तत्वार्थ सुत्र अध्याय ८ भाग ८
#1


ततश्चनिर्जरा-!!२३!!


संधि विच्छेद-ततश्च +निर्जरा
शब्दार्थ-ततश्च -उन कर्मों की ,निर्जरा-आत्मा से पृथक हो जाते है 
अर्थ-  इसके बाद (फल देने के बाद), वे कर्म आत्मा से पृथक हो जाते है! कर्म उदय में आकर फल देने के पश्चात आत्मा से पृथक हो जाते है अर्थात उनकी निर्जरा हो जाती है!

निर्जरा दो तरह की है!
सविपाक-समय पर कर्म उदय में आकर,फल देकर आत्मा से पृथक हो गया,यह सविपाक निर्जरा है!सविपाक निर्जरा संसार के समस्त जीवों,निगोदिया के भी होती है!
अविपाक निर्जरा-कर्म के फल देने के समय से पूर्व ही,तपश्चरण के द्वारा, उसे उदय में लाकर,फल लेकर,उसे आत्मा से पृथक करना,अविपाक निर्जरा है!अविपाक निर्जरा सम्यकत्व के सम्मुख जीव के होती है,सम्यकत्व और व्रतों के धारण करने वाले जीवों की होती है!
अविपाक निर्जरा का प्रारंभ पहले गुणस्थान से होता है!मिथ्यादृष्टि जीव जो सम्यक्त्व प्राप्त करने की ऒर अग्रसर हो रहा है, सम्यकत्व प्राप्ति के सम्मुख है,पञ्च लाब्धियों में से करणलब्धि में आ गया है,उसे अध:करण में नहीं,अपूर्वकरण के प्रारम्भ से पहले ही,प्रथम गुणस्थान से अविपाक निर्जरा शुरू हो जाती है!अविपाक निर्जरा का प्रारंभ प्रथम गुणस्थान के उस जीव के हो जाता है,जो सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए अपूर्वकरण में प्रवेश कर चुका है!पूरे अपूर्वकरणकाल और अनिवृतिकरणकाल में मिथ्यादृष्टि की असंख्यात-असंख्यात गुणी निर्जरा होती है!फिर वह चौथे गुणस्थान में पहुँचता है,वहा से अलग-अलग प्रकार से निर्जरा होती रहती है!दूसरे-तीसरे गुणस्थान में कोई अविपाक निर्जरा नहीं होती,मात्र सविपाक निर्जरा होती है!पहले गुणस्थान में भी यदि सम्यक्त्व के सम्मुख जीव करण लब्धि में नहीं है,उसने अपूर्वकरण में प्रवेश नहीं किया तब भी अविपाक निर्जरा नहीं होगी !
अकाम निर्जरा क्या होती है-अकाम निर्जरा-अकस्मात् कोई कष्ट आने पर उसे शांति पूर्वक सहना,अकाम निर्जरा है!संसार के सभी सम्यगदृष्टि,मिथ्यादृष्टि जीवों के यह हो सकती है!किन्तु यह अविपाकनिर्जरा नहीं है,अकामनिर्जरा है!
हमारे कितने कर्मों की अविपाक निर्जरा प्रति समय होती है?
प्रत्येक जीव,चाहे वह एकेन्द्रि ही हो,समयप्रबद्ध कार्मण वर्गणाओ (अनंत कार्मण वर्गणाओ को) प्रति समय ग्रहण करता है,कर्म बंधते है तथा अनंत कार्मण वर्गणाये फल देकर झरती है!कर्मो का अनुभाग तीव्र या मंद किस प्रकार होता है?
इसके लिए १४८ कर्म प्रकृतियों को पृथक-पृथक पुण्य और पाप प्रकृतियों में विभक्त करना होगा !घातियाकर्मों की ४७ प्रकृतिय पापरूप ही है,अघातियाकर्मों की पाप और पुण्य ,दोनो तरह की प्रकृतियाँ है!पुण्यप्रकृतियों का कषाय कम होने पर अनुभाग अधिक होगा किन्तु कषाय अधिक है तो इन पुण्य प्रकृति का अनुभाग कम बंधेगा, अगर कषाय की मंदता से सातावेदनीय बंधी है तो फलदान अधिक होगा,यदि तीव्रकषाय से बंधी है तो सातावेदनीय का फलदान कम होगा!पापकर्म  बंध के समय कषायों की तीव्रता होने पर पापकर्म में फलदान शक्ति अधिक होगी,यदि मंदता है तो उनकी फलदान शक्ति मंद होगी !
बंधे कर्मों का अनुभाग बदला जा सकता है-
किसी कर्म को कोई जीव तीव्र कषाय में बंधता है तो उसका पापबंध तीव्र फलदान वाला होगा किन्तु यदि वह क्षमा याचना कर लेता है अथवा प्रायश्चित ले लेता है तो उससे बंधेकर्म की फलदान शक्ति, मंद हो जाती हैइ सी कारण मुनिमहाराज दिन में तीन बार प्रतिक्रमण करते है जिसके फलस्वरूप उनके बंधेकर्मों का अनुभाग कम कर लेते है!इसीलिए प्रायश्चित करने का विधान है!बंधे कर्म का अनुभाग उदय के समय बढ़- घट सकता है!यदि पाप बंध मंद कषाय में बंधा है तो उसका अनुभाग मंद बंधेगा जो की बाद में परिणामों में तीव्र कषाय आने से बढ़ जाता है!कर्मों कर्मों के अनुभाग का बढना उत्कर्ष और घटना अपकर्ष कहलाता

