तत्वार्थ सूत्र अध्याय ५ भाग ४
#1

पद्गल स्कंधों की उत्पत्ति - 
भेदसंघातेभ्यउत्पद्यन्ते !!२६!! 
संधि विच्छेद-भेद+संघातेभ्य+उत्पद्यन्ते 
शब्दार्थ-
उत्पद्यन्ते-(पुद्गल स्कंधों की) उत्पत्ति, भे-टुकड़े करने से,संघातेभ्य-जुड़ने/मिलने से और भेद-संघात दोनों से अर्थात तोड़ने व जोड़ने से होती है
भावार्थ-एक दृष्टान्त से इस सूत्र को समझते है-
घरों में गेहूं पीसकर,अर्थात गेहू को भेद कर आटा बनाया गया!
फिर आटे में पानी मिला कर उसका मोटा स्कन्ध बनाया जाता है,यह संघात हुआ,
फिर इसमें से छोटी-छोटी आटे की लोई लेकर उस पर सुखा आटा मिलकर रोटी बेलकर रोटी बनाई जाती है,यह भेद और संघात दोनों का उद्धारहण है!
विशेष-१-स्कन्धों के टूटने/विघटन को भेद और भिन्न भिन्न परमाणुओं/स्कन्धौ के मिलने को संघात कहते है स्कन्धौ की उत्पत्ति,भेद संघात और दोनों अर्थात स्कन्धौ के भेद और संघात से  होती  है !यह तीसरा; भेद और संघात दोनों,सूत्र में बहुवचन होने से निकलता है !


 इसी सूत्र को वैज्ञानिक एवं जैन दर्शन के तुलनात्मक दृष्टिकोण से,कुछ रासायनिक क्रियाऔ के  दृष्टान्तों द्वारा समझते है-
आचार्य उमास्वामी जी ने स्पष्ट कहा है कि "-भेद संघातेभ्य उत्पद्यन्ते!!" 
तीन प्रक्रियाओं से स्कन्धोत्पत्ति होती है- 
१-कुछ स्कन्धों की केवल स्कंध के भेद-विघटन से
 ,
२-कुछ स्कन्धो की दो या अधिक स्कन्धों के परस्पर संघात-संयोजन से और 
३-कुछ स्कन्धौ की दो या अधिक स्कन्धों के परस्पर एक साथ भेद-विघटन और संघात-संयोजन से,  उत्पत्ति होती है!
रसायन विज्ञान में भेद से स्कन्धौ की उत्पत्ति के कुछ दृष्टांत-
1-K SO Al (SO4)]. 24H 0 ----९२ डिग्रीसेंटीग्रेड  --K 0     +Al 0       +SO  +24H 0

   2  4  2      3     2                      2          2           3      2  
             फिटकरी                        पोटेशियम अल्युमिनियम  सल्फर ट्राई  पानी 
                                            आक्साइड   आक्साइड    आक्साइड     
रेडियो सक्रिय (Radio  Active) तत्वों में विघटन में भेद प्रक्रिया द्वारा स्कंध उत्पत्ति -
 एक रेडियो सक्रिय तत्व द्वारा अल्फा,बीटा,गामा कणों का उत्सर्जन उसका विघटन (भेद) कहलाता है! रेडियो  सक्रिय(Radio Active) तत्वों को जैनाचार्यों की भाषा में पुद्गलस्कंध है,विघटित हो कर नया तत्व (नयास्कंध) उतपन्न होता है, जो स्वत: विघटित होकर एक और नया तत्व /स्कंध उतपन्न करता है!इस प्रकार विघटन एवं दुहिता तत्व (daughter element )की उत्पत्ति का अनवरत क्रम तब चलता है जब तक अन्य उत्पाद के रूप से रेडिओ सक्रियाता  हीन तत्व उतपन्न होता है !
स्कन्धोत्पत्ति की प्रक्रिया जैन दर्शनानुसार
संघात द्वारा स्कंधोत्पत्ति -
रसायनविज्ञान में स्कन्धोत्पत्ति की क्रिया संघात द्वारा भी देखी जाती है!इस प्रक्रिया को सह-संयोज नबंध के रूप में समझ सकते है !
सहसंयोजी बंध में,अणु निर्माण में भाग ले रहे परमाणुओं के मध्य इलेक्ट्रान की साझेदारी से जो बंध बंधता है उसे सहसंयोजी बंध एवं निर्मित यौगिक को सहसंयोजी यौगिक (स्कंध) कहा जाता है !
1-  H*-H                 =H
                             2 
 २ हाइड्रोजन              हाइड्रोजन गैस
     परमाणु

