09-20-2021, 10:51 AM
उत्तम शौच धर्म
धरि हिरदै संतोष, करहु तपस्या देह सों।
शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में।।
उत्तम शौच सर्व-जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना।
आशा-पास महादु:खदानी, सुख पावे संतोषी प्रानी।।
प्रानी सदा शुचि शील-जप-तप, ज्ञान-ध्यान प्रभाव तें।
नित गंग जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि-दोष स्वभाव तें।।
ऊपर अमल मल-भर्यो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहे।
बहु देह मैली सुगुन-थैली, शौच-गुन साधु लहे।।
अर्थ:
कविवर लिखते हैं, कि “जीव के ह्रदय अर्थात अंतर के परिणामों में संतोष होना चाहिए तथा देह (शरीर) से उसे सदैव तपस्या करनी चाहिए। तथा शौच धर्म का पालन करने वाला सदैव निर्दोष होता है, इसलिये उसे सबसे बड़ा धर्म कहा गया है।”
[यहाँ अंतिम दो पंक्तियों से पंडित जी यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि, “लोक के समस्त पाप लोभ के वशीभूत होकर होते हैं। लोभी जीव वस्तु की प्राप्ति के लिए हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, यदि वस्तु मिल जाती है तो कुशील के भाव कर हर्ष मनाता है तथा परिग्रह को जोड़ने में ही निरन्तर समय व्यतीत करता रहता है। इस प्रकार, समस्त पापों के पीछे लोभ ही मुख्य कारण है।”
तथा, “जब लोभ का नाश हो जाता है तब जीव स्वतः ही निर्दोष हो जाता है।”]
आगे पंडित जी लिखते हैं, “उत्तम शौच धर्म सर्व जगत में प्रसिद्ध है, तथा ‘लोभ पाप का बाप है’, यह कथन भी लोक में विख्यात है। कहते हैं, आशा रूपी जो पाश (बन्धन/रस्सी) है, वह महा दुख को देने वाली है तथा संतोषी प्राणी ही सुख प्राप्त करता है।”
आगे लिखते हुए पंडित जी फरमाते हैं, “प्राणी अर्थात जीव शील, जप-तप, ज्ञान-ध्यान के भावों से ही शुचि अर्थात स्वच्छ होता है। नित्य गंगा-यमुना अथवा समुन्द्रों के पूरे जल से भी यदि इस देह (शरीर) को स्वच्छ करने का प्रयास करोगे, तो भी यह स्वच्छ होने वाली नहीं है।
यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे कोई घड़ा ऊपर से तो अमल (स्वच्छ) हो तथा अंदर से उसमें मल भरा हुआ हो तो कौन उसे स्वच्छ कहेगा?; वैसे ही, यह देह भी ऊपर से तो सुंदर दिखाई देती है परंतु अंदर झांकने पर इसके समान अस्वच्छ वस्तु कोई नहीं है।”
“इसलिए ज्ञानीजन इस मैली देह के राग को छोड़कर अनंत गुणों की पोटली जो भगवान आत्मा तथा उत्तम शौच धर्म है, उसे धारण करते हैं।”
इस प्रकार, पंडित जी ने ‘गागर में सागर’ के समान इन पंक्तियों में भावों को भरा है। तथा इन्हें पढ़कर के हमें भी “उत्तम शौच धर्म” को धारण करना चाहिए।
Read more at: https://forum.jinswara.com/t/daslakshan-...-arth/3016
धरि हिरदै संतोष, करहु तपस्या देह सों।
शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में।।
उत्तम शौच सर्व-जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना।
आशा-पास महादु:खदानी, सुख पावे संतोषी प्रानी।।
प्रानी सदा शुचि शील-जप-तप, ज्ञान-ध्यान प्रभाव तें।
नित गंग जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि-दोष स्वभाव तें।।
ऊपर अमल मल-भर्यो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहे।
बहु देह मैली सुगुन-थैली, शौच-गुन साधु लहे।।
अर्थ:
कविवर लिखते हैं, कि “जीव के ह्रदय अर्थात अंतर के परिणामों में संतोष होना चाहिए तथा देह (शरीर) से उसे सदैव तपस्या करनी चाहिए। तथा शौच धर्म का पालन करने वाला सदैव निर्दोष होता है, इसलिये उसे सबसे बड़ा धर्म कहा गया है।”
[यहाँ अंतिम दो पंक्तियों से पंडित जी यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि, “लोक के समस्त पाप लोभ के वशीभूत होकर होते हैं। लोभी जीव वस्तु की प्राप्ति के लिए हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, यदि वस्तु मिल जाती है तो कुशील के भाव कर हर्ष मनाता है तथा परिग्रह को जोड़ने में ही निरन्तर समय व्यतीत करता रहता है। इस प्रकार, समस्त पापों के पीछे लोभ ही मुख्य कारण है।”
तथा, “जब लोभ का नाश हो जाता है तब जीव स्वतः ही निर्दोष हो जाता है।”]
आगे पंडित जी लिखते हैं, “उत्तम शौच धर्म सर्व जगत में प्रसिद्ध है, तथा ‘लोभ पाप का बाप है’, यह कथन भी लोक में विख्यात है। कहते हैं, आशा रूपी जो पाश (बन्धन/रस्सी) है, वह महा दुख को देने वाली है तथा संतोषी प्राणी ही सुख प्राप्त करता है।”
आगे लिखते हुए पंडित जी फरमाते हैं, “प्राणी अर्थात जीव शील, जप-तप, ज्ञान-ध्यान के भावों से ही शुचि अर्थात स्वच्छ होता है। नित्य गंगा-यमुना अथवा समुन्द्रों के पूरे जल से भी यदि इस देह (शरीर) को स्वच्छ करने का प्रयास करोगे, तो भी यह स्वच्छ होने वाली नहीं है।
यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे कोई घड़ा ऊपर से तो अमल (स्वच्छ) हो तथा अंदर से उसमें मल भरा हुआ हो तो कौन उसे स्वच्छ कहेगा?; वैसे ही, यह देह भी ऊपर से तो सुंदर दिखाई देती है परंतु अंदर झांकने पर इसके समान अस्वच्छ वस्तु कोई नहीं है।”
“इसलिए ज्ञानीजन इस मैली देह के राग को छोड़कर अनंत गुणों की पोटली जो भगवान आत्मा तथा उत्तम शौच धर्म है, उसे धारण करते हैं।”
इस प्रकार, पंडित जी ने ‘गागर में सागर’ के समान इन पंक्तियों में भावों को भरा है। तथा इन्हें पढ़कर के हमें भी “उत्तम शौच धर्म” को धारण करना चाहिए।
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