प्रदेश बंध के लक्षण (कितनी कर्माणवर्गणाये आत्मा के साथ बंधती है)

नामप्रत्यया:सर्वतोयोगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावागाहस्थिता:सर्वात्म-प्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः !!२४!!
संधि विच्छेद-
नामप्रत्यया:+सर्वत:+योगविशेषात्+सूक्ष्म+ऐकक्षेत्रावागाह+स्थिता:+सर्वात्मप्रदेशेषु+अनन्तानन्त

प्रदेशाः!
शब्दार्थ -
नामप्रत्यया:-अपने २ नाम में कारण रूप अर्थात जैसे दर्शनावरण/ज्ञानावरण प्रकृति के कारण , जो कर्माण वर्गणाय़े परिणमन करने की योग्यता रखती है वे दर्शनावरण/ज्ञानावरनादि कर्म रूप बंधती है! यह नाम प्रत्यय से सूचित होता है कि  कर्म प्रदेश ज्ञानवरणीयादि अष्ट कर्म प्रकृतियों के कारण है !

सर्वत:- कर्माणवर्गणाये प्रति समय सभी भवों में  बंधती है !अर्थात कर्म प्रदेश सब भवो में बंधते है !
योगविशेषात् - योग-मन,वचन,काय की क्रिया द्वारा आत्म प्रदेशों के परिस्पंदन अधिक है तो अधिक  कर्म रूप पुद्गल ग्रहण किये जाते है अर्थात अधिक कर्मों प्रदेश बंध होता है ,कम परिस्पंदन है तो कम बंधेंगे !
सूक्ष्म-किसी से नहीं रुकने वाली और किसी को नहीं रोक ने वाली सूक्ष्म कर्माणवर्गणाय़े  ही कर्म रूप परिणमन करती है स्थूल नहीं !अर्थात  बंध सूक्ष्म ही  स्थूल नहीं !
ऐकक्षेत्रावागाह-आत्मा के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह रूप,अर्थात पहले से न वर्गणाए मोजूद  होती है! क्षेत्र के अंतर के  निराकरण के लिए   एक क्षेत्रावगाह कहा है,अर्थात जिस आकाश प्रदेश में आत्म प्रदेश रहते है उसी आकाश प्रदेश में कर्म योग्य पुद्गल भी ठहर जाते है !
स्थिता:- रुकी हुई होती है! क्रियान्तर की निवृति के लिए स्थित: कहा  है अर्थात ग्रहण करने योग्य पुद्गल स्थिर  होते है गमन नहीं करते !
सर्वात्म-प्रदेशेषु -कर्माणवर्गणाये, कर्म रूप हो कर, सभी आत्मप्रदेशों में बंधती है! कर्म प्रदेश आत्मा के एक प्रदेश में नहीं वरन  समस्त दिशाओं के प्रदेशों में व्याप्त होकर स्थिर रहते है ! जैसे हमने एक हाथ से सामग्री चढ़ाई तो सातावेदनीय का बंध मात्र उसी हाथ में ही नहीं होता बल्कि शरीर के समस्त आत्म प्रदेशों में प्रदेश बंध होता है!
अनन्तानन्त प्रदेशाः-अनंतानंत प्रदेश परमाणु प्रति समय बंधते है!
भावार्थ -संसार में आठ प्रकार के कर्माणवर्गणाये है,जो ज्ञानावरण योग्यता वाली आयेगी वे  ज्ञानावरणकर्म रूप, दर्शनावरण योग्यता वाली आयेगी वे दर्शनावरणकर्म रूप,आयु कर्म योग्यता वाली आयेगी वे आयुकर्म रूप परिणमन करेगी इसी प्रकार अन्य पञ्च कर्मों की योग्यता वाली  कर्माणवर्गणाये अपने अपने नामानुसार कर्म रूप परिणमन करेगी!अननतनतप्रति  वाले  पुद्गल कर्मो का विभाजन आयुकर्म  अपकर्ष कालों  को छोड़कर  प्रति समय सातों कर्मों में होता है और अपकर्ष कालों में आठों कर्मों में होता है !


