09-20-2021, 10:52 AM
उत्तम तप धर्म
तप चाहें सुरराय, करम-शिखर को वज्र है।
द्वादश विधि सुखदाय, क्यों न करे निज सकति सम।।
उत्तम तप सब-माँहिं बखाना, करम-शैल को वज्र-समाना।
बस्यो अनादि-निगोद-मँझारा, भू-विकलत्रय-पशु-तन धारा।।
धारा मनुष्-तन महा-दुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता।
श्री जैनवानी तत्त्वज्ञानी, भर्इ विषय-पयोगता।।
अति महादुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरें।
नर-भव अनूपम कनक-घर पर, मणिमयी-कलसा धरें।।
अर्थ:
तप की महिमा इतनी है, “कि सुरराज (इंद्र) भी इसको करने के लिए लालायित रहते हैं क्योंकि यह कर्म-रूपी शिखर (पर्वत) को तोड़ने के लिए वज्र के समान है।”
“यह 12 प्रकार के भेदों वाला है, तो अपनी शक्ति के अनुसार क्यों नहीं किया जा सकता?, अर्थात अवश्य किया जाना चाहिए।”
[सर्वप्रथम, तप के दो भेद किये, अभ्यन्तर/अंतरंग तप और बाह्य/बहिरंग तप।
अभ्यन्तर/अंतरंग तप के 6 भेद हैं : प्रायश्चित, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान
बाह्य/बहिरंग तप के 6 भेद हैं :
अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति-परिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्त-शैय्यासन, काय-क्लेश]
आगे पंडित जी लिखते हैं, “उत्तम तप का बखान सारे ग्रंथों में किया गया है, क्योंकि यह कर्म-रूपी पत्थर को तोड़ने के लिए वज्र के समान है। अनादि काल से यह जीव (मैं) निगोद में रहा, एकेन्द्रियादि विकलत्रय पर्यायों (1,2,3,4 इन्द्रिय अवस्थाओं) में रहा, पशु पर्याय में बहुत काल तक रहने के बाद अब महादुर्लभ यह मनुष्य पर्याय मिली है।
आगे पंडित जी इसी में लिखते हैं कि, “इस मनुष्य पर्याय को पाकर तप करना ही योग्य है। अभी सर्व प्रकार से अनुकूलता मिल गयी है- उत्तम कुल, उत्तम आयु तथा निरोग शरीर की प्राप्ति हुई है। और साथ ही जिनवाणी का समागम मिला, तत्त्वज्ञान मिला तथा उसे समझने हेतु उपयोग (ज्ञान/बुद्धि) मिला।”
“ये सब साधन मिलने के बाद जो जीव विषय-कषाय को त्यागकर, दुर्लभ तप को धारण करते हैं, वे इस सोने के घर के समान मनुष्य-भव पर तप-रूपी मणियों से बने कलश की स्थापना करते हैं।”
इस प्रकार, उत्तम तप धर्म का स्वरूप पंडित जी ने स्पष्ट करते हुए यह प्रेरणा दी, कि यह जन्म मौज-मस्ती आदि के लिए नहीं, जन्म-जन्म के दुखों से मुक्ति की प्राप्ति की तैयारी करने के लिए मिला है। यदि इसे यूँ ही गँवा दिया, तो फिर से इसकी प्राप्ति कठिन है और फिर अनंत काल के लिए संसार में रुलना पड़ेगा। अतः शीघ्र ही ‘उत्तम तप धर्म’ धारण करने योग्य है।
साथ ही, यह भी बताया कि मात्र बाह्य तप को धारण करने से धर्म नहीं हो जाता। जब तक अंतरंग तप प्रगट नहीं होते, तब तक बहिरंग तप भी तप नाम नहीं पाते। वे तो फिर ‘बाल तप’ (बच्चों के द्वारा, देखा-देखी में किया जाने वाला तप) नाम पाते हैं। इसलिए, पहले अंतरंग तप प्रगट करने का पुरुषार्थ करो। बाह्य तप करने के पीछे अंतरंग तप की प्रगटता का उद्देश्य बनाओ।
