जीवके धर्म तथा गुण - 3
#2

१६. केवलज्ञान

केवलज्ञान अत्यन्त व्यापक होता है। इसे पूर्णज्ञान कहना साहिए। यह होन अधिक नहीं होता। यह एक अद्वितीय निरावरण ( दिना कहा- पूरा हुआ ) अनन्तप्रकाशरूप होता है,

जिसमे समस्त विश्व एक साथ प्रतिभासित हो उठता है । यह मात्र उन महान् योगीश्वरोको ही होता है जो कि सावना-विशेष द्वारा अन्त करण तथा शरीरके बन्धनों से मुक्त होकर केवल चेतनमात्र रह जाते है। पहले चार ज्ञान लौकिक हैं और यह ज्ञान अली किक है |

१७ क्रम तथा अक्रम ज्ञान

इन पांचो ज्ञानोमे पहले चार क्रमवर्ती ज्ञान है और अन्तिम जो केवलज्ञान है वह अक्रमवर्ती है। पहले एक पदार्थको जाना, फिर उसे छोड़कर दूसरेको जाना, उसे छोडकर तीसरेको जाना यह क्रमवर्ती ज्ञान कहलाता है। हमारा सबका ज्ञान क्रमवर्ती है। अवधि तथा मन पर्यय ज्ञान भी क्रमवर्ती है। परन्तु केवलज्ञान मन्त प्रकाशपुज है, इसलिए उसमे इस प्रकार अटक अटककर आगे-पीछे थोडा-थोडा जाननेकी आवश्यकता नही है । वह समस्त विश्वको एक साथ पी जाता है । अत केवलज्ञान अक्रमवर्ती है ।


Taken from  प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6 - जीवके धर्म तथा गुण - जिनेन्द्र वर्णी
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जीवके धर्म तथा गुण - 3 - by Manish Jain - 07-03-2022, 06:04 AM
RE: जीवके धर्म तथा गुण - 3 - by sandeep jain - 07-03-2022, 06:08 AM
RE: जीवके धर्म तथा गुण - 3 - by sumit patni - 07-03-2022, 06:12 AM
RE: जीवके धर्म तथा गुण - 3 - by Manish Jain - 07-03-2022, 06:17 AM
RE: जीवके धर्म तथा गुण - 3 - by sandeep jain - 07-03-2022, 06:18 AM

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