07-02-2022, 03:16 PM
३ ज्ञान
ज्ञान कहते हैं जाननेको। क्या बच्चा और क्या बड़ा सभी कुछ न कुछ जानते है, इन्द्रियोंसे जानें या मनसे । परन्तु साधारणत. ऐसा भ्रम पडा हुआ है कि इन्द्रियां ही जानती है अर्थात् आंख ही देखती है, कान हो सुनते है, नाक ही सूँघती है। परन्तु वास्तवमे ऐसा नही है। ये इन्द्रियां या मन जाननेके साधन तो अवश्य है, परन्तु स्वयं जाननेवाले नही हैं। जिस प्रकार चश्मा आँखोंके लिए देखनेका साधन तो अवश्य है पर स्वय नही देख सकता । इस बातकी परीक्षा तब होती है जब कि मृत्यु हो जानेपर ये इन्द्रियाँ शरीरमे रहते हुए भी कुछ नही जान पाती । इन इन्द्रियोंके पीछे गुप्त रूपसे बैठा हुआा जो जीव पदार्थ है वही जानता है । यह जानना ही उसका सर्व-प्रमुख गुण है।
४. दर्शन
दर्शन कहते हैं देखनेको। देखनेका अर्थ यहां इन धन, कुटुम्ब, पुस्तक आदि वाहरके पदार्थोंको देखनेका नही है, बल्कि अन्तर्चक्षु द्वारा अपने भीतर झांककर देखनेका है । आँख भी दो प्रकारको है - एक बाहरको ओर दूसरी भीतरको। बाहरकी आंखको तो सब जानते हैं पर भीतरकी आँख कौन-मी है यह पता नही चलता। अरे । हम नित्य प्रति उसका प्रयोग करते हैं, फिर भी उसे भूल जाते हैं। यह महान् आश्चर्य है। बाहरकी आंखसे देखने को यहां दर्शन नही कहा गया है। भले ही लोकमे उसे दर्शन करना या देखना कहे पर यहां तो वह रूप सम्बन्धी ज्ञान ही है । दर्शन तो भीतरी चक्षु द्वारा भीतरमे ही देखनेका नाम है। कोई भी वस्तु दो स्थानोपर देखी जा सकती है- एक बाहरमे और एक भीतरमे । बाहरमे तो वह उसी समय देखी जा सकती है जबकि आपको वति खुली हो, बाहरमे सूर्य या दीपक आदिका प्रकाश हो और वह वस्तु सामने पड़ी हो, जैसे कि अपने सामने खडे पुत्रको देखते दर्शन' है ।
यह गुण कुछ सूक्ष्म है अत. अन्य प्रकारसे भी इसका लक्षण किया जाता है। आप यदि बहुत अधिक सावधान होकर विचार करें तभी आपको इसकी प्रतीति हो सकती है। आप जब कभी भो किसी एक इन्द्रियसे देखते या जानते हुए उसे छोड़कर किसी अन्यसे देखने या जाननेका उद्यम करते हैं तब एक सूक्ष्म-सा प्रकाश अन्दर ही अन्दर पहली इन्द्रियसे उस दूसरी इन्द्रियकी तरफ दौड कर जाता हुआ प्रतीत होता है। यह काम इतनी जल्दी हो जाता है कि साधारण दृष्टिसे पकडा नही जा सकता। परन्तु गौर करके देखनेका प्रयत्न करें तो अवश्य उसका पता चल जाता है । बस अन्दरमे दौडनेवाला यह क्षणिक प्रकाश ही दर्शन (वास्तवमे यह ज्ञान ही है, परन्तु प्राथमिक जनोको दर्शन तक पहुंचाने के लिए इसका अवलम्बन लिया जा रहा है|) है।
ज्ञानका सम्बन्ध क्योकि बाह्य पदार्थोंको इन्द्रियो आदिके द्वारा जाननेसे है, इसलिए वह स्थूल है। परन्तु दर्शनका सम्बन्ध किसी अन्तरंग प्रकाशसे है, इसलिए वह सूक्ष्म है। स्थूल पदार्थको आसानीसे जाना जा सकता है, परन्तु सूक्ष्मको जाननेमे कठिनाई पड़ती है। यही कारण है कि ज्ञानको तो सहज ही सब समझ जाते हैं, परन्तु दर्शनको जाननेमे कुछ कठिनाई पड़ती है । ऊपर दर्शनका लक्षण करनेके लिए जो दृष्टान्त दिये गये हैं वे केवल स्थूल रूपसे उसे समझाने के लिए दिए गये हैं। सूक्ष्म रूपसे बतानेपर उस प्रकार अन्दरमे देखना भी ज्ञान हो है । परन्तु यहां उतनी सूक्ष्म बात बताने से आप भ्रममे न पड जायें, इसलिए इतना हो समझें कि भीतर झांककर किसी भी विपयको देखनेपर जो अन्दर मे कुछ प्रकाश-सा