09-20-2021, 10:48 AM
उत्तम मार्दव धर्म
मान महा-विष-रूप, करहि नीच गति जगत में।
कोमल सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदा।।
उत्तम मार्दव गुण मन माना, मान करन को कौन ठिकाना?
बस्यो निगोद माँहि तें आया, दमड़ी रूंकन भाग बिकया।।
रूकन बिकाया भाग वशतें, देव इक-इंद्री भया।
उत्तम मुआ चांडाल हूवा, भूप कीड़ों में गया।।
जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करे जल-बुदबुदा।
करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावें उदा।।
अर्थ:
कविवर कहते हैं, “मान महाविष रूप (हलाहल ज़हर) के समान है तथा नीच गति (नरक,तिर्यंच) का कारण है।”
“कोमलता अर्थात मार्दव अमृत के समान है और उसको धारण करने वाला प्राणी निरंतर सुख ही पाता है।”
आगे, “उत्तम मार्दव गुण मन में लाना चाहिये क्योंकि मान करने के लिए जगत में कोई भी वस्तु नहीं है।
अनादिकाल से यह जीव (मैं) निगोद में रहा तथा वनस्पति-कायिक में जन्म लेने पर दमड़ी (कौड़ियों) के भाव बिका।”
[बाजार में सब्जी लेते समय जो भाजी डलवाते हैं (यहाँ पंडित जी ने उसे रूंकन कह रहे हैं), उसकी कोई कीमत नहीं देता। उसकी ही बात यहाँ पंडित जी कर रहे हैं, कि हम उस गति में जाकर हो आये, तो घमंड करने के लिए कहाँ अवसर रहा?]
आगे पंडित जी लिखते हैं, “मैं जीव कहाँ-कहाँ किन-किन गतियों में गया? कि, मैं भाग्यवश देव हुआ, परंतु वहाँ भी मोह के कारण वहाँ से एक इन्द्रिय अवस्था में चला गया। कभी उत्तम मनुष्य हुआ, कभी चांडाल हुआ, कभी राजा बना तो कभी कीड़े की अवस्था में चला गया।”
मतलब, “देव भी जब एक-इन्द्रिय जीव, उत्तम कुलीन मनुष्य भी चाण्डाल तथा राजा भी जब कीड़ा बन सकता है, तो किस बात का मान?“
अतः, “जीवन, यौवन तथा धन का गुमान (घमंड) करने लायक नहीं है क्योंकि ये तो जल के बुलबुले के समान कुछ समय में ही नष्ट होने वाले हैं।”
और “जो जीव अपने से बड़ेजनों (वय अर्थात उम्र तथा गुणों में बड़े) की विनय करते हैं, उन्हें ही सम्यक ज्ञान की प्राप्ति होती है।”
इस प्रकार, सर्व प्रकार के, सर्व प्रकार से इस मद, अभिमान, घमंड या मान का त्याग कर के समता धारण करना योग्य है।
Taken from : https://forum.jinswara.com/t/daslakshan-...-arth/3016
मान महा-विष-रूप, करहि नीच गति जगत में।
कोमल सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदा।।
उत्तम मार्दव गुण मन माना, मान करन को कौन ठिकाना?
बस्यो निगोद माँहि तें आया, दमड़ी रूंकन भाग बिकया।।
रूकन बिकाया भाग वशतें, देव इक-इंद्री भया।
उत्तम मुआ चांडाल हूवा, भूप कीड़ों में गया।।
जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करे जल-बुदबुदा।
करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावें उदा।।
अर्थ:
कविवर कहते हैं, “मान महाविष रूप (हलाहल ज़हर) के समान है तथा नीच गति (नरक,तिर्यंच) का कारण है।”
“कोमलता अर्थात मार्दव अमृत के समान है और उसको धारण करने वाला प्राणी निरंतर सुख ही पाता है।”
आगे, “उत्तम मार्दव गुण मन में लाना चाहिये क्योंकि मान करने के लिए जगत में कोई भी वस्तु नहीं है।
अनादिकाल से यह जीव (मैं) निगोद में रहा तथा वनस्पति-कायिक में जन्म लेने पर दमड़ी (कौड़ियों) के भाव बिका।”
[बाजार में सब्जी लेते समय जो भाजी डलवाते हैं (यहाँ पंडित जी ने उसे रूंकन कह रहे हैं), उसकी कोई कीमत नहीं देता। उसकी ही बात यहाँ पंडित जी कर रहे हैं, कि हम उस गति में जाकर हो आये, तो घमंड करने के लिए कहाँ अवसर रहा?]
आगे पंडित जी लिखते हैं, “मैं जीव कहाँ-कहाँ किन-किन गतियों में गया? कि, मैं भाग्यवश देव हुआ, परंतु वहाँ भी मोह के कारण वहाँ से एक इन्द्रिय अवस्था में चला गया। कभी उत्तम मनुष्य हुआ, कभी चांडाल हुआ, कभी राजा बना तो कभी कीड़े की अवस्था में चला गया।”
मतलब, “देव भी जब एक-इन्द्रिय जीव, उत्तम कुलीन मनुष्य भी चाण्डाल तथा राजा भी जब कीड़ा बन सकता है, तो किस बात का मान?“
अतः, “जीवन, यौवन तथा धन का गुमान (घमंड) करने लायक नहीं है क्योंकि ये तो जल के बुलबुले के समान कुछ समय में ही नष्ट होने वाले हैं।”
और “जो जीव अपने से बड़ेजनों (वय अर्थात उम्र तथा गुणों में बड़े) की विनय करते हैं, उन्हें ही सम्यक ज्ञान की प्राप्ति होती है।”
इस प्रकार, सर्व प्रकार के, सर्व प्रकार से इस मद, अभिमान, घमंड या मान का त्याग कर के समता धारण करना योग्य है।
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