तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग १
#1

तत्वार्थ सूत्र(मोक्ष शास्त्र जी )  
(आचर्यश्री उमास्वामी जी रचित)
अध्याय ६- आस्रव

आस्रव-जो शरीर,वचन अथवा मन की क्रिया से आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता है उसे  योग  कहते है!योगो की प्रवृत्ति से आत्मप्रदेशों में कर्मों का आस्रव होता है,कर्मों के आत्मप्रदेशों में आगमन को आस्रव कहते है!शुभ और अशुभ योग से क्रमश; दोनों प्रकार शुभ और अशुभ कर्मों का आस्रव होता है,जिस योग की प्रधानता होती है उसके अधिक और दुसरे के कम कर्म बंधते है!हमारे आत्मप्रदेशों में ही कर्मवर्गणाये,पुद्गल वर्गणाओं रूप में रहती है,जैसे ही हम मन,वचन,अथवा काय से कोई क्रिया करते है वे कर्माणपुद्गल वर्गणाए,आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द करने से कर्म रूप बंध जाती है!यह समस्त क्रिया बंध और आस्रव है,कर्मों का आस्रव-बंध एक ही समय युगपत् होता है!
इस अध्याय में उमास्वामी आचार्यश्री २७  सूत्रों के माध्यम से तीसरे 'आस्रव' तत्व के कारणों, उस के भेद,जीवाधिकरण,अजीवाधिकरण और अष्ट कर्मों के आस्रवों के कारणों पर उपदेश देते हुए प्रथम सूत्र में योग को परिभाषित करते है-
आस्रव क्यों होता है-
कायवाड.मन:कर्मयोग: !!१!!

संधिविच्छेद:-काय+वाड.+मन:+कर्म+योग:
शब्दार्थ:-काय-शरीर,वाड.-वचन,मन:-मन की,कर्म-क्रिया,योग:-योग है!

अर्थ-काय-शरीर ,वचन और मन की क्रिया योग है
भावार्थ-शरीर,वचन अथवा मन की क्रिया से आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन(हलन-चलन,/
संकोच-विस्तार) को योग कहते है!योग के निमित्त,सामान्य से ३ और विशेष से १५  है!

 आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन काया,वचन और मन की,क्रिया से क्रमश: काययोग, वचनयोग और मनोयोग कहलाता है!
काययोग-वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से होने पर औदारिकादि;सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक वर्गणा की सहायता से जो आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन होता है,उसे काययोग कहते है !
काययोग के भेद:-सात-१-औदारिक,२-औदारिकमिश्र,३-वैक्रियिक,४-वैक्रियिकमिश्र,५-आहारक,६-आहरकमिश्र तथा ७-कार्मण काययोग!

स्पर्शन,रसना,घ्राण,चक्षु और श्रोत पंचेन्द्रियां भी काय में ही गर्भित है !
वचनयोग-वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम होने से जीव में वाग्लाबधि प्रकट होती है और वह बोलने के लिए ततपर होता है,तब वचनमर्गणा के निमित्त से जो आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन होता है उसे वचन योग कहते है !
वचनयोग के भेद:-चार;

१-सत्यवचनयोग- वचनों में सत्यत्व हो,२-असत्यवचनयोग-वचनों में असत्यत्व हो,३-उभयवचनयोग-वचनों में सत्यत्व और असत्यत्व  दोनों हो ,तथा४- अनुभयवचनयोग-वचनों में सत्यत्व  और असत्यत्व दोनों ही नही हो  और
मनोयोग वीर्यान्तरायकर्म और नो इन्द्रयावरणकर्म के क्षयोपशम से मनोलब्धि के होने पर तथा मनो वर्गणा के आलंबन के निमित्त से,जीव के चिंतन के लिए ततपर,आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता है,वह मनोयोग कहलाता है
मनोयोग के भेद:-चार;

