09-20-2021, 10:53 AM
उत्तम त्याग धर्म
दान चार परकार, चार संघ को दीजिए।
धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिए।।
उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा।
निहचै राग-द्वेष निरवारे, ज्ञाता दोनों दान संभारे।।
दोनों संभारे कूपजल-सम, दरब घर में परिनया।
निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय-खोया बह गया।।
धनि साधु शास्त्र अभय-दिवैया, त्याग राग-विरोध को।
बिन दान श्रावक-साधु दोनों, लहें नाहीं बोध को।।
अर्थ:
पंडित जी कहते हैं, “दान चार प्रकार का होता है (आहार दान, औषधि दान, अभय दान और ज्ञान दान) तथा वह चार प्रकार के संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका के समूह) को देना चाहिए। क्योंकि धन तो बिजली की चमक के समान नाशवान है अतः मनुष्य भव में इसका दान दे कर लाभ ले लेना चाहिए।”
आगे पंडित जी लिखते हैं, ” उत्तम त्याग की महिमा जगत में विख्यात है। निश्चय नय की अपेक्षा राग-द्वेष का त्याग, तथा व्यवहार नय की अपेक्षा यह 4 प्रकार का (आहार दान, औषधि दान, अभय दान और ज्ञान दान) कहा गया है। तथा ज्ञानी जीव दोनों प्रकार के दानों को करता है।”
आगे पंडित जी लिखते हैं, “जिस प्रकार, कुँए का जल यदि प्रयोग में नहीं आये, तो सड़ जाता है; उसी प्रकार, यदि घर में धन इकट्ठा हो जाए और उसे श्रेष्ठ कार्य में नहीं लगाया जाए तो वह नष्ट हो जाता है।”
“या तो वह परिवार पर खर्च हो जाता है, या तो चोर चुरा ले जाते हैं अथवा बह जाता है अर्थात व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है।”
तथा, कुँए में से जितना जल निकालते हैं, वह उतना ही बढ़ता है। वैसे ही, धनादि का जितना दान करते हैं, वह उतने ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं।”
“वे साधु धन्य हैं जो शास्त्र (ज्ञान) दान और अभय दान देने वाले हैं , और राग – विरोध (द्वेष) के त्यागी हैं।”
“इस दान की महिमा इतनी है कि इसके बिना श्रावक और साधु दोनों ही बोधि (सम्यग्ज्ञान) को प्राप्त नहीं कर पाते।”
[एक अपेक्षा से, दान का कथन श्रावकों की मुख्यता से तथा त्याग का कथन मुनिराजों की मुख्यता से किया गया है।
तथा, दान के लिए पात्र (उत्तम पात्र: मुनिराज; मध्यम पात्र: पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक; जघन्य पात्र: अविरत सम्यग्दृष्टि) की आवश्यकता होती है एवं उत्तम वस्तु का ही दान दिया जाता है।
परंतु, दोनों अवस्थाओं में दोनों ही मुख्य हैं: श्रावक जब तक पर वस्तुओं में अपनेपन का त्याग नहीं करेंगे तब तक उन्हें सम्यग्दर्शन नहीं होगा और साधु जब तक ‘स्वयं में लीनता-रूप’ स्वयं को चारित्र का दान नहीं करेंगे तब तक वह वास्तविक साधु नहीं कहलाएँगे।]
इस प्रकार, त्याग और दान में मात्र नाम का ही अंतर समझना। जब पर-वस्तु में अपनेपन का त्याग होता है, तब स्वयं को सच्चे सुख का दान होता है। और दोनों ही राग-द्वेष के अभाव (नाश) पूर्वक होते हैं।
जब तक राग नहीं छूटेगा तब तक किसी वस्तु का दान नहीं हो पाएगा, और जब तक राग-द्वेष को अपना अहित करने वाला नहीं समझेंगे, तब तक उनका त्याग नहीं कर पायेंगे। अतः, दोनों का स्वरूप समझ कर दोनों को अपने जीवन में प्रगट करना चाहिए।
