तत्वार्थ सुत्र अध्याय ७ भाग २
#1

प्रमत्त योगात्प्राण व्यपरोपणं  हिंसा !!१३!!

संधि विच्छेद-प्रमत्त+योगात +प्राण + व्यपरोपणं+ हिंसा
शब्दार्थ-प्रमत्त-प्रमाद के  योगात -योग  से ,प्राण- दस प्राणों का, व्यपरोपणं-घात करना, हिंसा-हिंसा है !
अर्थ-प्रमाद वश  योग से किसी के दस  प्राणों का घात करना द्रव्य हिंसा है !
भावार्थ-कषाय युक्त अवस्था को प्रमाद (५ इन्द्रियों,४ कषाय ,४ विकथा,स्नेह और निंद्रा =१५ होते है )  कहते है!
इन प्रमादों में से किसी के वशीभूत, किसी प्राणी के पांच  इन्द्रिय,३ बल,श्वासोच्छ्वास  और आयु, इन दस प्राणों का घात होता है तो हिंसा है किन्तु  प्रमादों के अभाव में प्राणघात होने से हिंसा पाप दोष नहीं लगता है!
 संसार में सर्वत्र जीव है वे अपने निमित्तों से मरते भी है किन्तु उनके मात्र मरने से ही हिंसा पाप का दोष नहीं लगता! उद्धाहरण के लिए; कोई मुनि महाराज ईर्यासमिति का पालन करते हुए चार हाथ आगे की भूमि भली प्रकार देखते हुए इस भाव से चल रहे है कि उनके पैरों के नीचे आकर, किसी जीव की हिंसा नहीं हो जाये ,किन्तु फिर भी सूक्ष्म जीवो की हिंसा स्वाभाविक है,तब भी मुनिराज को हिंसा पाप नही लगेगा क्योकि उनका जीवों की हिंसा करने का भाव नहीं है,अत: यह हिंसा नहीं है क्योकि प्रमाद का योग नहीं है!किन्तु यदि वे ईर्यासमिति का पालन करते हुए नहीं चलते,तब जीव की हिंसा नहीं होने पर भी उन्हें हिंसा पाप का दोष लगता है चाहे किसी जीव के प्राणों का घात हो या नहीं हो क्योकि उनका भाव जीवों को बचाने का नहीं है और उनके प्रमाद का योग है!अत:हिसा रूप परिणाम होने पर ही हिंसा पाप दोष लगता है !
 जैन दर्शन में हिंसा के दो भेद ;द्रव्य और भाव हिंसा है !द्रव्य हिंसा का भावहिंसा के साथ मात्र संबंध होने के कारण उसे हिंसा कहा है ,द्रव्य हिंसा होने पर भाव हिंसा होना आवश्यक नहीं है !
शंका-जैनेतर धर्मों  में, भाव और द्रव्य हिंसा ,अलग अलग नहीं मानने के कारण,शंका उत्पन्न होती है कि समस्त लोक ,संसार के जल ,थल ,पर्वतोंकी चोटी पर जीव जंतु  है फिर  कोई जीव कैसे अहिसक हो सकता है ?
 समाधान-जीव बादर और सूक्ष्म दो प्रकार के होते है !सूक्ष्म जीव तो किसी अन्य जीव  से न तो बाधित होते है और उन्हें बाधित भी नहीं करते इसलिए उनका तो हिंसक होने  का प्रश्न ही नही उठता !स्थूल /बादर  जीवों की  जिनकी रक्षा करनी संभव है उनकी रक्षा संयमी पु रुष करते है  इसलिए उन्हें हिंसा पाप का दोष नहीं लगता 
विशेष-१-कोई प्राणी किसी अन्य प्राणी को मारने की योजना बनाता है किन्तु उसको किसी कारणवश मार नहीं पाता;यद्यपि उसने दुसरे प्राणी को मारा नहीं है तब भी उसके हिंसा पाप का बंध होता है क्योकि वह प्रमाद  सहित है और उससे अपने भाव प्राणों की हिंसा होती है  !
२-जो लोग चीनी के बने पशु आकार के खिलौनों का सेवन दीपावली में कर ते है उन्हे भी हिंसा का दोष लगता है !टीवी पर बच्चे,पिस्तौल से किसी को मारने के दृश्य को देखकर आनंदित होने पर,यद्यपि उन्होंने किसी को मारा नहीं है,उन्हें हिंसा की अनोमोदना करने के  कारण हिंसा पाप का दोष  लगता है !
