कर्म और उसके भेद
#1

# कर्म किसे कहते है ?

 जो आत्मा को परतंत्र करता है , दुःख देता है संसार परिभ्रमण करता है
उसे कर्म कहते है !
 पुद्गल स्कंध जो कर्मरूप हो सकते है उसे कार्मण वर्गणा कहते है !
लोकाकाश कार्मण वर्गणा से खचाखच भरा हुआ है।
जीव अनादी काल से कर्मोंसे बद्ध है ! ये ऐसा नहीं है की जीव पहले मुक्त था और
बाद में कर्मोंसे बद्ध हुआ ! वह तो अनादी काल से कर्मोंसे बद्ध है !
कर्मोंके उदय के निमित्तसे आत्मा रागद्वेष आदि परिणमन करता है !
जीव के इस परिणमन के निमित्त से पुद्गल कार्मण वर्गणा कर्म रूप परिणमन करते है और
पुर्वबदध कर्मोंसे बद्ध हो जाते है !
कर्मोंका उदय - जीव का रागद्वेष परिणमन - कर्मोंका आस्रव - कर्मोंका बंध -
कर्मोंका उदय यह सिलसिला अनादी काल से चल रहा है !
 जीव के रागद्वेष परिणाम के निमित्त रहते हुए कार्मण वर्गणा रूप पुद्गल स्कंध
कर्मरूप परिणित होना और आत्मप्रदेश से बद्ध परस्पर अवगाह रूप होना उसे
कर्म कहते है !
वैसे देखा जाए तो वह आत्म प्रदेश में पूर्व बद्ध कर्मोंसे बद्ध होता है !
>> कर्म के दो मूलभूत भेद है !
. द्रव्य कर्म . भाव कर्म
> पुद्गल के पिंड को द्रव्य कर्म कहते है।
> उसमे जो फल देने की शक्ति है अथवा उस कर्म के निमित्त से जो आत्मा के राग
- द्वेष , अज्ञान आदि भाव होते है उसे भाव कर्म कहते है।
>>कर्म के आठ भेद भी कहे है
) ज्ञानावरण - जो आत्मा के ज्ञान गुण पर्याय पर आवरण डालने में निमित्त होता है
उसे ज्ञानावरण कर्म कहते है !
इसके पांच भेद है मति - ज्ञानावरण , श्रुत -ज्ञानावरण , अवधि -ज्ञानावरण
, मनःपर्यय-ज्ञानावरण , केवलज्ञान - ज्ञानावरण कर्म ये अनुक्रमसे मति , श्रुत
, अवधि , मनःपर्यय , और केवल ज्ञान गुण को ढकता है !
) दर्शनावरण - जो आत्मा के दर्शन गुण पर्याय के घात में निमित्त है उसे दर्शनावरण कर्म कहते
है !
इसके भेद है चक्षुदर्शनावरण , अचक्षुदर्शनावरण , अवधिदर्शनावरण ,
केवलदर्शनावरण , निद्रादर्शनावरण , प्रचाला दर्शनावरण , निद्रानिद्रा
दर्शनावरण , प्रचला -प्रचला दर्शनावरण , स्त्यानगृध्दि दर्शनावरण
) वेदनीय - जो आत्मा को सुख दुःख रूप भाव के वेदन में निमित्त हैे उसे वेदनीय
कर्म कहते है !
इसके दो भेद है - . साता वेदनीय .असाता वेदनीय
साता वेदनीय - जो कर्म जीव के सुख रूप भाव के वेदन में निमित्त है उसे साता
वेदनीय कर्म कहते है !
असाता वेदनीय - जो जीव के दुःखरूप भाव के वेदन में निमित्त है उसे असाता
वेदनीय कर्म कहते है !
) मोहनीय - जिसके उदय से जीव अपना स्वरुप भूलकर अन्य को अपना
समझता है उसे मोहनीय कर्म कहते है ! या जो कर्म आत्मा के सम्यक दर्शन , सम्यकचारित्र्य
पर्यायाके घात में और मिथ्यात्व , रागादी परिणामोंके उत्पति में निमित्त रहता है उसे मोहनीय
कर्म कहते है !
इसके दो भेद है . दर्शन मोहनीय . चारित्र्य मोहनीय
दर्शन मोहनिय - जिस कर्मके उदयसे जीव के सम्यक्दर्शन होने में और मिथ्यात्वादी भाव
उत्पत्ति के निमित्त रहता है उसे दर्शनमोहनिय कर्म कहते है !
चारित्र्य मोहनीय - जिस कर्म के उदय से स्वरुपाचरणादी चारित्र्य पर्ययोंके घात में और
और असंयम भाव होने में निमित्त रहता है उसे चारित्र्य मोहनीय कर्म कहते है !
) आयु कर्म - जो जीव को नरक , तिर्यंच , मनुष्य और देव में से किसी एक के शरीर में
रोकके रखता है उसे आयु कर्म कहते है।
) नाम - जिससे शरीर और अंगोपांग आदि की रचना होती है उसे नाम कर्म कहते है !
) गोत्र - जिससे जिव उच्च या नीच कुल में पैदा होता है उसे गोत्र कर्म कहते है !
) अंतराय - जो दान , लाभ आदि में विघ्न डालता है उसे अंतराय कर्म कहते है।
# इन आठ कर्मो में भी घातिया -अघातिया के भेद से दो भेद होते है।
> घातिया कर्म -जो जीव के अनुजीवी गुणों के पर्ययोंको घात में निमित्त होता है वह घातिया कर्म
है। ( कौनसा भी कर्म आत्मा के गुण का घात को निमित्त नहीं होता वह पर्याय को निमित्त होता 
है ! )
> अघातिया कर्म -जो पूर्णतया जीव के अनुजीवी गुणों के पर्ययोंको घात में निमित्त नहीं
होता है उसे अघातिया कर्म है।
ज्ञानावरणीय , दर्शनावरणीय , मोहनीय और अंतराय ये चार घातिया कर्म है शेष अघातिया कर्म है।
 
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कर्म और उसके भेद - by scjain - 08-30-2016, 07:56 AM
RE: कर्म और उसके भेद - by Manish Jain - 03-30-2023, 09:25 AM

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