daslakshan dharma - दशलक्षण धर्म
#2

उत्तम क्षमा धर्म

पीढें दुष्ट अनेक, बाँध-मार बहुविधि करे।
धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा।।

उत्तम क्षमा गहो रे भाई, यह भव जस-पर भव सुखदाई।
गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहे अयानो।।

कहि है अयानो वस्तु छीने, बाँध मार बहुविधि करे।
घर तें निकारे तन विदारे, बैर जो न तहँ धरे।।
जे करम पूरब किये खोटे, सहे क्यों नहीं जीयरा।
अति क्रोध अग्नि बुझाय प्राणी, साम्य-जल ले सीयरा।।

अर्थ:
आदरणीय कविवर पंडित द्यानतराय जी कहते हैं, “दुष्ट-चित्त (मन) के धारकों द्वारा अनेक प्रकार की पीड़ा (बाधाएँ, परेशानियाँ, रुकावट) पहुंचाए जाने पर भी, बाँधने पर भी, मारने इत्यादि पर भी विवेकी जीवों को क्षमा तथा विवेक का त्याग नहीं करना चाहिए तथा कोप (क्रोध, गुस्सा) नहीं करना चाहिए।”
आगे कविवर कहते हैं, “हे भव्य जीवो! उत्तम क्षमा को गहो (ग्रहण,धारण करो) क्योंकि यह इस भव में यश तथा पर (दूसरे, आगे के) भव में भी सुख का कारण है।”
“विवेकी जन गाली को सुनकर भी मन में खेद नहीं करते हैं।”
तथा, “गुण को अवगुण कहने पर भी, स्वभाव के विपरीत बात कहने पर भी उन्हें क्रोध नहीं आता।”
“अब चाहे वह उल्टी बात करे, अपनी वस्तु छीन ले, बाँधे, मारे, घर से निकाले, तन (शरीर) को छिन्न-भिन्न कर दे, तो भी उनसे बैर करना श्रेयस्कर नहीं है।”
क्योंकि, “हमारे द्वारा पूर्व में किये गए पापों का फल तो आएगा ही, उनको सहन हम नहीं तो कौन सहन करेगा? इसलिए क्रोध-रूपी अग्नि को बुझाकर साम्य (समता) भाव रूपी जल उस अग्नि पर सिंचन करना चाहिए।”

taken from https://forum.jinswara.com/t/daslakshan-...-arth/3016
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