2-  Cl      +  H  --- सूर्य का प्रकाश ---   =  2 HCl 
     2          2  
क्लोरीन   हाइड्रोजन                     हाइड्रोजन  क्लोराइड
भेद-संघात द्वारा स्कन्धोत्पत्ति -
भेद (विघटन)संघात (संयोजन) से होने वाली स्कन्धोत्पत्ति को रसायन विज्ञान में मान्य विद्युत संयोजी बंध (electro valent bond) से तुलना कर  सकते है !
स्कंध निर्माण की इस प्रक्रिया में,विज्ञान द्वारा मान्य परमाणुओ में से सर्वप्रथम एक परमाणु, एक या एक से अधिक इलेक्ट्रान त्यागता है!इलेक्ट्रान त्याग की इस क्रिया को 'भेद' (विघटन ) कहते है !तदोपरांत इस त्यागे हुए इलेक्ट्रान को दूसरा परमाणु ग्रहण करता है! प्रथम परमाणु जिसने इलेक्ट्रान त्यागा है वह धनावेशित और इलेक्ट्रान ग्रहण करने वाला परमाणु ऋणावेशित हो जाता है !अंत में विपरीत आवेश से आवेशित ये दोनो  परमाणु विद्युत बल रेखाओं से जुड़ जाते है!संयोग की इस क्रिया को 'संघात'-संयोजन कहते है!इस प्रकार भेद संघात की प्रक्रिया,विद्युत संयोजी बंध (electro valent bond) द्वारा स्कंध (वैज्ञानिक अणु -molecule) का निर्माण होता है !इस प्रक्रिया को रसायन विज्ञान की निम्न रासायनिक समीकरणों से समझते है !
१-  सोडियम परमाणु     क्लोरीन परमाणु 
           Na                        Cl      (भेद)
     - 1 इलेक्ट्रान                + 1 इलेक्ट्रान  
           Na+                      Cl-              =  संघात      NaCl
       सोडियम आयन              क्लोरीन आयन      सोडियम क्लोराइड (नमक )
 उक्त दृष्टान्त में सोडियम परमाणु ने १ इलेक्ट्रान का त्याग कर क्लोरीन के एक परमाणु ने उस एक इलेक्ट्रान को ग्रहण किया जिसके फलस्वरूप सोडियम का परमाणु धनात्मक आवेश से और क्लोरीन का परमाणु ऋणात्मक आवेश से आवेशित हो गया!सोडियम और क्लोरीन के एक -एक परमाणुओ  का  विपरीत विद्युत आवेश से आवेशित होने के कारण वे आयनिक अवस्था में आ गए और उनके बीच विद्युत बल रेखाओं के उत्पन्न होने के कारण वे परस्पर  जुड़कर सोडियम क्लोराइड (नमक) के अणु (वैज्ञानिक)/स्कंध (दर्शनानुसार) का निर्माण करते है !यह जैन दर्शना नुसार भेद संघात द्वारा स्कंध के निर्माण का दृष्टांत है !
परमाणु की उत्पत्ति का कारण