३-आहारदान के अवसर पर शुद्धि की प्रतिज्ञा लेने पर यदि आहार/जल  शुद्ध नहीं है तब हिंसा पाप का दोष आहार दाता को लगता है,मुनिराज को नहीं क्योकि उन्होंने कोई प्रमाद नहीं किया है!किन्तु यदि मुनिराज जानते है कि  आहारदाता मदिरा,मांस आदि का सेवन करता है,उसके आहार जल शुद्ध नहीं है.चाहे आहारदाता ने शुद्ध ही आहार क्यों नहीं निर्मित किया हो, तब उनके हिंसा पाप का दोष,उनके प्रमाद के कारण  लगता है
४-अपनी स्वयं की आत्मा को भी किसी कषायवशीभूत कष्ट देना भाव हिंसा है!इससे भी हिंसा पाप दोष लगता

असत्य पाप के लक्षण-

असदभिधानमनृतम् !!१४!!
संधि विच्छेद-असत +अभिधानम्+अनृतम् 
शब्दार्थ-असत -जो वस्तु जैसी है वैसी नही ,अभिधानम्-कहना,अनृतम्-झूठ है !
अर्थ-किसी वस्तु को उसके स्वरुप से भिन्न कहना,अथवा अकल्याणकारी वचनो का सत्य होने पर भी   प्रति पादन करना झूठ /असत्य है !
भावार्थ-किसी को कर्कश,पीड़ादायक वचन,यद्यपि सत्य भी हो,कहना असत्य है जैसे काणे  को काणा कहना!
किसी को आँखों की ज्योति बढ़ाने के लिए गाजर का सेवन अथवा गुलाब जल नेत्रों में डालने की  सलाह देना भी असत्य है क्योकि आगम विरूद्ध वचन है क्योकि गाजर जमीकन्द है और गुलाब जल अनेक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से बनता है!दोनों में अत्यंत जीव हिंसा है !अत:आगमनुकूल,हितमित,कल्याणकारी वचन ही बोलने चाहिए अन्यथा असत्य पाप का दोष लगता है!किसी छात्र को शिक्षक यदि उसे सुधारने की भावना से पीटता है तब वह असत्य दोष का भागी  नहीं है क्योकि उसका भाव छात्र का कल्याण करना है!या किसी डाक्टर से ऑपरे- शन करते हुए मरीज की मृत्यु हो जाती है तो वह हिंसा तब तक नहीं है जब तक डाक्टर का भाव उसे ठीक करने का है किन्तु यदि उसका भाव ही इलाज़ के बहाने मरीज़ को मारने का है तो वह डाक्टर हिंसा पाप का दोषी होगा !आशय है कि प्रधान अहिंसाव्रत है ,बाकी चारों उसकी रक्षा के लिए है
चोरी पाप के लक्षण-
अदत्तादानंस्तेयम् !!१५!!
संधि विच्छेद-अदत्त+आदानं+स्तेयम्
शब्दार्थ-अदत्त-बिना दी हुई वस्तु,आदानं-ग्रहण करना,स्तेयम्-चोरी है
अर्थ-बिना दिए हुए कोई वस्तु ,गिरी ,पड़ी हुई ग्रहण करना चोरी है !
विशेषार्थ-प्रमाद  योगवश अर्थात बुरे भाव से पराई वस्तु को ग्रहण करना चोरी है,चाहे उससे कोई लाभ हो या नहीं हो!जैसे किसी साथी की पुस्तक छुपा कर रख देना,यद्यपि इससे आपको कोई लाभ नहीं हुआ किन्तु दुसरे को हानि अवश्य हो गई!या किसी से, समाज के ५-७  कमेटी के लोग,उसकी इच्छा के विरुद्ध दान लेते है तो यह भी चोरी है !
शंका -कर्म और नो कर्म कोई देता नहीं ,तो यह भी चोरी ही हुई ?
समाधान- यह दोष नहीं है क्योकि जहां लेना देना संभव है वही चोरी होती है ,इस दृष्टात  में लेना देना संभव नहीं है !यह सूत्र में अदत्त शब्त से फलहित होता है की जहाँ लेना देना सम्भव है वही चोरी है अन्यथा नहीं !
कुशील पाप का लक्षण-
मैथुनमब्रह्म !!१६!!
संधि विच्छेद -मैथुनं + अब्रह्म
शब्दार्थ-मैथुनं-मैथुन;स्त्री पुरुष के बीच रागवश वासना पूर्ण क्रिया को मैथुन कहते है,अब्रह्म-अब्र्ह्म /कुशील पाप है
अर्थ-मैथुन रूप परिणाम होना कुशील पाप है !
भावार्थ-चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से स्त्री पुरुषों के बीच राग वश  वासना रूप परिणाम होना कुशील पाप है !