१-सत्यमनोयोग-मन में सत्यत्व ,२-असत्यमनोयोग -होमन में असत्यत्व हो,३-उभयमनोयोग-मन में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों हो ,४-अनुभयमनोयोग-मन में  सत्यत्व  और असत्यत्व   दोनों ही नही हो  इस प्रकार तीनो;,काय,वचन और मन,योगो के कुल १५ उत्तर भेद है!
विशेष 

१-वर्तमान में हमारे चारों मनोयोग,चारों वचनयोग और औदारिक काययोग,कुल ९ में से,एक समय में एक ही योग हो सकता है!हमें भ्रान्ति हो सकती है कि जब हम चलते है,उसी समय बोलते भी है,   उसी समय चिंतवन भी करते है,किन्तु वास्तव में ऐसा होना असंभव है!जब मनोयोग,वचनयोग अथवा काययोग का कोई भी एक भेद हो रहा हो तब योग का अन्य कोई भेद नहीं हो सकता!आत्मा का उपयोग जिस ऒर होता है,वही योग होता है अन्य नहीं! जब हम सोचते है,उस समय मनोयोग ही होता है चाहे हम संस्कार वश उसी समय शरीर से भाग भी रहे हो,किन्तु आत्मा का उपयोग उस ऒर नहीं हो रहा होता है, अत: उस समय काययोग नहीं होता है!जब हम टी.वी पर कोई कार्यक्रम देखते है,उस समय हमें चक्षुइंद्री से देखने और कर्ण इंद्री से सुनने की अनुभूति एक साथ होती है किन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं है क्योकि एक समय में हम आत्मा का उपयोग एक ही ऒर लगा सकते है!इस का प्रमाण है कि हम टी.वी.पर प्रवचन सुनते समय उसको निर्विघ्न काय (हाथ)से साथ-साथ लिख नहीं पाते है!
२-केवली भगवन के दो वचन योग:-१-सत्यवचनयोग-वचन सत्य होने के कारण,२-अनुभय वचन योग:-भाषा अनुभय होने के कारण तथा दो मनो योग:-१ सत्यमनोयोग-सत्य वचन बोलने से पहले जो मन का उपयोग सत्य बोलने के लिए हुआ,उस कारण और,२-अनुभय मनोयोग-अनुभय वचन होने के कारण!उनके तीन काययोग होते है!सामान्य से जब वे समवशरण में विराजमान रहते है अथवा विहार करते है तब उनका औदारिक काययोग होता है!उनका दंड-समुदघात में औदारिककाययोग,कपाट समुद घात में औदारिकमिश्र काययोग और प्रतर व लोकपूर्ण समुद्घात में कार्माण काय योग होता है।
विशेष-वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षय होने पर सयोगकेवली के तीन;वर्गणाओं; काय, वचन और मन  की अपेक्षा जो आत्म प्रदेश में परिस्पंदन होता है वह कर्म क्षय निमित्तक योग है !जो की १३ वे गुणस्थान तक ही रहता है आयोग केवली के तीनों वर्गणाओं का आगमन रुक जाता है!जिससे वहां योग का अभाव हो जाता है !