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दान चार परकार, चार संघ को दीजिए।
धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिए।।
उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा।
निहचै राग-द्वेष निरवारे, ज्ञाता दोनों दान संभारे।।
दोनों संभारे कूपजल-सम, दरब घर में परिनया।
निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय-खोया बह गया।।
धनि साधु शास्त्र अभय-दिवैया, त्याग राग-विरोध को।
बिन दान श्रावक-साधु दोनों, लहें नाहीं बोध को।।
अर्थ:
पंडित जी कहते हैं, “दान चार प्रकार का होता है (आहार दान, औषधि दान, अभय दान और ज्ञान दान) तथा वह चार प्रकार के संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका के समूह) को देना चाहिए। क्योंकि धन तो बिजली की चमक के समान नाशवान है अतः मनुष्य भव में इसका दान दे कर लाभ ले लेना चाहिए।”
आगे पंडित जी लिखते हैं, ” उत्तम त्याग की महिमा जगत में विख्यात है। निश्चय नय की अपेक्षा राग-द्वेष का त्याग, तथा व्यवहार नय की अपेक्षा यह 4 प्रकार का (आहार दान, औषधि दान, अभय दान और ज्ञान दान) कहा गया है। तथा ज्ञानी जीव दोनों प्रकार के दानों को करता है।”
आगे पंडित जी लिखते हैं, “जिस प्रकार, कुँए का जल यदि प्रयोग में नहीं आये, तो सड़ जाता है; उसी प्रकार, यदि घर में धन इकट्ठा हो जाए और उसे श्रेष्ठ कार्य में नहीं लगाया जाए तो वह नष्ट हो जाता है।”
“या तो वह परिवार पर खर्च हो जाता है, या तो चोर चुरा ले जाते हैं अथवा बह जाता है अर्थात व्यर्थ ही नष्ट हो जाता है।”
तथा, कुँए में से जितना जल निकालते हैं, वह उतना ही बढ़ता है। वैसे ही, धनादि का जितना दान करते हैं, वह उतने ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं।”
“वे साधु धन्य हैं जो शास्त्र (ज्ञान) दान और अभय दान देने वाले हैं , और राग – विरोध (द्वेष) के त्यागी हैं।”
“इस दान की महिमा इतनी है कि इसके बिना श्रावक और साधु दोनों ही बोधि (सम्यग्ज्ञान) को प्राप्त नहीं कर पाते।”
[एक अपेक्षा से, दान का कथन श्रावकों की मुख्यता से तथा त्याग का कथन मुनिराजों की मुख्यता से किया गया है।
तथा, दान के लिए पात्र (उत्तम पात्र: मुनिराज; मध्यम पात्र: पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक; जघन्य पात्र: अविरत सम्यग्दृष्टि) की आवश्यकता होती है एवं उत्तम वस्तु का ही दान दिया जाता है।
परंतु, दोनों अवस्थाओं में दोनों ही मुख्य हैं: श्रावक जब तक पर वस्तुओं में अपनेपन का त्याग नहीं करेंगे तब तक उन्हें सम्यग्दर्शन नहीं होगा और साधु जब तक ‘स्वयं में लीनता-रूप’ स्वयं को चारित्र का दान नहीं करेंगे तब तक वह वास्तविक साधु नहीं कहलाएँगे।]
इस प्रकार, त्याग और दान में मात्र नाम का ही अंतर समझना। जब पर-वस्तु में अपनेपन का त्याग होता है, तब स्वयं को सच्चे सुख का दान होता है। और दोनों ही राग-द्वेष के अभाव (नाश) पूर्वक होते हैं।
जब तक राग नहीं छूटेगा तब तक किसी वस्तु का दान नहीं हो पाएगा, और जब तक राग-द्वेष को अपना अहित करने वाला नहीं समझेंगे, तब तक उनका त्याग नहीं कर पायेंगे। अतः, दोनों का स्वरूप समझ कर दोनों को अपने जीवन में प्रगट करना चाहिए।
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