विशेष-गृहस्थों को एक विवाहित स्त्री /पुरुष में एक दुसरे के प्रति  वासना रूप  परिणाम होना , कुशील पाप नहीं है किन्तु साधु परमेष्ठी को स्त्री मात्र के  स्पर्श का निषेध है,अन्यथा उन्हें कुशील पाप का दोष लगता है !
परिग्रह पाप का लक्षण-
मूर्च्छा परिग्रह:!!१७!!
सन्धिविच्छेद:-मूर्च्छा+परिग्रह:!!
शब्दार्थ:-मूर्च्छा -बाह्य धनादि और अंतरंग क्रोधादि में ममत्व परिणाम होना /यह मेरा है ,परिग्रह:-परिग्रह है !
अर्थ-जो परिणाम आत्मा को चारों ओर से जकड ले वह परिग्रह है,किसी वस्तु अथवा राग द्वेष को कहना कि ये मेरे हैं,यही ममत्व परिणाम ,मूर्च्छा अर्थात परिग्रह है !
विशेष:-
१-मुनिमहाराज के पिच्छी ,कमंडल,एवं शास्त्र जी उनके परिग्रह में नहीं आते क्योकि प्रमाद नहीं है !चश्मा भी यदि आहार शोधन अथवा शास्त्र के स्वाध्याय हेतु प्रयोग में आ रहा है तो परिग्रह में तब तक नहीं आता जब तक उनका उपयोग विषयों के सेवन के लिए नहीं है !
२-प्रथमानुयोग के ग्रन्थ में एक दृष्टांत आता है,राजा श्रेणिक भगवान महवीर के समवशरण की ओर जाते हुए एक ध्यानस्थ मुनिराज को  तपस्या में लींन देख  कर,समवशरण में पहुँचने पर गौतम गणधर देव से प्रश्न करते है की इन मुनिराज को मोक्ष कब मिलेगा ,गढ़र देव कहते है ये तो अंतरंग परिणामों के कारण नरकगति का बंध कर रहे है क्योकि ओके मंत्रियों ने,इनके दीक्षा लेने के समय किये आश्वासन के विपरीत,इनके पुत्र को राज्य न देकर स्वयं राज्य हड़प लिया है !यहाँ मुनिराज के परिग्रह (राज्य ) में अभी तक मोह पड़ा हुआ है ,इस कारण उन्हें नरकगति का बंध हो रहा है!गौतम गंधार देव राजा श्रेणिक से इन्हे सम्बोधित कर, सँभालने का निर्देश देते है,तदानुसार राजा श्रेणिक उन मुनिराज को संभालते है ,उनके पास जाकर कहते है ' मुनिराज आप कहाँ राज्य आदि के चक्क र में पढ  रहे हो आप अपना कल्याण तपस्या में लीन  होकर करे अन्यथा आप नरक  आयु  का बंध कर रहे है ,तभी मुनिराज ने संभल कर अंतर्मूर्हत में मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त किया !यहाँ मुनिराज ने द्रव्य से तो परिग्रह का त्याग कर दिया था किन्तु भाव से नहीं इसलिए उनके नरकायु का बंध हो रहा था !
परिग्रह सहित मुनि के सन्दर्भ में आचार्य श्री कुन्दकुन्द महाराज जी कहते है कि ''मुनिराज थोड़ा भी परिग्रह रखते है तो वे निगोद जाते है'परिग्रह का त्याग द्रव्य और भाव दोनों से होना आवश्यक है !

व्रती  का  लाक्षण-
नि :शल्योवर्ती : !!१८ !!
सन्धिविच्छेद:- नि:+शल्यो+वर्ती :
शब्दार्थ:-नि -रहित :शल्यो-शल्य ,वर्ती: -व्रती है
अर्थ-व्रती शल्य रहित होता है !
भावार्थ -जो काँटों की तरह दुःख देता है,उसे शल्य कहते है!व्रती शल्य रहित होता है !
विशेष-
शल्य के तीन भेद है !
१-माया शल्य -दुसरे के प्रति छल कपट के भाव होना,जैसे प्रथमानुयोग में दृष्टांत आता है की एक चोर  ने मंदिर से छत्र चोरी करने के लिए क्षुल्लक जीका वेश धारण किया। यह माया शल्य है!ऐसे जीव के सदा चुभता रहेगा कि  वह क्षुल्लकजी  तो है नहीं, उसने केवल उनका भेष धारण कर लिया है,सदा डरता रहेगा कि  कोई मुझे पकड़ न ले !ऐसे में वह व्रती ,व्रतों का पालन नहीं कर पायेगा !