भेदादणु:-२७
संधि विच्छेद-भेदा +अणु:
शब्दार्थ-भेदा-भेद अर्थात विघटन से ही,अणु:-अणु की उत्पत्ति होती है   
अर्थ- अणु की उत्पत्ति स्कन्धों के भेदने (टूटने-विघटन) से ही होती है!
भावार्थ-अणु, पुद्गल द्रव्य की स्वाभाविक अवस्था है,जिसके आगे उसको विभाजित नहीं करा जा सकता ,मात्र पुद्गल स्कन्ध के भेद से अणु की उत्पत्ति होती है,संघात से नहीं होती!
विशेष-उक्त सूत्र के माध्यम से आचर्यश्री उमास्वामी जी कहते है कि  अणु/परमाणु की उत्पत्ति मात्र भेद क्रिया अर्थात विघटन से ही होती है,न की संघात अथवा भेद संघात क्रिया से !\जैन दर्शन के अनुसार अणु /परमाणु पुद्गल का अविभाज्य सूक्ष्मत्व अंश है जो आगे भेदा नहीं जा सकता !इससे यह भी स्पष्ट होता है कि प्रकृति में परमाणु का स्वतत्र अस्तित्व नहीं है किन्तु उसका अनुभव उसके स्कन्धौ के अस्तित्व द्वारा किया जा सकता है!इसीलिए अणु/परमाणु  केवली ,(absolute knowledgeable) का विषय है !


चाक्षुष स्कंध की उत्पत्ति का कारण -
भेदसंघाताभ्यं चाक्षुषः-२८
संधिविच्छेद-भेदसंघाताभ्यं+चाक्षुषः

शब्दार्थ-भेद=तोड़ने/विघटन और संघात=जोड़ने से,चक्षु इन्द्रिय से,अदृश्य गोचर स्कन्ध, दृष्टिगोचर स्कन्ध की उत्पत्ति होती है केवल भेदन से नही !
भावार्थ-चक्षुइंद्री से दृष्टिगोचर स्कंध केवल भेद-संघात की युगपत क्रिया से उत्पन्न होते है,केवल भेद से नही  !
उद्धाहरण से इस सूत्र को समझ सकते है-
१-गर्मियों में हमारे हाथों में मैल हो जाता है जो पहले नेत्रों से नहीं दिखता किन्तु जब दुसरे हाथ से उसे रगड़ते है,अभी तक जो मैल के स्कन्ध खाल के अन्दर जमे होने के कारण दिखाई नहीं दे रहे थे,तो उन स्कन्धो का खाल के अन्दर से तो भेद हुआ और खाल के ऊपर आ कर वे जुड़ने (संघात) के कारण मैल की बत्ती दिखने लगती है! यह मैल का स्कन्ध हमें खाल के अन्दर भेद कर ऊपर संघात के कारण दृष्टिगोचर होने लगा!

२-मेज के ऊपर धुल फ़ैली होने के कारण नेत्रों को दिखाई नहीं देती किन्तु मेज पर हाथ से समेटने पर वह एकत्र (संघात) हो कर दिखने लगती  है!

विशेष-श्लोकवार्तिककार ने, विशेष बात भी लिखी,उन्होंने लिखा की चाक्षुषः से तात्पर्य मात्र  दिखने वाला स्कन्ध नहीं अपितु जो स्कन्ध अभी तक छूने में नहीं आ रहा था,वह भेद और संघात से छूने वाला हो गया!जो स्कन्ध अभी तक सूंघने में नहीं आ रहा था वह भी भेद और संघात से सूंघने में आने लगा! जो चखने में नहीं आ रहा था वह भेद संघात से चखने योग्य हो जाता है!अर्थात पाचों इन्द्रियों के विषय,भेद और संघात से,जो पंचेंद्रियो के विषय अभी तक भोग्य नहीं थे वे भोगने योग्य हो जाते है!
इसी सूत्र को निम्न वैज्ञानिक रासायनिक क्रिया को जैन दर्शन से तुलनात्मक अध्ययन द्वारा समझ सकते है -
भेद संघताभ्यां चाक्षुष:
उक्त सूत्र में आचार्य उमास्वामी जी कह रहे है कि भेद संघताभ्यां -भेद और संघात (संयोजनी) प्रक्रिया द्वारा ही,चाक्षुष:-नेत्रों को दृष्टि गोचर स्कन्धौ (वैज्ञानिक Molecule) की उत्पत्ति होती है !केवल भेद से नहीं!आशय है कि अनन्त परमाणुओ का स्कंध होने पर ही कोई स्कंध चक्षु इन्द्रियों द्वारा देखने योग्य नहीं होता है!उसमे भी कोई दिखाई देने तथा कोई नहीं दिखाई देने योग्य होता है !अब प्रश्न उठता है की जो दिखता नहीं वह कैसे दिख सकता है?
इसी के समाधान के लिए उक्त सूत्र कहता है कि केवल भेद से ही कोई स्कंध चक्षु इंद्री द्वारा देखने योग्य नहीं होता बल्कि भेद और संघात दोनों की युगपत प्रक्रिया से होता है!