कर्माणवर्गणाओ का अष्ट कर्मों में विभाजन-सबसे अधिक कर्माणवर्गणाये वेदनीय कर्म के हिस्से में आती है क्योकि सबसे अधिक काम में सुख-दुःख रूप यही आता है! उससे कम मोहनीय कर्म को मिलती है क्योकि ओह्नीय कर्म का स्थिति बंध सर्वाधिक ७० कोड़ाकोडी सागर है,उस से कम ज्ञानावरण,दर्शनावरण और अन्तरायकर्म को  बराबर मिलता है क्योकि इनका स्थितिबंध ३० कोड़ाकोडी सागर है!मिलता है,इस से कम नामकर्म और गोत्रकर्म को एक बराबर मिलता है क्योकि उनका स्थितिबंध २०-कोड़ाकोडी सागर है! सबसे कम आयु कर्म को केवल अपकर्ष काल में मिलता है!
कर्माणवर्गणाये प्रति समय आती है!योग की विशेषता अर्थात मन,वचन ,काय की क्रिया द्वारा यदि आत्म प्रदेशो में परिस्पंदन अधिक होता है तो अधिक आयेगी और यदि कम होता है तो कम आयेगी!अत: योग की विशेषता से कर्म-प्रदेश बंध होता है !ये कर्माणवर्गणाये सूक्ष्म होती है,किसी वस्तु से बाधित नहीं होती और नहीं किसी वस्तु को बाधित करती है! आत्मप्रदेशो के साथ एक क्षेत्रावागाह(एक में एक) होकर स्थित ,रुकी  हुई रहती है!ये समस्त आत्मप्रदेशों से बंधती है!

विशेष-उक्त सूत्र में  प्रदेश बंध का विचार किया गया है जो पुद्गल परमाणु कर्म रूप जीव द्वारा सभी भवों में  ग्रहण  किये जाते है  वे योग के निमित्त से ,आयुकर्म के आठ अपकर्ष कालों के अतिरिक्त  ज्ञानवारणीयादि सात कर्मों में  प्रति समय परिणमन  करते  है तथा अपकर्ष कालों में आठों करमोन में परिणमन करते है !जिस क्षेत्र में आत्मा स्थित  होती है उसी क्षेत्र के कर्म परमाणु को ग्रहण करती है अन्य के नहीं !ग्रहण किये गए अनन्तानन्त कर्म परमाणु आत्मा के सभी प्रदेशों में व्याप्त होते है !



पुण्य प्रकृतियाँ-
सद्वेद्य -शुभायुर्नाम गोत्रणि पुण्यं !!२५!!
 संधि विच्छेद -सद्वेद्य+शुभ( आयु:+नाम)+गोत्रणि+पुण्यं
शब्दार्थ -सद्वेद्य-साता वेदनीय,शुभआयु:,शुभनाम,गोत्रणि-शुभ/उच्च गोत्र कर्म,प्रकृतियाँ ,पुण्य प्रकृतियां है !
अर्थ-साता वेदनीय,शुभ आयु-अर्थात तिर्यंच,देव और मनुष्य आयु ,उच्च गोत्र, और शुभ नामकर्म  की   पुण्य प्रकृतियाँ  है!

भावार्थ-
साता वेदनीय-१ ,शुभ ३-आयु कर्म अर्थात तिर्यंच,देव और मनुष्य आयु ,शुभनाम-३७  और उच्च गोत्र -१ पुण्य प्रकृतियाँ है! शुभ नाम कर्म की ३७ प्रकृतियाँ- 
गति-मनुष्य और देव-२,जाति पंचेन्द्रिय-१,शरीर-५,अंगोपांग-३,समचतुरसंस्थान-१,वज्रऋषभनारांचसहनन-१, प्रशस्त (शुभ )रस,गंध,वर्ण,स्पर्श-४,मनुष्य और देवगत्यानुपूर्वी-२,अगुरुलघु-१,परघात-१,उच्छवास-१,आतप-१ उद्योत-१,प्रशस्त विहायोगति-१,त्रस-१,बादर-१,पर्याप्ति-१,प्रत्येकशरीर-१, स्थिर-१,शुभ-१, सुभग-१,सुस्वर-१, आदेय-१, यशकीर्ति -१,निर्माण-१,तीर्थंकर -१,ये ४२-पुण्य प्रकृतियाँ   है !   


पाप प्रकृतियाँ-
अतोऽन्यत्पापम्   !!२६ !!
संधि विच्छेद- अतो अन्यत् +पापम्  

शब्दार्थ-अतो अन्यत् -इसके अलावा सब ,पापम् -पाप प्रकृतियाँ है! 
अर्थ-पुण्य प्रकृतियों के अतिरिक्त सभी पाप प्रकृतियाँ हैं !

भावार्थ-
घातिया कर्मो की सभी(ज्ञानावरण की ५,दर्शनावरण-९,मोहनीय -२६,अंतराय-५,)४५ प्रकृतियाँ पापरूप प्रकृतियाँ है!वेदनीय में असाता वेदनीय,गोत्र में नीच गोत्र, आयु में नरकायु,नाम कर्म की गति-नरक और तिर्यंच-२,जाति;एकेन्द्रिय से चतुरिंद्रिय-४,संस्थान-५,सहनन-५,अपर्याप्तक,अप्रशस्त(रस,गंध,वर्ण, -
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