२-मिथ्या शल्य- तत्वार्थ और व्रतों में श्रद्धां नहीं होते हुए भी अन्यों के देखा देखी व्रत धारण कर लेना ,मिथ्या शल्य है !ऐसे जीव के श्रद्धां के अभाव में यह बात कांटे की तरह चुभती रहेगी व्रत तो ले लिया किन्तु कहाँ फस  गए ,अत्यंत कठिन है इनका पालन !ऐसा व्यक्ति क्या व्रत लेगा !
३-निदान शल्य-अपनी प्रसिद्धि अथवा भविष्य में किसी सांसारिक वस्तु जैसे दुखों के छूटने के लिए अथवा स्वर्ग की  प्राप्ति की वांछा से व्रत धारण करना,निदान शल्य है !
व्रती उक्त तीनों शल्य रहित होता है !
शंका -बाहुबली भगवान के युद्ध के पश्चात कौन सा शल्य था ?
समाधान उन्हें युद्ध के बाद कोई शल्य नहीं था केवल संताप था,दुःख था   कि  मैंने छोटे भाई भरत के साथ युद्ध क्यों किया,करना नही चाहिए था !वे सर्वार्थ सिद्धि से आये हुए महान मुनिराज तद्भव  मोक्ष गामी जीव थे!वे नि:शल्य थे!उनके यह भाव नहीं था कि  भरत की भूमि पर खड़ा हूँ !

व्रती केभेद -
अगार्यनगाराश्च  !!१९!!
सन्धिविच्छेद:-अगारी+अनगारी:+च
शब्दार्थ:-अगारी-गृहस्थ अणुव्रती,घर सहित,अनगारी-गृह त्यागी अर्थात साधु आर्यिका,ऐलक आदि,च-और  
 

अर्थ व्रती के अगारी (गृहस्थ -घरों में रहने वाले श्रावक )और अनगरी(ग्रह त्यागी मुनि,आर्यिका ,ऐल्लक जी ) दो भेद है !

शंका-साधु किसी देवालय या निर्जन खाली स्थान पर ठहरने  से  अगारी हो जाएंगे !यदि कोई गृहस्थ अपनी पत्नी से झगड़ कर वन में रहने लगे तो क्या वह अनगारी हो जायेगा ?
समाधान-अगारी का अर्थ  मकान ही है किन्तु यहाँ पर अभिप्राय बाहरी मकान से नहीं लेकर आंतरिक मानसिक  मकान से है !जिस व्यक्ति के मन से घर बसा कर रहने की भावना है वह जंगल में रहने पर भी अगारी ही है और जिसके मन में ऐसी भावना नहीं है वह कुछ समय के लिए मकान में रहने के बावजूद भी अनगारी ही है,अगारी नही !
शंका -अगारी पूर्णवर्ती नहीं है इसलिए व्रती नहीं हो सकता है ?
समाधान-यह दोष नहीं है क्योकि नैगमनयों की अपेक्षा ,नगरवास के समान,अगारी के भी व्रती पना बनता है जैसे कोई घर/झोपड़ी में रहने पर भी कहता है 'मैं नगर में रहता हूँ' !इसी प्रकार जिसके पूर्ण व्रत नहीं है वह नैगम ,संग्रह और  व्यवहारनय  की अपेक्षा व्रती है !
शंका -क्या जो हिंसादि एक से निवृत्त है ,वह अगारी व्रती है?
समाधान -नहीं !
शंका -वह क्या है?
समाधान -जिसके पाँचों प्रकार की एक देश विरती है ,वह अगारी है !


अगारी का लक्षण  
अणु व्रतो अगारी !!२०!!
सन्धिविच्छेद:-अणु+व्रतो+अगारी
शब्दार्थ:-अणुव्रतो-अणुव्रती ,अगारी-

है!
अर्थ-अणुव्रती अर्थात एकदेश पांच अणुव्रतों;(अहिंसा,सत्या,अचौर्य,ब्रह्मचर्य,और परिग्रह परिमाण)का पालन करने वाले सम्यग्दृष्टि गृहस्थ जीव अगारी है अर्थात घर में रहते है!
भावार्थ- एक देश पाँचों पापों के त्याग का नियम लेने वाले  वाले अणुव्रती होते है!
अहिंसाणुव्रती- त्रस जीवों की संकल्पी  हिंसा का सर्वथा त्यागी होता है !बाकी तीन हिंसाये  उद्यमी-व्यापार  आदि में, विरोधी-अपने बचाव में एवं आरंभी-घर के नित्य दिन के  कार्य और व्यापार में वह नहीं चाहते हुए भी  मजबूरी में  करता है!