उद्धाहरण के लिए एक चक्षुइन्द्रिय अगोचर सूक्ष्मस्कंध के भेदन से चक्षु इन्द्रिय अगोचर सूक्ष्म स्कंध ही निर्मित होते है!किन्तु जब वह सूक्ष्म स्कंध किसी अन्य स्कंध से संघात द्वारा संयोग होने पर सूक्ष्मत्व त्याग कर स्थूलत्व ग्रहण करता है तभी चक्षु इन्द्रिय से दृष्टिगोचर होता है !
वैज्ञानिक विश्लेषण :-
भेद-संघात अर्थात विद्युत संयोजनी बंध द्वारा निर्मित अणु (स्कंध) ठोस होते है अत: चाक्षुष,(नेत्र) इन्द्रिय द्वारा दृष्टिगोचर होते है क्योकि इस प्रक्रिया द्वारा निर्मित
अणु ध्रुवीय होते है जिस कारण अनंत अणु एक दुसरे से आवेशित आयनो की ओर विद्युत बल रेखाओ द्वारा जुडते चले जाते है फलत: चाक्षुष स्कंध का निर्माण करते है !
जैसे नमक(NaCl),शोरा,नौसादर,फिटकरी,नीलाथोथा,हराकसीस आदि के भेद संघात प्रक्रिया द्वारा अचाक्षुष स्कंध बन जाते है !
+NaCl- +NaCl- विद्युत बल रेखाएं --------& gt; NaCl-+NaCl-
इसी आधार पर वैद्युत संयोजी यौगिकों (स्कन्धों ) के विलयन होने वाली आयनिक क्रियाओं समझा जा सकता है !
स्कन्धों का अचाक्षुष जलीय विलयन; भेद संघात क्रिया द्वारा बने चाक्षुष स्कंध-
१- +NaCl- + AgNO भेद --& gt;+Na + Cl- + +Ag +NO- --& gt; संघात AgCl +NaNO
                  3                                 3                          3
सोडियम क्लोराइड सिल्वर नाइट्रेट सोडियम क्लोरीन सिल्वर नाइट्रेट सिल्वरक्लोराइड सोडियमनाइट्रेट
(अचक्षुष) (अचक्षुष) (अचक्षुष) (अचक्षुष) (अचक्षुष)(अचक्षुष) (चक्षुष,सफ़ेद रंग ) (अचक्षुष)
salution salution आयन आयन अयन आयन precipitate solution 

२- PbCl + KCrO भेद ---->Pb+  +2Cl - +2K+  +CrO- संघात >PbCrO +2 KCl
       2       4                                    
4                4
लेडक्लोराइड पोटॅशियमक्रोमेट     लेड   क्लोराइड पोटेशियम क्रोमेट   लेडक्रोमेट पोटेशियमक्लोराइड
(अचक्षुष) (अचक्षुष) (अचक्षुष ) (अचक्षुष) (अचक्षुष) (अचक्षुष) ( चक्षुष)पीला
salution salution आयन आयन आयन आयन precipitate solution