३- योग के आठ अंग -
१-यम :-अहिंसा,सत्य ,अस्तेय ,ब्रह्मचर्य व  अपरिग्रह रूप मन वचन काय का संयम यम है !
२-नियम:-शौच ,संतोष,तपस्या। स्वाध्याय,व् ईश्वर प्रणिधान ये नियम है !
३-आसान:-पद्मासन ,वीरासन ,आसान है 
४-प्राणायाम -श्वासोच्छ्वास का गति निरोधप्राणायाम है !
५-प्रत्याहार-इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना प्रत्याहार है !
६-धारणा -विकल्पपूर्वक किसी एक काल्पनिक ध्येय में चित्त को नष्ट करना धारणा है 
७-ध्यान-ध्यान,ध्याता व् ध्येय  को एकाग्र प्रवाह ध्यान है !
८-समाधि-ध्यान,ध्याता व ध्येय रहित निवृत्त चित्त समाधि है !
चित्त (मन )की पांच अवस्थाये-
१-क्षिप्तचित्त-चित्त का संसारी विषयो में भटकना !
२-मूढ़चित्त-चित्त का निंद्रा आदि में  रहना !
३-विक्षिप्तचित्त-सफलता-असफलता के झूले में झूलना !
४-एकाग्रचित्त-एक ही विषय में केंद्रित रहना !
५-निरुद्धचित्त-समस्त प्रवृत्तियों का रुक जाना !,
४-५ वी अवस्थाये योग के लिए उपयोगी है !
चित्त (मन) के रूप -
१-प्रख्या-अणिमा आदि ऋद्धियों की अनुरक्ति/प्रेमी प्रख्या है 
२-प्रवृत्ति-विवेक बुद्धि के जागृत होने पर चित्त धर्ममेय समाधि में स्थित हो जाता है तब पुरुष का बिम्ब चित्त पर पड़ता है और चेतनवत् कार्य करने लगता है!यही चित्त की प्रवृत्ति है !
९-३-१६ 
स आस्रव: -२
संधि विच्छेद-स+आस्रव:
शब्दार्थ- स=वह (योग जो पिछले सूत्र में कहा है), आस्रव:-आस्रव है!
अर्थ वह तीन प्रकार का योग ही आस्रव है
भावार्थ-त्रियोगों;मन,वचन और काय के द्वारा आत्माप्रदेशों में परिस्पंदन अर्थात योग ही पुद्गलकर्म वर्गणाओ का आत्मा की ऒर आने का कारण,आस्रव है!

विशेष-
१-कर्मों के आत्मा में आने के द्वार को आस्रव १५ भेद वाला  योग है!कार्मणवर्गणाओ का कर्म रूप परिणमन आस्रव है!
२-जीव निरंतर मन,वचन,काय त्रियोगों में सोते-जागते प्रतिसमय प्रवृत्त रहता है,इसीलिए उसके प्रतिसमय कर्मों का आस्रव होता है यहाँ तक की जब आत्मा वर्तमान एक शरीर को त्याग कर विग्रह्गति में दुसरे भव के शरीर को धारण करने के लिए गमन करते समय भी उसमे क्रिया होती है,कर्मो का आस्रव होता है!
३-१३वे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के भी कर्मो का आस्रव होता है!
४--जिस प्रकार कुए के भीतर पानी आने में झिरे कारण है उसी प्रकार आत्मा के कर्म आने में योग कारण है!यद्यपि योग आस्रव में कारण है तथापि सूत्र में कारण में कार्य का उपचार कर उसे ही आस्रव कह दिया है!जैसे प्राणों की स्थिति में कारण अन्न को ही प्राण कह देते है!
आस्रव का स्वरुप -
शुभ:पुण्यस्याशुभ:पापस्य: ३