सत्यणुव्रती-राग-द्वेष,मोह,भय,आदि के वश बोले जाने वाले स्थूल झूठ बोलने का सर्वथा त्यागी होता है !
अचौर्याणुव्रती -स्थूल रूप से चोरी करने का सर्वथा त्यागी होता है,जैसे वह किसी की जेब से  रूपये पैसे आदि निकाल कर चोरी नहीं करता है !
ब्रह्मचर्याणुव्रती-अपनी/अपने  विवाहिता पत्नी /पति  के अतिरिक्त किसी अन्य से स्त्री /पुरुष से वासना रूप परिणाम नहीं रखता उन्हें बहिन भाई,माता पिता  समान समझता है !
परिग्रह परिमाण अणुव्रती -अपने परिग्रहों की सीमाये निर्धारित कर कभी उन सीमाओं का उल्लंघन नहीं करता है!जैसे वह नियम लेता है की एक खेत ,एक मकान ,एक कार ,लाख रूपये ,२ गाय, भैंस।१० जोड़ी कपड़े,साड़ी  आदि से अधिक परिग्रह नहीं रखेगा तो वह जीवन पर्यन्त इस सीमा का उल्लंघन नहीं करता ,बल्कि शनै शनै उन्हें कम करने का प्रयास करता है !जो इन पाँचों अणुव्रतों का नियम पूर्वक पालन करता है तब वह अगारी व्रती है !जब कोई जीव ५ अणुव्रत,३ गुणव्रत और ४ शिक्षा व्रत धारण करता है तब उसे व्रती श्रावक कहते है!
श्रावक के अणुव्रतों के सहायक सात शीलव्रत -
दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामयिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागव्रतसम्पन्नश्च !!२१!!
सन्धिविच्छेद-दिग्+देश+अनर्थदण्ड+विरति+सामयिक+प्रोषधोपवास+उपभोगपरिभोग+परिमाण+अतिथि संविभाग+व्रत+सम्पन्न:+च 
शब्दार्थ -दिग्व्रती,देशव्रती,अनर्थदण्डव्रती,सामयिक,प्रोषधोपवास,उपभोगपरिभोगपरिमाण,अतिथि संविभाग,व्रत,सम्पन्न:-सहित,च-सल्लेखना !
 अर्थ-व्रती श्रावक,पांच अणु व्रतों की रक्षा के लिए सात शिक्षाव्रतों -तीन गुणव्रत; दिग़व्रत,देशव्रत,और अनर्थदण्डव्रत,तथा चार शिक्षा व्रतों;सामायिक,प्रोषधोपवास,उपभोगपरिभोग परिमाण और अतिथि संविभाग ,इस प्रकार कुल १२ व्रतों का धारी होता है!च-सूचित करता है की सल्लेखना द्वारा वह व्रती अपना शरीर त्यागने का नियम भी लेता है !
भावार्थ -श्रावक व्रती की संज्ञा पांच अणु व्रत,३ गुणव्रत और ४ शिक्षा व्रतों अर्थात १२ व्रतों के पालन करने पर ही प्राप्त करता है !
गुणव्रतों -
१-दिगव्रत-व्रती श्रावक,सूक्ष्म पापों से निवृत्ति के लिए दसों (पूर्व,दक्षिण,पश्चिम,उत्तर,तथा इन के मध्यस्थ एक-एक दिशा,ऊपर,नीचे) दिशाओं में अपने आवागमन की सीमा स्वयं निर्धारित करना दिग्व्रत है, वह जीवन पर्यन्त इस सीमा का उल्लंघन नहीं करता है! व्रती निर्धारित सीमा के बाहर व्यापारादि करने भी नहीं जाता ,जिससे वह निर्धारित सीमा के बाहर के क्षेत्र में, होने वाली हिंसा से सर्वथा बच !उद्धाहरण के लिए दिग्व्रती व्रत लेता है जैसे जीवन पर्यन्त भारत/उत्तर प्रदेश सहारनपुर/ से बहार नहीं जाऊँगा ,आकाश में ४०००० फट से ऊपर नहीं और ५००० फट से नीचे नहीं जाऊंगा 
२-देशव्रत -दिग्व्रत में जीवन पर्यन्त के लिए  निर्धारित करी गई,आवागमन की  सीमा को  देश व्रती कुछ समय;घंटे, दिन, सप्ताह,माह,अथवा वर्ष के लिए देश ,गली,मोहल्ले तक  संकुचित कर लेता है !इसमें भी श्रावक ,इस नवीन निर्धारित क्षेत्र की सीमा से बाहर उपचार से महाव्रती हो जाता है !देश व्रत में ,दिग्व्रत में निर्धारित सीमा भारत से, संकुचित कर गली /मोहल्ले से बाहर दसलक्षण पर्व में  नहीं जाऊँगा !इन व्रतों को धारण करने से , निर्धारित क्षेत्र के बाहर किसी भी प्रकार से,फोन//प्रेषक को भेजकर /इशारे से  सम्पर्क नहीं कर सकते अन्यथा व्रत दूषित हो जाएगा !
