09-20-2021, 10:48 AM
उत्तम आर्जव धर्म
कपट न कीजे कोय, चोरन के पुर ना बसें।
सरल-सुभावी होय, ताके घर बहु-संपदा।।
उत्तम आर्जव-रीति बखानी, रंचक दगा बहुत दु:खदानी।
मन में हो सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सों करिये।।
करिये सरल तिहुँ जोग अपने, देख निरमल आरसी।
मुख करे जैसा लखे तैसा, कपट-प्रीति अंगार-सी।।
नहिं लहे लछमी अधिक छल करि, कर्म-बंध-विशेषता।
भय-त्यागि दूध बिलाव पीवे, आपदा नहिं देखता।।
अर्थ:
पंडित जी फरमाते हैं, “किसी को भी छल-कपट कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि चोरों के गांव कभी नहीं बसते” (ऐसा दुनिया में कोई भी गांव/शहर नहीं जहाँ मात्र चोर ही रहते हों, क्योंकि चोरी के कार्य में भी विश्वास का होना ज़रूरी है)।
“जो जीव सरल स्वभावी होते हैं, उनके घर में संपदा की अपने आप वृद्धि होती है।”
आगे पंडित जी लिखते हैं, “इस जगत में भी उत्तम आर्जव की ही रीति (प्रथा) अच्छी मानी है तथा रंच (थोड़ी-सी) भी दगा (बेईमानी) बहुत दुख को देने वाली होती है।”
इससे बचने के लिए, “जो मन में हो, उसे ही वचनों से कहना चाहिए तथा जो वचनों से कहें, वह क्रिया अर्थात आचरण में भी होना चाहिए।”
[यहां यह बात विशेष समझना कि अच्छी बातों को ही मन में सोचना चाहिए, वचनों से बोलना चाहिए तथा आचरण में लाना चाहिए। बुरे; असभ्य; दूसरों को हानि, दुख पहुंचाने वाले न तो विचार करना चाहिए, यदि विचार आ जाएं तो वचन में नहीं कहना चाहिए तथा वचनों में कदाचित आ भी जाए, तो आचरण में तो बिल्कुल भी नहीं लाना चाहिए।]
आगे पंडित जी कहते हैं, “जीवों को अपने तीनों योग (मन-वचन-काय) में एकता, समानता लाना योग्य है।”
“जिस प्रकार दर्पण सरल व स्वच्छ होता है, जैसा उसके सामने मुख (चेहरा) होता है, वैसा ही दिखाता है; वैसे ही हमें भी अपने मन-वचन-काय में समानता रखनी चाहिए।”
“तथा कपट से प्रीति (लगाव) अंगारे के समान है। जिसप्रकार अंगारे, ऊपर राख होने से ठंडे दिखते हैं, परंतु अंदर अग्नि होने के कारण छूने पर जला देते हैं; वैसे ही, कपट का भाव ऊपर से तो बहुत अच्छा दिखता है (ऐसा लगता है जैसे मैंने दूसरे को ठग लिया, बहुत अच्छा किया) परंतु वास्तविकता में ठग/कपटी स्वयं को ही ठग रहा है।” क्योंकि, कोई और ठगाया जाए अथवा नहीं, पाप कर्म का बंध होने से वह स्वयं ही ठगाया जा रहा है।
आगे लिखते हैं, “अधिक छल करने से अधिक लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, ऐसा नहीं है क्योंकि लक्ष्मी का मिलना अथवा नहीं मिलना तो पुण्य-पाप के उदय से होता है।”
“छल करने वाला कर्म को न देखते हुए वैसे ही पाप का बन्ध करता रहता है, जैसे बिल्ली पीछे से पड़ने वाली मार की तरफ ध्यान न देते हुए दूध पीती रहती है।”
[यहाँ विशेष यह समझना कि सामने वाले का ठगाया जाना अथवा नहीं ठगाया जाना, उसके कर्मोदय अनुसार होता है। तथा ठगी करने वाले को अपने परिणामों के अनुसार पाप-बंध होता है]
इस प्रकार, माया/छल-कपट/ठगी का भाव छोड़कर उत्तम आर्जव धर्म को धारण करना योग्य है।
