रयिक पुद्गल परमाणुमय  है!बाल ,नाखून आदि बढ़ते नही !दाढ़ी -मूछें ,नेत्रों में पलके आदि होती नहीं है !
३- देवों के बाल्यावस्था और वृद्धावस्था नहीं होती ,अपने  जन्म से च्युत होने तक युवा ही रहते है!
४-इनके बल,वीर्य,प्रभाव,वैभव,परिवार रूप सम्पदा में हीन अधिक्ता नहीं होती सदा एक समान रहते है !
५-देवों को आहार की जब  वांछा होती हैं ,तब इनके कंठ  से अमृत झर कर इनकी तुरंत तृप्ति  हो जाती है! इनका मानसिक आहार होता है मनुष्यों की भांति कवलाहार नहीं होता है ! है की देवगति संयम नहीं हो पाता है !
६- देव गति में जीव के पहले चार गुणस्थान होते है !
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तत्वार्थ सुत्र अध्याय ४ सुत्र ३१ से ४२ तक - by scjain - 02-16-2016, 08:41 AM
RE: तत्वार्थ सुत्र अध्याय ४ सुत्र ३१ से ४२ तक - by Manish Jain - 07-15-2023, 09:35 AM

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