३-अनर्थदण्ड व्रत -निष्प्रयोजन पापरूप  क्रियाओं जैसे जमीन खोदना,फूल पत्ति तोडना,को त्यागना अनर्थदण्ड व्रत है !इसके ५ भेद है-
१-पापोपदेश अनतदण्ड व्रत -व्रती ,किसी को युद्ध के लिए प्रोत्साहित करने का त्यागी ,किसी को हिंसात्मक कार्य जैसे शास्त्र आदि बनाने की सलाह देने का त्यागी ,किसी को जीवहिंसा वाली क्रियाओं को बताने का त्यागी होता है
२-हिसादान अर्थदंड व्रती -किसे को भी तलवार शास्त्र आदि देने का त्यागी होता है !
३-अपध्यान  अनर्थदण्ड व्रती -व्रती किसी के अहित का विचार ही नहीं करता !
४-दु :श्रुति अनर्थदण्ड व्रती -व्रती राग द्वेष ,वासना की अभिवृद्धि करने वाले शास्त्रों,साहित्य,सनीमा देखने ,गाने सुनने का सर्वथा त्यागी होता है !
५-प्रमादचर्य अनर्थदण्डव्रती -व्रती कभी भी निष्प्रयोजन कोई क्रिया नहीं करता जैसे निष्प्रयोजन चलना,फूल पत्ती  तोडना,पंखे/कूलर चलते छोड़ देना आदि !
शिक्षा व्रत-जिन व्रतों के पालन से मूल धर्म की शिक्षा मिलती है ,उन्हे शिक्षा व्रत कहते है !उनके पालन से धर्म में आगे बढ़ने में प्रोत्साहन मिलता है !इनके चार भेद है-
१-सामायिक शिक्षा व्रत-समस्त पापो  से विरत ,निर्विकल्प होकर किसी  शांतएकांत स्थान  पर  मन वचन काय से एकाग्रचित होकर,तीनों सांध्य कालों में अथवा कम से कम सुबह और शाम २  घड़ी, तक स्व आत्म चिंतन करना, सामायिक शिक्षाव्रत है !इससे सामायिक  काल के लिए, सांसारिक पाप रुपी  कार्यों से निवृत्ति मिल जाती  है,इस काल में  व्रती उपचार से महाव्रती होता है !इससे संयम में वृद्धि होकर मोक्षमार्ग पर बढ़ते हुए मुनि बनने  की प्रेरणा मिलती है!
शंका-क्या सामायिक में जाप कर सकते है ?
समाधान -सामायिक में णमो कार मंत्र की जाप नहीं कर सकते क्योकि इसमें अपनी आत्मा के स्वरुप का चिंतवन किया जाता है जैसे ,मैं कहाँ से आया हूँ ,कहाँ जाऊँगा क्या हूँ ,मेरे गुण  आदि कौन से है ?
२-प्रोषधोपवास शिक्षा व्रत-प्रोषधोपवास=प्रोषध-पर्व+उपवास-जिसमे पांचों इन्द्रियाँ,अपने अपने विषयों को छोड़कर,उपवासी रहती है,उपवास है!स्थूल रूप से उपवास चारों  प्रकार के आहार;-खाद्य,पेय, स्वाद्य, चटनी का त्याग है किन्तु वास्तव में सभी इन्द्रियों के विषय भोग आदि उपवास के अंतर्गत आते है!
इसलिए भोजन का, स्थूल रूप उपवास में,त्याग किया जाता है! इसमें  सेंट,इत्र ,साबुन ,आदि शरीर के संस्कारों का त्याग किया जाता है अत: अष्टमी/चतुर्दशी के प्रोषधोपवास के लिए ,श्रावक को समस्त आरम्भ त्याग कर , सप्तमी/त्रियोदशी को एकसँ कर मंदिर जी /धर्मशाला में  जाना चाहिए,अगले दिन अष्टमी चतुर्दशी को पूर्ण उपवास रखे,तीसरे दिन नवमी/अमावस्या/पूर्णिमा को एकसँ रख घर में आ जाए ,इन तीनो दिन मंदिर जी में रहकर धर्म ध्यान करता रहे !यह इस उपवास की उत्कृष्टता है !माध्यम से अष्टमी/चतुर्दशी को पूर्णव्रत तथा न्य से अष्टमी/चौदश को एकसँ किया जाता है किन्तु ये दोनों व्रत की कोटि में नहीं आते !