संधि-विच्छेद-शुभ:+पुण्यस्य+अशुभ:+पापस्य:
शब्दार्थ-शुभ:-शुभ(योग),पुण्यस्य-पुण्यकर्म और अशुभ:-अशुभ(योग),पापस्य-पापकर्म आस्रव है
अर्थ-शुभयोग पुण्यकर्म और अशुभयोग पापकर्म के आस्रव का कारण है
भावार्थ-शुभयोग-शुभ;मन वचन काय की प्रवृत्तियां(क्रियाये) जैसे;पूजा,पाठ,स्वाध्याय,धर्म ध्यानादि शुभ/पुण्यकर्मो का और अशुभयोग-अशुभ;मन;वचन,काय की प्रवृत्ति(क्रियाये) जैसे;सांसारिक राग-द्वेष, पंच पापों में लिप्ता आदि अशुभकर्मों-पापकर्मों का आस्रव होता है!
विशेष-१-जब हम धार्मिक कार्यो में प्रवृत्त रहते है उस समय हमें शुभ-पुण्यकर्मो का आस्रव तभी होगा जब हमारा अभिप्राय,पूजा की क्रिया विधि,और परिणाम दोनों ठीक होंगे अन्यथा अशुभ पाप कर्मों का ही आस्रव होता है!
अभिप्राय-मान लीजिये पूजा-पाठ आदि करने के पीछे हमारा अभिप्राय,सांसारिक सुखों की पूर्ती की इच्छाए है तब हमें कर्मों का पुण्यास्रव नहीं होगा,पापास्रव ही होगा क्योकि हम संसार से मुक्त होने की इच्छा नहीं रख रहे है!
शंका-१  अपने समय का श्रावक सदुपयोग कैसे करे?
समाधान-मन,वचन और काय की प्रवृत्ति अशुभ विकल्प रहित होंगी तब पुण्यास्रव होगा   अन्यथापापास्रव होगा!आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी के अनुसार हमें अपने समय;२४ घंटो को ८-८ घंटे के ३ भागों में ,
 विभक्त करना चाहिए!प्रत्येक ८-८  घंटे; धार्मिककार्यो,व्यावसायिक कार्यों और काम अर्थात शरीर के लिए रखने चाहिये!
शंका:-२ शुभकर्म के आस्रव का कारण शुभयोग और अशुभकर्म के आस्रव का कारण अशुभयोग है,यदि ऐसा लक्षण कह दिया जाये तो क्या हानि है? 
समाधान-यदि ऐसा लक्षण कह दिया जाए तो शुभ का अभाव हो जाएगा क्योकि आगमानुसार जीव के आयुकर्म के अतिरिक्त,सातों कर्मों का आस्रव प्रतिसमय होता है,अत: शुभयोग में भी ज्ञानावरण आदि पापकर्मों का आस्रव/बंध होता है,इसलिए उक्त कथन आगम विरुद्ध है !
शंका-३ जब शुभयोग से भी घातिया कर्मों का बंध होता है तो सूत्र में क्यों कहा है की शुभयोग से पुण्यकर्म का आस्रव/बंध  होता है?
समाधान-
घातियाकर्मों की अपेक्षा से नहीं,अघातिया(वेदनीय,आयु,नाम और गोत्र) कर्मों की अपेक्षा से कहा गया है!अघातिया कर्मों के पुण्य और पाप दो भेद होते है!शुभयोग से पुण्यकर्म का और अशुभयोग से पापकर्म का आस्रव होता है!शुभयोग रहते हुए भी घातिया कर्मों का अस्तित्व रहता है,उनका उदय भी रहता है और उसी से घातिया कर्म का बंध भी होता है !

१०-३-१६

साम्परायिक आस्रव के स्वामी की अपेक्षा दो भेद:-
सकषायाकषाययो:साम्परायिकेर्यापथयो:!४!

संधिविच्छेद-सकषाय+अकषाययो:+साम्परायिक:+ईर्यापथयो:
शब्दार्थ-सकषाय-कषायसहित और अकषाययो-कषायरहित जीवों के क्रमश: साम्परायिक-साम्परायिक आस्रव(कर्मो का आत्मा के पास आकर रुकना) और ईर्यापथयो-ईर्यापथ आस्रव (कर्मों का आत्मा के पास आकर नहीं रुकना अर्थात बिना रुके चले जाना) कहलाता है!
अर्थ-चार कषायों(क्रोध,मान,माया और लोभ) सहित जीवों के साम्परायिक और कषाय रहित जीवों के ईर्यापथ आस्रव होता है
भावार्थ-कषाय सहित जीवों के १० वे गुणस्थान तक साम्परायिक आस्रव होता है क्योकि कषाय १०वे गुणस्थान के बाद नहीं रहती!
ईर्यापथ आस्रव-स्थिति और अनुभाग रहित कर्मों के आस्रव को ईर्यापथ आस्रव कहते है इस में, कर्म की स्थित १ समय की भी नहीं होती,वे आकर चले जाते है,क्योकि कषाय के अभाव में उन्हे बंधने का अवसर नहीं मिलता!कषाय रहित जीवों के केवल,योग के (सद्भाव में)कारण ११,१२,१३ वे गुणस्थान में ईर्यापथ आस्रव होता है,१४ वे गुणस्थान में योग के अभाव में वह भी नही रहता !
साम्परायिक आस्रव के भेद-