सद्द्रव्यलक्षणम् -२९
संधि-विच्छेद:- सत्+द्रव्य+लक्षणम्
शब्दार्थ-सत्-सत्य(नित्यता) अस्तित्व,द्रव्य-द्रव्य का,लक्षणम्-लक्षण है!
भावार्थ-द्रव्य सदैव(सत्ता) अस्तित्व में रहता है,अविनाशी है !
उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ३० 
संधिविच्छेद:-उत्पाद+व्यय+ध्रौव्य+युक्तं+सत्
शब्दार्थ-त्पाद-नवीन पर्याय की उत्पत्ति,व्यय-पुरानी पर्याय का नाश/व्यय और ध्रौव्य=वस्तु का सदैव अस्तित्व से युक्त,सत्-अस्तित्व है!
अर्थ-अर्थात जिसमे उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य तीनो पाए जाए,सत् है !
उपर्युक्त सूत्र संख्या २९ में द्रव्य का लक्षण सत्-अर्थात अस्तित्व/नित्यत्व द्रव्य का लक्षण बताया है और इस सूत्र में सत्-अस्तित्व/नित्यत्व को परिभाषित किया है; उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य युक्त सत् है अर्थात उत्पाद व्यय ध्रौव्य,द्रव्य का लक्षण है ! 
भावार्थ- द्रव्य का लक्षण -जिसमें निरंतर प्रति समय नवीन पर्याय की उत्पत्ति और पुरानी पर्याय का व्यय होने पर भी वह अपना अस्तित्व सदा रखे उसे,सत् कहते है,जो की द्रव्य का लक्षण है! सभी द्रव्य अविनाशी है तथा उसमे नवीन पर्याय की उत्पत्ति और पुरानी का व्यय एक ही समय में युगपत् होता ही है!

उत्पाद-अपनी जाति को छोड़े बिना,चेतन/अचेतन द्रव्य में अंतरंग और बहिरंग के निमित्त से प्रति समय नवीन पर्याय की उत्पत्ति उत्पाद है!जैसे मिटटी की पिंड पर्याय से घट पर्याय की उत्पत्ति!
व्यय-पूर्वपर्याय का विनाश व्यय है जैसे घट पर्याय के उत्पन्न होने पर पिंड पर्याय का विनाश होना !
ध्रौव्य-पूर्वपर्याय के विनाश और नवीनपर्याय का उत्पाद होने पर भी मूलस्वभाव सदैव रहना,ध्रौव्य है!जैसे पिंड पर्याय का व्यय होकर घट पर्याय का उत्पाद होने पर भी मिटटी द्रव्य का कायम रहना!
द्रव्य,उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वरुप ही है-उक्त दृष्टांत में मिटटी की पिंड पर्याय का व्यय /विनाश होने पर नवीन घट पर्याय का उत्पाद होने पर भी,मिटटी, मूल द्रव्य सदैव रहती है! इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य में तीनों गुण एक साथ रहते है क्योकि पुरानी पर्याय के नष्ट होने पर, नवीन पर्याय का उत्पाद होने पर भी द्रव्य का स्वभाव सदा रहता है अर्थात द्रव्य वही रहता है!यदि केवल उत्पाद माना जाये तथा व्यय और ध्रौव्य को नहीं माना जाए तब नवीन वस्तु का बनना ही शेष रहा,ऐसी स्थिति में बिना मिटटी के घट बन जाएगा!यदि वस्तु का केवल विनाश माना जाये,उत्पाद और ध्रौव्य को नहीं माना जाये,तो घट के टूटने पर मिटटी या टीकर कुछ शेष नहीं रहेगा!यदि केवल ध्रौव्य को ही मन जाए उत्पाद व् व्यय को नहीं माने तो प्रत्येक वस्तु जिस अवस्था में है वह उसी अवस्था में सदा रहेगी,उसमे कभी कोई परिवर्तन नहीं होगा! किन्तु यह प्रत्येक्ष के ये विरुद्ध है!