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तप चाहें सुरराय, करम-शिखर को वज्र है।
द्वादश विधि सुखदाय, क्यों न करे निज सकति सम।।
उत्तम तप सब-माँहिं बखाना, करम-शैल को वज्र-समाना।
बस्यो अनादि-निगोद-मँझारा, भू-विकलत्रय-पशु-तन धारा।।
धारा मनुष्-तन महा-दुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता।
श्री जैनवानी तत्त्वज्ञानी, भर्इ विषय-पयोगता।।
अति महादुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरें।
नर-भव अनूपम कनक-घर पर, मणिमयी-कलसा धरें।।
अर्थ:
तप की महिमा इतनी है, “कि सुरराज (इंद्र) भी इसको करने के लिए लालायित रहते हैं क्योंकि यह कर्म-रूपी शिखर (पर्वत) को तोड़ने के लिए वज्र के समान है।”
“यह 12 प्रकार के भेदों वाला है, तो अपनी शक्ति के अनुसार क्यों नहीं किया जा सकता?, अर्थात अवश्य किया जाना चाहिए।”
[सर्वप्रथम, तप के दो भेद किये, अभ्यन्तर/अंतरंग तप और बाह्य/बहिरंग तप।
अभ्यन्तर/अंतरंग तप के 6 भेद हैं : प्रायश्चित, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान
बाह्य/बहिरंग तप के 6 भेद हैं :
अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति-परिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्त-शैय्यासन, काय-क्लेश]
आगे पंडित जी लिखते हैं, “उत्तम तप का बखान सारे ग्रंथों में किया गया है, क्योंकि यह कर्म-रूपी पत्थर को तोड़ने के लिए वज्र के समान है। अनादि काल से यह जीव (मैं) निगोद में रहा, एकेन्द्रियादि विकलत्रय पर्यायों (1,2,3,4 इन्द्रिय अवस्थाओं) में रहा, पशु पर्याय में बहुत काल तक रहने के बाद अब महादुर्लभ यह मनुष्य पर्याय मिली है।
आगे पंडित जी इसी में लिखते हैं कि, “इस मनुष्य पर्याय को पाकर तप करना ही योग्य है। अभी सर्व प्रकार से अनुकूलता मिल गयी है- उत्तम कुल, उत्तम आयु तथा निरोग शरीर की प्राप्ति हुई है। और साथ ही जिनवाणी का समागम मिला, तत्त्वज्ञान मिला तथा उसे समझने हेतु उपयोग (ज्ञान/बुद्धि) मिला।”
“ये सब साधन मिलने के बाद जो जीव विषय-कषाय को त्यागकर, दुर्लभ तप को धारण करते हैं, वे इस सोने के घर के समान मनुष्य-भव पर तप-रूपी मणियों से बने कलश की स्थापना करते हैं।”
इस प्रकार, उत्तम तप धर्म का स्वरूप पंडित जी ने स्पष्ट करते हुए यह प्रेरणा दी, कि यह जन्म मौज-मस्ती आदि के लिए नहीं, जन्म-जन्म के दुखों से मुक्ति की प्राप्ति की तैयारी करने के लिए मिला है। यदि इसे यूँ ही गँवा दिया, तो फिर से इसकी प्राप्ति कठिन है और फिर अनंत काल के लिए संसार में रुलना पड़ेगा। अतः शीघ्र ही ‘उत्तम तप धर्म’ धारण करने योग्य है।
साथ ही, यह भी बताया कि मात्र बाह्य तप को धारण करने से धर्म नहीं हो जाता। जब तक अंतरंग तप प्रगट नहीं होते, तब तक बहिरंग तप भी तप नाम नहीं पाते। वे तो फिर ‘बाल तप’ (बच्चों के द्वारा, देखा-देखी में किया जाने वाला तप) नाम पाते हैं। इसलिए, पहले अंतरंग तप प्रगट करने का पुरुषार्थ करो। बाह्य तप करने के पीछे अंतरंग तप की प्रगटता का उद्देश्य बनाओ।
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