इन्द्रियकषायाव्रतक्रिया:पञ्चचतु:पञ्चपञ्चविंशतिसंख्या:पूर्वस्यभेदा:!५!संधिविच्छेद:-इन्द्रिय+कषाय+अव्रत+क्रिया:+पञ्च+चतु:+पञ्च+पञ्चविंशति+संख्या:+पूर्वस्य+भेदा:
शब्दार्थ-इन्द्रिय-इन्द्रिय,कषाय-कषाय,अव्रत-पाप,क्रिया:-क्रिया के क्रमश: ,पञ्च-पांच,चतु:-चार,पञ्च-पाच, और पञ्चविंशति-पच्चीस,संख्या:-भेद,पूर्वस्य-उप्र के सूत्र में पहले वाले/साम्परायिक आस्रव,भेदा:-भेद है!
अर्थ-पूर्वसूत्र में पहिले,साम्परायिक आस्रवके इन्द्रिय,कषाय,पापो,क्रिया की अपेक्षा क्रमश:५,४,५,२५ भेद है
भावार्थ-साम्परायिक आस्रव के ३९;पञ्चइन्द्रिय 
विषयों(स्पर्श,रसना,घ्रण,चक्षु और कर्ण)-,४ कषायों (क्रोध,मान,माया और लोभ),५-पापो(हिंसा,चोरी,झूठ,कुशील और परिग्रह)और २५ क्रियाये,भेद है!
विशेष-
१-जीव के ३ योगो;मन,वचन,काय से ५-इन्द्रिय विषयों में,४-कषाय;क्रोध,मान,माया लोभ ,५-पापों; हिंसा, झूठ, चोरी,कुशील,परिग्रह  तथा २५-क्रियाओं रूप प्रवृत्ति होने(विशेषत:सम्यक्त्व और मिथ्यात्व क्रिया) से,साम्परायिक आस्रव होता है!
सम्यक्त्व क्रिया-
सम्यक्त्व की वृद्धि करने वाली क्रिया अर्थात सच्चे देव,शास्त्र, गुरुकी भक्ति आदि करना,सम्यक्त्व क्रिया है !
सच्चेदेव-
वीतराग,हितोपदेशी,सर्वज्ञ,सच्चे देव है!
सच्चे शास्त्र-“भव्य जिन(जिनेन्द्र देव) की वाणी” है,जिनवाणी सच्चे शास्त्र है!
सच्चे गुरु-२८ मूलगुण धारी निर्ग्रन्थ गुरु सच्चे गुरु है! एक भी मूल गुण कम होने पर वे सच्चे गुरु की कोटि में नहीं आते है!
 