प्रत्यक्षत: प्रत्येक वस्तु परिवर्तन शील है,उसमे प्रति समय परिवर्तन होते हुए भी जो सत् है उसका विनाश कभी नहीं होता है तथा असत् का उत्पाद कभी नहीं होता है, प्रत्येक द्रव्य में परिणमन होते हुए भी उसका मूल स्वभाव यथावत रहता है !जड़ चेतन नहीं हो सकता और चेतन जड़ नहीं हो सकता!अत: जो सत उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वरुप है उसे ही द्रव्य कहते है!
जीव का चेतनत्व,ज्ञान,दर्शनादि गुण उसकी समस्त गतियों रूप पर्यायों और पुद्गल द्रव्य के स्पर्श,रस,गंध,वर्ण गुण उसकी सब पर्यायों में विध्यमान रहते है! 
उद्धाहरण २-पुराने स्वर्ण के जेवर अंगूठी को तुड़वाकर नवीन बाली बनवाना!इसमें सोंने की अंगूठी पुरानी पर्याय है जिसका नाश होने पर उसकी नवीन पर्याय बाली का उत्पाद हुआ तथा दोनो  ही स्थिति में सोने का गुण उसमे ध्रौव्य रहा !
शंका-प्रत्येक द्रव्य तीनो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य रूप एक साथ कैसे रह सकता है कदाचित कालभेद से उसे उत्पाद और व्यय स्वरुप मान भी लिया जाए,क्योकि जिसका उत्पाद होता है उसका कालांतर में विनाश भी अवश्य होता है,वह ऐसी अवस्था में ध्रौव्य रूप नहीं हो सकता क्योकि जिसके उत्पाद व्यय होता है उसका ध्रौव्य स्वभाव मानने में विरोध आता है?
समाधान- इसका समाधान है की जिस समय द्रव्य की पुरानी पर्याय का विनाश होता है उसी समय नवीन पर्याय का उत्पाद होता है फिर भी उसका त्रिकालिक अवयव स्वभाव बना रहता है ! 
आचर्य समन्तभद्र स्वामी व्यक्त करते है  है कि "घटका इच्छुक उसके नाश होने पर दुखी होता है,मुकुट का इच्छुक उसके उत्पाद होने पर हर्षित होता है,और सोने का इच्छुक मध्यस्थ रहता है !एक ही समय में शोक,हर्ष और नध्यस्थ भाव अकारण नहीं हो सकता जिससे सिद्ध  होता है कि प्रत्येक द्रव्य उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य युक्त होता है !" 
आज विज्ञान कहता है की वस्तु का नाश कभी नहीं होता,केवल उसकी वर्तमान पर्याय(mode-state) बदलती है!जैनागम के इस दृष्टिकोण का विज्ञान भी समर्थन करता है! जैनागम कहता है वस्तु की नवीन पर्याय की उत्पत्ति होती है,पुरानी का नाश-व्यय होता है,तथा वस्तु का गुण सभी पर्याय में रहता है!
विशेष-१-अनादिकाल से रहने वाले शुद्ध धर्म,अधर्म,आकाश,काल और सिद्ध जीव द्रव्यों में उत्पाद,व्यय और ध्रौव्य होता है!प्रत्येक शुद्धद्रव्य में अगुरुलघुगुण के कारण,षट्गुणहानि वृद्धि रूप परिणमन प्रतिसमय होता है!किसी भी द्रव्य का अस्तित्व परिणमन के बिना असंभवहै!अत:सिद्ध भगवान् की केवल सांसारिक अवस्थों का अंत होता है,मुक्त अवस्था शुरू होती है!
३-षट्गुणहानिवृद्धि -