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कपट न कीजे कोय, चोरन के पुर ना बसें।
सरल-सुभावी होय, ताके घर बहु-संपदा।।
उत्तम आर्जव-रीति बखानी, रंचक दगा बहुत दु:खदानी।
मन में हो सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सों करिये।।
करिये सरल तिहुँ जोग अपने, देख निरमल आरसी।
मुख करे जैसा लखे तैसा, कपट-प्रीति अंगार-सी।।
नहिं लहे लछमी अधिक छल करि, कर्म-बंध-विशेषता।
भय-त्यागि दूध बिलाव पीवे, आपदा नहिं देखता।।
अर्थ:
पंडित जी फरमाते हैं, “किसी को भी छल-कपट कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि चोरों के गांव कभी नहीं बसते” (ऐसा दुनिया में कोई भी गांव/शहर नहीं जहाँ मात्र चोर ही रहते हों, क्योंकि चोरी के कार्य में भी विश्वास का होना ज़रूरी है)।
“जो जीव सरल स्वभावी होते हैं, उनके घर में संपदा की अपने आप वृद्धि होती है।”
आगे पंडित जी लिखते हैं, “इस जगत में भी उत्तम आर्जव की ही रीति (प्रथा) अच्छी मानी है तथा रंच (थोड़ी-सी) भी दगा (बेईमानी) बहुत दुख को देने वाली होती है।”
इससे बचने के लिए, “जो मन में हो, उसे ही वचनों से कहना चाहिए तथा जो वचनों से कहें, वह क्रिया अर्थात आचरण में भी होना चाहिए।”
[यहां यह बात विशेष समझना कि अच्छी बातों को ही मन में सोचना चाहिए, वचनों से बोलना चाहिए तथा आचरण में लाना चाहिए। बुरे; असभ्य; दूसरों को हानि, दुख पहुंचाने वाले न तो विचार करना चाहिए, यदि विचार आ जाएं तो वचन में नहीं कहना चाहिए तथा वचनों में कदाचित आ भी जाए, तो आचरण में तो बिल्कुल भी नहीं लाना चाहिए।]
आगे पंडित जी कहते हैं, “जीवों को अपने तीनों योग (मन-वचन-काय) में एकता, समानता लाना योग्य है।”
“जिस प्रकार दर्पण सरल व स्वच्छ होता है, जैसा उसके सामने मुख (चेहरा) होता है, वैसा ही दिखाता है; वैसे ही हमें भी अपने मन-वचन-काय में समानता रखनी चाहिए।”
“तथा कपट से प्रीति (लगाव) अंगारे के समान है। जिसप्रकार अंगारे, ऊपर राख होने से ठंडे दिखते हैं, परंतु अंदर अग्नि होने के कारण छूने पर जला देते हैं; वैसे ही, कपट का भाव ऊपर से तो बहुत अच्छा दिखता है (ऐसा लगता है जैसे मैंने दूसरे को ठग लिया, बहुत अच्छा किया) परंतु वास्तविकता में ठग/कपटी स्वयं को ही ठग रहा है।” क्योंकि, कोई और ठगाया जाए अथवा नहीं, पाप कर्म का बंध होने से वह स्वयं ही ठगाया जा रहा है।
आगे लिखते हैं, “अधिक छल करने से अधिक लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, ऐसा नहीं है क्योंकि लक्ष्मी का मिलना अथवा नहीं मिलना तो पुण्य-पाप के उदय से होता है।”
“छल करने वाला कर्म को न देखते हुए वैसे ही पाप का बन्ध करता रहता है, जैसे बिल्ली पीछे से पड़ने वाली मार की तरफ ध्यान न देते हुए दूध पीती रहती है।”
[यहाँ विशेष यह समझना कि सामने वाले का ठगाया जाना अथवा नहीं ठगाया जाना, उसके कर्मोदय अनुसार होता है। तथा ठगी करने वाले को अपने परिणामों के अनुसार पाप-बंध होता है]
इस प्रकार, माया/छल-कपट/ठगी का भाव छोड़कर उत्तम आर्जव धर्म को धारण करना योग्य है।
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