साम्प्रायिक आस्रव के होने में कारण २५-क्रियाये -
१-सम्यक्त्व-सम्यक्त्व की अभिवृद्धि करने वाली देव,शास्त्र,गुरु की पूजन आदि क्रियाये है!
इन की वृद्धि हेतु सच्चे,देव,शास्त्र,गुरु के स्वरुप को समझकर उनकी पूजा,भक्ति, अराधना, मनोयोग से करनी चाहिए!इसी से सम्यगदर्शन,सम्यग्ज्ञान,सम्यक्चरित्र  प्राप्त हो सकता है!
 हमारे अराध्य मात्र ९;देव,पंच परमेष्ठी,जिनवाणी,जिनधर्म,जिनचैत्यालय और जिनबिम्ब है!इनके अतिरिक्त अन्य देवी-देवता हमारे अराध्य/पूजनीय नहीं है!इनसे बचते हुए सम्यक्त्व में वृद्धि करनी चाहिए!अन्यथा दर्शनमोहनीय कर्म का बंध पुष्ट होगा!इस मनुष्य पर्याय का भरतक्षेत्र में जन्म लेने के लाभ से वंचित रह जायेगे!हमारी मनुष्यपर्याय,जिसमे अपना कल्याण कर सकते है,व्यर्थ जायेगी !सम्यक्त्व क्रियाये पुण्य के बंध और संसार से मुक्ती का कारण है,मिथ्यात्व क्रियाये घोर पापबंध और संसार का कारण है!