१-अनन्तभागहानि/वृद्धि,२-असंख्यातभागहानि/वृद्धि,३-संख्यातभागहानि/वृद्धि४-संख्यातगुण  हानि/वृद्धि,५-असंख्यातगुणहानि/वृद्धि,६-अन्नतगुणहानि/वृद्धि 

नित्यम्/ध्रौव्य--
तद्भावाव्ययंनित्यम् ३१
संधि-विच्छेद:-तद्+भाव+अव्ययं+नित्यम्
शब्दार्थ:-तद-उस (द्रव्य) के,भाव-भाव का,अव्ययं=नाश नहीं होना,नित्य[b]म्-नित्य/ध्रौव्य है![/b]
अर्थ-उस द्रव्य का स्वभावनष्ट नहीं होता,वह नित्य है,यद्यपि वस्तु प्रतिसमय परिणमनशील है तथापि उसमे एक रूपता बनी रहती है,जिसे  कालांतर में देख कर पहिचान सकते है कि यह वही वस्तु है,वस्तु/द्रव्य की इस एक रूपता को ही नित्यता कहते है जो कि उस वस्तु का स्वभाव है !
भावार्थ-जीव के जीवत्व/चेतनत्व का क्षय नहीं होना,उसका ध्रौव्यत्वहै!जैसे सिद्ध भगवान् की सांसारिक पर्याय काक्षय (व्यय) होकर,मुक्त पर्याय का आरम्भ (उत्पाद) होना   तथा सिद्धावस्था में भी जीवत्व सदा रहेता है!इसी प्रकार पुद्गल का पुद्गल्त्व कभी नष्ट नहीं होता!
वस्तु द्रव्य की अपेक्षा,ध्रौव्य की अपेक्षा,नित्य है उत्पाद व्यय की अपेक्षा वस्तु अनित्य है!हम जीवत्व की अपेक्षा,नित्य और ध्रौव्य की अपेक्षा,नित्य अविनाशी है किन्तु पर्याय की अपेक्षा हमारी मृत्यु (व्यय) होती है फिर जन्म (उत्पाद) लेते है अत:,हम इस की अपेक्षा से अनित्य है!इस प्रकार दो विरोधी धर्म वस्तु में हमेशा विद्यमान रहते है!
शंका-जैन दर्शनानुसार प्रत्येक वस्तु प्रतिसमय परिणमनशील है फिर वह नित्य कैसे हो सकती है ?
समाधान-नित्यता से अभिप्राय यह नही है की वस्तु जिस रूप मे है वह सदैव उसी रूप में ही बनी रहेगी,उसमे कोई परिवर्तन नही होगा,बल्कि उसमे परिणमन के साथ साथ एक रूपता बनी रहना उसकी नित्यता है,जो की उसका स्वभाव है,जिसे देखकर हम पहिचान सकते है की वही वस्तु है!उक्त कथन का अभिप्राय है कि वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी!जैसे जीव,पर्याय दृष्टि से अनित्य और द्रव्य दृष्टि से चेतनत्व होने के कारण नित्य है!पदार्थों में नित्यता सामन्य रूप की अपेक्षा से होती है और पर्याय की दृष्टि से सभी द्रव्य अनित्य है,इसीलिए संसार के सभी पदार्थ में दो विरोधी धर्म  नित्य और अनित्य युगपत् विध्यमान होते है !
शंका-एक ही द्रव्य को नित्य और अनित्य कहना विरोधाभासी कथन है ,यदि नित्य है तो उत्पाद  और व्यय के अभाव में अनित्यता नहीं बनती,यदि अनित्य है तो स्थिति का अभाव होने से नित्यता का व्याघात हो जाता है वस्तु में नित्यता और अनित्यता,दो विरोधी धर्मो की सिद्धि निम्न सूत्र से होती है 
अर्पितानर्पितसिद्धे:-३२

संधि-विच्छेद -अर्पित+अनर्पित+सिद्धे:
शब्दार्थ:-अर्पित-मुख्यता,अर्थात जिसको वक्ता वर्तमान में कहना चाह रहा है और अनर्पित=गौणता से अर्थात जिसको वक्ता अभी नहीं कहना चाह रहा है,सिद्धे=सिद्धी होती है!
र्थ- मुख्यता /विवक्षा और गौणता (अविवक्षा ) से अनेक धर्मात्मक वस्तुओं का कथन सिद्ध होता है !किन्तु इस का अभिप्राय यह नहीं है की जिस गुण का मुख्यता से वर्णन किया जा रहा है उसके अतिरिक्त वस्तु के सभी  धर्म/गुण सर्वथा ही गौण हो गए !मुख्यता और गौणता से किसी वस्तु के गुणों का कथन  करने की  व्यवस्था का कारण है कि एक समय में वस्तु के एक ही गुण का कथन किया जा सकता है !अत:किसी वस्तु के  किसी धर्म की  प्रमुखता और उस के अन्य गुणों  की गौणता से ही वस्तु की सिद्धि होती है ! 
भावार्थ-वस्तु में विद्यमान दो विरोधी धर्मो की,सिद्धि अर्पित और अनर्पित से  है!उद्धाहरण के लिये,जब हम किसी वस्तु कर वर्णन द्रव्य की अपेक्षा से करते है,द्रव्य की मुख्यता की अपेक्षा वर्णन करना अर्पित हुआ,इस समय हमने वस्तु की नित्यता सिद्ध करी,जब पर्याय की मुख्यता की अपेक्षा से वर्णन करेगे तब पर्यायदृष्टि मुख्य अर्थात अर्पित होगी और हम वस्तु की अनित्यता सिद्ध करते है !
अर्पित-मुख्य द्रव्य दृष्टि से में जीव नित्य हूँ इस समय पर्याय दृष्टि गौण अनर्पित हो गयी है!जब पर्यायदृष्टि की मुख्यता अर्थात अर्पित बनाया तो मैं अनादिकाल से जन्म -मरण कर रहा हूँ इसलिय अनित्य हूँ!पहले जिस धर्म को अर्पित बनाते है उसकी सिद्धी हो जाती है,दूसरा धर्म गौण हो जाता है फिर पहले को अनर्पित बनाकर दुसरे धर्म को अर्पित बनाकर उसकी सिद्धि हो जाती है!अत: मुख्यता और गौणता से वस्तु में विद्यमान दो विरोधी धर्मों की सिद्धी हो जाती है
पुण्य हेय है या उपादेय है?