दिखाई देता है, या एक इन्द्रियसे दूसरी इन्द्रियकोतरफ झपटता प्रतीत होता है, जिस प्रकाशके कारण कि वह विषय स्पष्ट दोखता है उस प्रकाशका नाम ही दर्शन है, और बाहरके पदार्थोंको देखनेका नाम ज्ञान है । इसीको यो कह सकते है कि बाह्य पदार्थको देखे तो ज्ञान है और जीव स्वयं अपनेको देखे तो दर्शन है। ज्ञान सदा ही इस दर्शन-पूर्वक हुआ करता है । क्योकि जबतक वह अन्दरका प्रकाश पहली इन्द्रियसे हटकर अगली इन्द्रियपर नही जायेगा, तबतक वह इन्द्रिय जाननेको समर्थ नही हो सकती। जैसे कि किसीके साथ बातें करनेमे तन्मय होनेके कारण आप अपने सामनेसे गुजरते हुए व्यक्तिको भी देख नही सकते ।
इस प्रकार ज्ञान और दर्शन लगभग एक ही जातिके होनेके कारण यद्यपि पृथक्-पृथक् बतानेकी बजाय एक ज्ञानमे ही गर्भित करके बताये जा सकते हैं, तदपि इनको पृथक्-पृथक् करके दो गुणोके रूपसे बतानेमे आचार्योंका एक विशेष प्रयोजन है, जो अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टिसे ही जाना सकता है। उस प्रकारकी सूक्ष्म दृष्टिसे वस्तुका विवेचन क्योकि इस पुस्तकका विषय नही है इसलिए उसे यहाँ नही बताया जा सकता । हाँ, स्थूल रूपसे पदार्थ विज्ञान पढ़ लेनेके पश्चात् जब आप सूक्ष्म रूपसे भी इसे पढनेके योग्य हो जायेंगे, तब वह सूक्ष्म रहस्य भी बता दिया जायेगा। यहाँ तो केवल इतना ही जानिए कि क्योकि विषय दो प्रकारके है-चाहरी व भीतरी, इसलिए उनको जाननेके साधन भी दो प्रकारके हैं। वाहरके विषयोको जानना ज्ञान है। भीतरके विषयोको अर्थात् अन्त. करणको देखना दर्शन है।
Taken from प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6 - जिनेन्द्र वर्णी
ज्ञान कहते हैं जाननेको। क्या बच्चा और क्या बड़ा सभी कुछ न कुछ जानते है, इन्द्रियोंसे जानें या मनसे । परन्तु साधारणत. ऐसा भ्रम पडा हुआ है कि इन्द्रियां ही जानती है अर्थात् आंख ही देखती है, कान हो सुनते है, नाक ही सूँघती है। परन्तु वास्तवमे ऐसा नही है। ये इन्द्रियां या मन जाननेके साधन तो अवश्य है, परन्तु स्वयं जाननेवाले नही हैं। जिस प्रकार चश्मा आँखोंके लिए देखनेका साधन तो अवश्य है पर स्वय नही देख सकता । इस बातकी परीक्षा तब होती है जब कि मृत्यु हो जानेपर ये इन्द्रियाँ शरीरमे रहते हुए भी कुछ नही जान पाती । इन इन्द्रियोंके पीछे गुप्त रूपसे बैठा हुआा जो जीव पदार्थ है वही जानता है । यह जानना ही उसका सर्व-प्रमुख गुण है।
४. दर्शन
दर्शन कहते हैं देखनेको। देखनेका अर्थ यहां इन धन, कुटुम्ब, पुस्तक आदि वाहरके पदार्थोंको देखनेका नही है, बल्कि अन्तर्चक्षु द्वारा अपने भीतर झांककर देखनेका है । आँख भी दो प्रकारको है - एक बाहरको ओर दूसरी भीतरको। बाहरकी आंखको तो सब जानते हैं पर भीतरकी आँख कौन-मी है यह पता नही चलता। अरे । हम नित्य प्रति उसका प्रयोग करते हैं, फिर भी उसे भूल जाते हैं। यह महान् आश्चर्य है। बाहरकी आंखसे देखने को यहां दर्शन नही कहा गया है। भले ही लोकमे उसे दर्शन करना या देखना कहे पर यहां तो वह रूप सम्बन्धी ज्ञान ही है । दर्शन तो भीतरी चक्षु द्वारा भीतरमे ही देखनेका नाम है। कोई भी वस्तु दो स्थानोपर देखी जा सकती है- एक बाहरमे और एक भीतरमे । बाहरमे तो वह उसी समय देखी जा सकती है जबकि आपको वति खुली हो, बाहरमे सूर्य या दीपक आदिका प्रकाश हो और वह वस्तु सामने पड़ी हो, जैसे कि अपने सामने खडे पुत्रको देखते दर्शन' है ।