शंका-प्रोषधोपवास शिक्षा व्रती नौकरी,व्यापार आदि करने जा सकते है क्या ?
समाधान-इस व्रत में व्रती को निर्विकल्प  होता है ,केवल धर्म ध्यान में लगता है  ,इसलिए व्यापार/नौकरी पर नहीं जाना है  !
शंका -प्रोषधोपवास शिक्षा व्रती क्या जल ग्रहण कर सकता है?
समाधान- उपवास चारो प्रकार के आहार का त्याग है! जल भी पेय है इसलिए जल ग्रहण करने पर आचार्यों ने इसे अनुपवास कहा है !अत:जल ग्रहण नहीं कर सकते ! -
३-उपभोगपरिभोगपरिमाण शिक्षाव्रत-अणु व्रत में जो परिग्रहों की सीमाये निर्धारित करी थी उन में से अना वश्यक  वस्तुओं को इस व्रत में हटाते  हैं !जैसे परिग्रह परिमाण व्रत में व्रती ने ३ टोपी की सीमा रखी थी तो इसमें वह १ ही टोपी पहनेगा,वहां ४-धोती/कुर्ते की सीमा निर्धारित करी थी तो इसमें २ धोती/कुर्ते ही धारण करेगा !वाहन के उपभोग(संख्या)  की सीमा कम करेगा,तेल ,भोजन (जि तनी बार  पहले लेता था उससे कम बार लेगा आदि के भोग की सीमा कम करेगा ! इस व्रत से परिग्रहों के कम होने से मुनि बनने की प्रेरणा मिलती है !
४-अतिथि संविभाग शिक्षा व्रत -अपने लिए बनाये गए भोजन में से ,किसी व्रती(मुनि,क्षुल्लक,क्षुल्लिका, ऐलक, आर्यिका माता जी अथवा अव्रती सम्यग्दृष्टि)अतिथि  के स्वयं ,(बिना पूर्व में बताये हुए) आहार बेला (१०-१०,४५ प्रातSmile में आने पर आहार दान देना, अतिथि को आहार दान देकर स्वयं भोजन लेना ,अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत है ! यदि कोई चतुर्विध संघ से कोई सुपात्र आहार ग्रहण करने नहीं आते तो यह अतिथि संविभाग शिक्षा व्रती;अपने भोजन लेने से पूर्व भावना भायेगा कि ,मेरे भाग्य से कोई सुपात्र आहार ग्रहण करने नहीं आये किन्तु मेरी भावना है कि  मनुष्य लोक के समस्त चतुर्विध संघ के सुपात्रों का आहार निरन्तराय हो !यह भावना भने से अतिथिसंविभाग शिक्षा व्रत श्रावक का हो जाता है !जहाँ चतुर्विध संघ के पात्रों का विहार नहीं है , श्रावक भी इस विधि  से इस व्रत को कर सकते है !
मुनि महाराज/आर्यिका माता जी /ऐलक जी के लिए उनके निमित का आहार नही बनाया जाता अन्यथा आहार दूषित हो जाता है !इसी प्रकार क्षुल्लक अथवा ऐल्लक महाराज जी के निमित्त के धोती दुपटी नहीं दिए जाते ,पाहिले से रखे हुए दिए जाते !है
सूत्र में च- से सूचित होता है की इन बारह व्रतों के अतिरिक्त श्रावक सल्लेखना धर्म को भी मृत्यु से पूर्व धारण करेगा !
विशेष-
जिनका चित्त त्रस जीवों की हिंसा से निवृत्त है उन्हें मधु,मदिरा और मांस का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए !केतकी अर्जुन के फूल,जमीकन्द,का त्याग कर देना चाहिए क्योकि ये बहुत जीव/जंतुओं की उत्पत्ति के आधार है ,इन्हे अन्तकाय कहते है ,इनके सेवन से लाभ कम और हिंसा अधिक है !
व्रती को सल्लेखना धारण का उपदेश -
मारणान्तिकींसल्लेखनाम् जोषिता !!२२!!

संधि विच्छेद-मारणान्तिकीं+सल्लेखनाम्+जोषिता 
शब्दार्थ -मारणान्तिकीं-मरण काल उपस्थित होने पर,सल्लेखनाम् -सल्लेखना धारण करनी चाहिए,जोषिता-प्रीति/उत्साहपूर्वक
अर्थ -गृहस्थ श्रावक को मरण काल आने पर प्रीतिपूर्वक सल्लेखना धारण करनी चाहिए !