२-मिथ्यात्वक्रियाये-सम्यक्त्व क्रिया के विपरीत,मिथ्यातव  वृद्धि हेतु  सच्चे,देव,शास्त्र, निर्ग्रन्थ गुरु, जिनवाणीआदि के अतिरिक्तअन्य;देव शास्त्र गुरु,धर्म,भक्ति,सेवामें अनुरक्त रहना मिथ्यात्व क्रियाये है!
आज हम जैन लोग,नवरात्रि पूजा करने लगे है जिसका जैन शास्त्रों में कोई विधान नहीं है,नवग्रह विधान में लग रहे है,ये नवगृह हमारा कुछ भी अच्छा-बुरा नहीं कर सकते!ये क्रियाये आगमविरुद्ध है!जैनी शनि अमावस्या मनाने लगे है,सभी देवी-देवताओं के मंदिर बनने लगे है,नवग्रह अष्ट निवारक मंदिर बनने लगे है,शनि वार को मुनिसुव्रत भगवान् की पूजा,शनि गृह के प्रकोप के निवारण हेतु करने लगे है,यह धारणा बिलकुल आगम विरुद्ध है!समस्त सिद्ध भगवानो की क्षमता में  मात्र  भी अंतर नहीं है!मिथ्यात्व और कुदेव,कुशास्त्रों,कुगुरू के चक्कर में पड़कर हम आज अपना वर्तमान जीवन और परलोक भी नष्ट कर रहे है! हमें सन्मार्ग दिखाने वाले गुरु भी आज हमें मिथ्यात्व की ऒर ले जाने लगे है!वे कहने लगे नवग्रह,देवी,देवताओं की पूजा करो!ये सब मिथ्यात्व क्रिया है!आज बहुत सी जैन महिलाए करवा चौथ का व्रत,अन्य धर्मों के अनुसरण में रखने लगी है,जिसका विधान जैनागम में नहीं है!अन्य धर्मो के त्योहारों को हम मानने लगे है,ये सब क्रियाये मिथ्यात्व की वृद्धि है,जिनसे बच कर हमें अपने धर्म के प्रति श्रद्धा प्रगाढ़ करनी चाहिए!इनसे बचे क्योकि पञ्च इन्द्रियों के विषयों में,चार कषायों,पञ्च अव्रत व २५ क्रियाओं में यदि हम अपना उपयोग लगा रहे है,तब साम्परायिक आस्रव होगा
३-प्रयोग क्रिया-शरीर आदि से गमनागमन रूप प्रवृत्ति,प्रयोग क्रिया है!
४-समादान क्रिया-संयमी का असंयम की ओर अभिमुख होना,समादान क्रिया है!
५-ईर्यापथ क्रिया-ईर्यापथ गमन हेतु क्रिया ईर्यापथ गमन क्रिया है!
६-प्रदोषिक क्रिया-क्रोध के आवेश में होने वाली द्वेषादिक रूप क्रिया,प्रदोषिक क्रिया है!
७-कायिकी क्रिया-मारना,गाली देना,आदि दुष्टता पूर्ण क्रियाये कायिकी क्रिया है !
८-आधिकारणि क्रिया-हिंसादि के उपकरण तलवार,पिस्टल,बंदूकआदि ग्रहण करना,आधिकारणि क्रिया है
९-परितापि की क्रिया-प्राणियों को दुखी करने वाली क्रियाएँ,परितापिकी क्रिया है !
१०-प्राणातिपाती की क्रिया-दुसरे जीव के शरीर,इन्द्रिय आदि प्राणों का ही घात करना,प्राणातिपाती की क्रिया है !
११-दर्शन क्रिया-राग के वशीभूत होकर मनोहर देखना,दर्शन क्रिया है!
१२-स्पर्शन क्रिया-रागवश किसी वस्तु को स्पर्श करना,स्पर्शन क्रिया है! 
१३-प्रात्ययिकी क्रिया-विषयों की नयी नयी वस्तुओं को एकत्र करना,प्रात्ययिकी क्रिया है!
१४-समन्तानुपात क्रिया-स्त्रीपुरुष, के सोने/बैठने के स्थान पर मलमूत्र आदि क्षेपण करना,समन्तानुपात क्रिया है !
१५-अनाभोग क्रिया-बिना देखी,बिना शोधी जमीन पर उठने बैठने को अनाभोग क्रिया कहते है !
१६-स्वहस्त क्रिया -दुसरे के योग्य कार्य स्वयं करना स्वहस्त क्रिया है!
१७-निसर्ग क्रिया-पाप की कारण प्रवृत्ति को भला समझने को निसर्ग क्रिया कहते है!
१८-विदारण क्रिया-पर द्वारा किये गए पापों को प्रकाशित करने को विदारण क्रिया कहते है !
१९-आज्ञाव्यापादिकी क्रिया-चारित्रमोहनीय के उदय से शास्त्रोक्त आवश्यकादि क्रियाओं के करने में असमर्थ होने पर उनका अन्यथा निरूपण करना, आज्ञाव्यापादिकी क्रिया कहते  है !
२०-अनाकांक्षा क्रिया-प्रमाद/अज्ञान वश,आगमोक्त क्रियाओं में अनादर करना अनाकांक्षा क्रिया है ! 
२१-आरंभिकी क्रिया -छेदन भेदनादि क्रियाओं में स्वयं प्रवृत्त होना,अन्यों को प्रवृत्त होता देख प्रसन्न होना आरंभिकी क्रिया है !
२२-परिग्रहिकीक्रिया-परिग्रहों की रक्षा में लगे रहना परिग्रहिकी क्रिया है !
२३-माया क्रिया-ज्ञान दर्शन में कपट रूप प्रवृत्ति करना माया क्रिया है !
२४-मिथ्यादर्शन क्रिया-मिथ्यात्व रूप परिणीति मे,किसी को मिथ्यात्व की प्रशंसा कर,दृढ करना मिथ्यादर्शन क्रिया है !
२५-अप्रत्याख्यान क्रिया-चारित्र मोहनीय के उदय से त्याज्य वस्तुओं में त्याग रूप प्रवृत्ति नहीं होना,अप्रत्याख्यान क्रिया है!
१२-३-१६ 
शंका-सभी आत्माओं के तीनो;मन,वचन और काय योग कार्य है,अत:सब  सैनी पंचेन्द्रिय संसारी जीव के समान रूप से प्राप्त होने के कारण;सभी को कर्म बंध के फल का अनुभव एक समान होना चाहिए !
समाधान-सब को एक समान कर्मबंध का फल नहीं मिलता क्योकि यद्यपि योग सभी सैनी पंचेन्द्रिय आत्मा  के होते है  किन्तु जीवों के परिणामों में तीव्रता /मन्दता अनन्त भेदों  सहित   होती है !इसलिए कर्म के फलों में भिन्नता आ जाती है! आचार्य श्री ने इसे  निम्न सूत्र द्वारा स्पष्ट किया है
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