यह गुण कुछ सूक्ष्म है अत. अन्य प्रकारसे भी इसका लक्षण किया जाता है। आप यदि बहुत अधिक सावधान होकर विचार करें तभी आपको इसकी प्रतीति हो सकती है। आप जब कभी भो किसी एक इन्द्रियसे देखते या जानते हुए उसे छोड़कर किसी अन्यसे देखने या जाननेका उद्यम करते हैं तब एक सूक्ष्म-सा प्रकाश अन्दर ही अन्दर पहली इन्द्रियसे उस दूसरी इन्द्रियकी तरफ दौड कर जाता हुआ प्रतीत होता है। यह काम इतनी जल्दी हो जाता है कि साधारण दृष्टिसे पकडा नही जा सकता। परन्तु गौर करके देखनेका प्रयत्न करें तो अवश्य उसका पता चल जाता है । बस अन्दरमे दौडनेवाला यह क्षणिक प्रकाश ही दर्शन (वास्तवमे यह ज्ञान ही है, परन्तु प्राथमिक जनोको दर्शन तक पहुंचाने के लिए इसका अवलम्बन लिया जा रहा है|) है।
ज्ञानका सम्बन्ध क्योकि बाह्य पदार्थोंको इन्द्रियो आदिके द्वारा जाननेसे है, इसलिए वह स्थूल है। परन्तु दर्शनका सम्बन्ध किसी अन्तरंग प्रकाशसे है, इसलिए वह सूक्ष्म है। स्थूल पदार्थको आसानीसे जाना जा सकता है, परन्तु सूक्ष्मको जाननेमे कठिनाई पड़ती है। यही कारण है कि ज्ञानको तो सहज ही सब समझ जाते हैं, परन्तु दर्शनको जाननेमे कुछ कठिनाई पड़ती है । ऊपर दर्शनका लक्षण करनेके लिए जो दृष्टान्त दिये गये हैं वे केवल स्थूल रूपसे उसे समझाने के लिए दिए गये हैं। सूक्ष्म रूपसे बतानेपर उस प्रकार अन्दरमे देखना भी ज्ञान हो है । परन्तु यहां उतनी सूक्ष्म बात बताने से आप भ्रममे न पड जायें, इसलिए इतना हो समझें कि भीतर झांककर किसी भी विपयको देखनेपर जो अन्दर मे कुछ प्रकाश-सा दिखाई देता है, या एक इन्द्रियसे दूसरी इन्द्रियकोतरफ झपटता प्रतीत होता है, जिस प्रकाशके कारण कि वह विषय स्पष्ट दोखता है उस प्रकाशका नाम ही दर्शन है, और बाहरके पदार्थोंको देखनेका नाम ज्ञान है । इसीको यो कह सकते है कि बाह्य पदार्थको देखे तो ज्ञान है और जीव स्वयं अपनेको देखे तो दर्शन है। ज्ञान सदा ही इस दर्शन-पूर्वक हुआ करता है । क्योकि जबतक वह अन्दरका प्रकाश पहली इन्द्रियसे हटकर अगली इन्द्रियपर नही जायेगा, तबतक वह इन्द्रिय जाननेको समर्थ नही हो सकती। जैसे कि किसीके साथ बातें करनेमे तन्मय होनेके कारण आप अपने सामनेसे गुजरते हुए व्यक्तिको भी देख नही सकते ।
इस प्रकार ज्ञान और दर्शन लगभग एक ही जातिके होनेके कारण यद्यपि पृथक्-पृथक् बतानेकी बजाय एक ज्ञानमे ही गर्भित करके बताये जा सकते हैं, तदपि इनको पृथक्-पृथक् करके दो गुणोके रूपसे बतानेमे आचार्योंका एक विशेष प्रयोजन है, जो अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टिसे ही जाना सकता है। उस प्रकारकी सूक्ष्म दृष्टिसे वस्तुका विवेचन क्योकि इस पुस्तकका विषय नही है इसलिए उसे यहाँ नही बताया जा सकता । हाँ, स्थूल रूपसे पदार्थ विज्ञान पढ़ लेनेके पश्चात् जब आप सूक्ष्म रूपसे भी इसे पढनेके योग्य हो जायेंगे, तब वह सूक्ष्म रहस्य भी बता दिया जायेगा। यहाँ तो केवल इतना ही जानिए कि क्योकि विषय दो प्रकारके है-चाहरी व भीतरी, इसलिए उनको जाननेके साधन भी दो प्रकारके हैं। वाहरके विषयोको जानना ज्ञान है। भीतरके विषयोको अर्थात् अन्त. करणको देखना दर्शन है।
Taken from प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6 - जिनेन्द्र वर्णी