इस लोक और परलोक संबंधी किसी वांछा की अपेक्षा रहित ,बाह्य  शरीर एवं कषायों को कृश/लेखना  करना सल्लेखना है ! 
भावार्थ-व्रती मरण के समय भाव रखता है कि अब मेरा जीवनभर किये गए धार्मिक कार्यों की परीक्षा का समय आया है अत: विधिवत सल्लेखना धारण करूगा! सम्यक रीति से काय और कषायों को क्षीण करना सल्लेखना है !
विशेष -मृत्यु का काल आने पर गृहस्थों को सबसे से मोह त्यागना चाहिए,धीरे धीरे भोजन का त्याग,फिर पेय का त्याग कर शरीर को कृश करते हुए कषायों को कृश करना चाहिए !
सल्लेखना लेने की विधि -
गृहस्थ/श्रावक अपने शरीर में शिथिलता का आभास होने पर.की उसकी अब अधिक आयु शेष नहीं है, वह अपनी समस्त सम्पति,धन/दौलत का त्याग कर सबसे क्षमा याचना कर,निर्विकल्प होकर,पुरुष किसी अनुभवी  आचार्य श्री और महिला अनुभवी आर्यिका माता जी के समक्ष जाकर निवेदन करते है कि प्रभु,मेरा शरीर शिथिलता की ओर अग्रसर हो रहा है,अत मैं सल्लेखना पूर्वक अपने शरीर को त्यागना चाहता/ चाहती हूँ ,मेरा/मेरी सलीखना पूर्वक शरीर त्याग करवा दीजिये 'आचार्यश्री /आर्यिका माता जी शनै शनै आपका आहार ,जल का त्याग करवाते हुए उपवास करवाएंगे,उपवास करते हुए आप अपने शरीर को सहर्ष त्याग करेंगे 
! यदि श्रावक युवावस्था में क्षुल्ल्क ,क्षुल्लिका ,ऐलक ,मुनि/आर्यिका  पद धारण कर ले तो सल्लेखना के लिए बहेतर है !
शंका - इस प्रकार जानबूझकर मरणा क्या आत्म हत्या नहीं है?
समाधान- आत्महत्या,कोई स्त्री पुरुष,परस्पर में द्वेष वश,विषपान अथवा फांसी इत्यादि लगाकर करते है !सल्लेखना में ऐसा नहीं है
,जैसे किसी व्यापारी की दूकान/घर में आग लग जाने पर वह सर्प्रथम दूकान/घर को आग से बचने का प्रयत्न करता है ,यदि उसे नहीं बचा पाता  तो वहां पर रखे धन को बचाने का प्रयास कर बचाता है,इसी प्रकार गृहस्थ शरीर के द्वारा धर्म को साधता है ,उसके वह नष्ट नहीं होने देना चाहता !इसलिए सर्वप्रथम शरीर को रोगग्रस्त से क्षीण होने से औषधियों  द्वारा उपचार कर उसे बचने का भरसक प्रयत्न करता है ,किन्तु यदि उसे मृत्यु से  बचाने  का कोई उपाय नहीं मिलने पर,ध्रीर को नहीं बचाकर,उसके द्वारा अर्जित धर्म की रक्षा हेतु, शरीर को स्वेच्छा से, सहर्ष त्यागता है,इसलिए सल्लेखना, आत्म हत्या से सर्वथा भिन्न है ! पहली में कषाय का संयोग  नहीं है जबकि दूसरी में कषायों की ही  प्रधनता है !
शंका -किसी व्यक्ति के कोमा में आने पर कपड़े उतार देने से क्या उसकी सलेखना हो जाएगी ?
समाधान-
इस अवस्था में जीव को स्व विवेक नहीं है इसलिए सल्लेखना नहीं होगी !


श्रावक/व्रतियों द्वारा धारण किये ५ अणुव्रतो,३ गुणव्रतों और ४ शिक्षा व्रतों के निरतिचार पालन करने से उनका दोष रहित पालन होगा!इस के लिए,१२ व्रतों के अतिचार बताने से पूर्व,आचर्यश्री ने  समयग्दर्शन के ५ अतिचारों का उल्लेख निम्न सूत्र में किया है,जिनके अभाव में उनका  निरतिचार पूर्वक धारण करना असम्भव है !

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तत्वार्थ सुत्र अध्याय ७ भाग २ - by scjain - 03-31-2016, 08:19 AM
RE: तत्वार्थ सुत्र अध्याय ७ भाग २ - by Manish Jain - 07-13-2023, 10:32 AM

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