शुद्धोपयोगी की अपेक्षा पुण्य हेय है,अशुभोपयोगी की अपेक्षा शुभुपयोग और पुण्य उपादेय है!शुद्धोपयोगी मुनिमहाराज की अपेक्षा शुभुपयोग,पुण्य हेय है ! अशुभोपयोगी की अपेक्षा शुभुपयोग-पुण्य उपादेय है 
वस्तु में किते धर्म पाए जाते है?
वस्तु में अनेक धर्म विद्यमान होते है! एक ही जीव किसे की अपेक्षा पुत्र,किसी की अपेक्षा पिता,किसी की अपेक्षा भाई आदि है!वस्तु के इन अनेक धर्मों को अनेकांत कहते है!,अंत=धर्म,अनेक=बहुत!जब वस्तु के एक धर्म का वर्णन होता है,वह एकांत है!जब  वस्तु में पाए जाने वाले अनेक धर्मों का वर्णन होता है उसे अनेकांत कहते है !

शंका:-सूत्र २६ में बताया है की स्कंध की उत्पत्ति भेद,संघात और भेद संघात दोनों से,अर्थात तीन प्रकार से होती है तो क्या दो परमाणु के संघात होने पर भी स्कंध की उत्पत्ति होती है !
समाधान:-दो परमाणुओं का संघात द्वारा बंध तब तक नहीं होता जब तक उनमे परस्पर रासायनिक क्रिया नहीं हो जाती है !जैसे-
रसायन विज्ञान में स्कन्धोत्पत्ति की क्रिया संघात द्वारा भी होती है!इस प्रक्रिया को सह संयोजन बंध के रूप में समझ सकते है!सहसंयोजी बंध में,अणु निर्माण में भाग ले रहे परमाणुओं के मध्य इलेक्ट्रान की साझेदारी से जो बंध बंधता है उसे सहसंयोजी बंध एवं निर्मित यौगिक को सहसंयोजे यौगिक (स्कंध) कहा जाता है !
1-  H*-H                 =H
                            2 
हाइड्रोजन का १ परमाणु, दुसरे हाइड्रोजन परमाणु से संघात कर ,हाइड्रोजन गैस का एक अणु बनता है!परमाणु और अणु वैज्ञानिक मान्यता परिभाषा लिया गया है !जब की जैन दर्शन के अनुसार परमाणु पुद्गल का सूक्ष्मत अविभाज्य खंड है जो विभाजित नहीं किया जा सकता और स्कंध २ या २ से अधिक परमाणुओं के संयोग से निर्मित का स्कंध है !बिना रासायनिक क्रिया के  कोई स्कंध  नहीं बनता!



पुद्गल का स्वाभाविक रूप अणु/परमाणु है!कुछ में परस्पर बंध होता है और कुछ में नहीं होता है!निम्न सूत्र से बंध का कारण बताया है !
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तत्वार्थ सूत्र अध्याय ५ भाग ४ - by scjain - 03-16-2016, 11:42 AM

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