07-03-2022, 06:17 AM
२० वीर्य
वीर्य भी दो प्रकारका है- एक बाह्य और दूसरा अन्तरंग | बाह्य वीर्य शरीरकी शक्तिका नाम है जिसे दुनिया जानती है। अन्तरग वीर्य ज्ञानकी होन अधिक शक्ति रूप, तथा उसकी स्थिरता रूप होता है। वह दो प्रकारका है- एक लौकिक और दूसरा अलौकिक । बाह्य वीर्य अलोकिक नही होता क्योकि अलौकिक अर्थात् मुक्त जनोंके शरीर नही होता । मतिज्ञान तथा दर्शन आदिके द्वारा जानने-देखने की जीवकी हीन या अधिक शक्तिका नाम लौकिक अन्तरग वीर्य है, क्योकि ये मति आदि ज्ञान लौकिक या ससारी जीवोको ही होते हैं । केवलज्ञान तथा केवलदर्शनको अतुल शक्तिका नाम अलौकिक वीर्य है, जो अनन्त है, क्योकि इससे अनन्तका युगपत् ज्ञान होता है ।
ज्ञानमे होनता या अधिकता के साथ साथ स्थिरता तथा अस्थिरता भी होती है। ज्ञान किसी भी विषयको अधिक देर तक नही जान पाता। एक विषयको छोड़कर दूसरे विषयकी तरफ दौडता है, और फिर उसको भी छोड़कर तीसरे विषयकी तरफ दोडता है। ज्ञानकी यह चचलता मनकी चचलता के कारण है । मनकी चचलतासे सब परिचित है। जिस व्यक्तिका मन अधिक चचल है उसके मनकी शक्ति तो अधिक है पर उस जीवका वीर्य कम है । जीवका स्वभाव जानने-देखने का है अर्थात् जाननेमे टिके रहना या ज्ञानमे स्थिरता धारना है, परन्तु मन उसे वहाँ टिकने नही देता । अतः जिस जीवके ज्ञानमे अधिक स्थिरता है उसका अन्तरंग वीर्य अधिक है, अपेक्षा उस व्यक्ति के जिसके ज्ञानमे कि स्थिरता अल्प है। ज्ञानमे स्थिरता न होना ही मनकी चचलता है। इसीलिए जीवके वीर्यकी कमी और मनकी शक्तिकी प्रवलताका एक ही अर्थ है । इस प्रकार सभी लौकिक संसारी जीव हीन वीर्य वाले परन्तु वलवान् मनवाले हैं ।
अलौकिक वीर्यं अलौकिक अर्थात् मुक्त जीवोके ही होता है । उनको शक्ति अनन्त है, क्योकि उन्हें ज्ञानकी पूर्ण स्थिरता प्राप्त हो गयी है । उनका ज्ञान न हमारी भाँति आगे-पीछे होता है और न कविता है । ज्ञानको कँपानेका कारण मन था, उससे वे मुक्त हो चुके हैं। अतः अनन्त काल पर्यन्त वे अनन्त प्रकाश द्वारा अन्त विनिष्कम्प रूपसे बराबर जानते तथा देखते रहते है. और उस प्रकाश द्वारा प्राप्तकम्प रीतिले उपभोग करते रहते हैं। चन्य है उसका सर बोर्ड । यही सच्चा वीर्यं है ।
२१. अनुभव श्रद्धा तथा रुचि
अनुभव, श्रद्धा तथा रुचि भी दो प्रकारको होती है-लौकिक तथा अलौकिक । लोकिक अनुभवादि दो-दो प्रकारके हैं बाह्य तथा अन्तरग। यह शरीर हो मैं हूँ, इसका सुखदुख ही मेरा सुख दुख है, धन-कुटुम्बादि बाह्य पदार्थ हो मेरे लिए है इत्यादि प्रकारके अनुभवादि तो बाह्य है, और विषयभोग सम्बन्धी यह ज सुख तथा हर्ष अन्दरसे हो रहा है यह मेरा सुख है तथा अतरप में यह जो शोक हो रहा है 'यही मेरा दुख है, ये अन्तर अतु भवादि है। ये दोनो ही अनुभवादि लौकिक है।
अलौकिक अनुभवादि एक ही प्रकार है। ज्ञाता द्रष्टा बनकर स्थित रहना, मनको को रोककर ज्ञानका विष्कम्प रहना, ज्ञानका ज्ञान प्रकाशमे ही मग्न रहता रूप जो आनन्द है वही मेरा है. इसके अतिरिक्त मुझे कुछ नही चाहिए। इस प्रकारका अनुभव ढ़ा तथा रुचि अलोकिक है। ये उन ज्ञानी-जोको हो होते है जो कि संसारको पोलको पहचानकर आत्म-कल्याणके प्रति अर हुए हैं। इनके अतिरिक अलौकिक जो मुरु जो है उन्हें तो होते ही हैं।
वीर्य भी दो प्रकारका है- एक बाह्य और दूसरा अन्तरंग | बाह्य वीर्य शरीरकी शक्तिका नाम है जिसे दुनिया जानती है। अन्तरग वीर्य ज्ञानकी होन अधिक शक्ति रूप, तथा उसकी स्थिरता रूप होता है। वह दो प्रकारका है- एक लौकिक और दूसरा अलौकिक । बाह्य वीर्य अलोकिक नही होता क्योकि अलौकिक अर्थात् मुक्त जनोंके शरीर नही होता । मतिज्ञान तथा दर्शन आदिके द्वारा जानने-देखने की जीवकी हीन या अधिक शक्तिका नाम लौकिक अन्तरग वीर्य है, क्योकि ये मति आदि ज्ञान लौकिक या ससारी जीवोको ही होते हैं । केवलज्ञान तथा केवलदर्शनको अतुल शक्तिका नाम अलौकिक वीर्य है, जो अनन्त है, क्योकि इससे अनन्तका युगपत् ज्ञान होता है ।
ज्ञानमे होनता या अधिकता के साथ साथ स्थिरता तथा अस्थिरता भी होती है। ज्ञान किसी भी विषयको अधिक देर तक नही जान पाता। एक विषयको छोड़कर दूसरे विषयकी तरफ दौडता है, और फिर उसको भी छोड़कर तीसरे विषयकी तरफ दोडता है। ज्ञानकी यह चचलता मनकी चचलता के कारण है । मनकी चचलतासे सब परिचित है। जिस व्यक्तिका मन अधिक चचल है उसके मनकी शक्ति तो अधिक है पर उस जीवका वीर्य कम है । जीवका स्वभाव जानने-देखने का है अर्थात् जाननेमे टिके रहना या ज्ञानमे स्थिरता धारना है, परन्तु मन उसे वहाँ टिकने नही देता । अतः जिस जीवके ज्ञानमे अधिक स्थिरता है उसका अन्तरंग वीर्य अधिक है, अपेक्षा उस व्यक्ति के जिसके ज्ञानमे कि स्थिरता अल्प है। ज्ञानमे स्थिरता न होना ही मनकी चचलता है। इसीलिए जीवके वीर्यकी कमी और मनकी शक्तिकी प्रवलताका एक ही अर्थ है । इस प्रकार सभी लौकिक संसारी जीव हीन वीर्य वाले परन्तु वलवान् मनवाले हैं ।
अलौकिक वीर्यं अलौकिक अर्थात् मुक्त जीवोके ही होता है । उनको शक्ति अनन्त है, क्योकि उन्हें ज्ञानकी पूर्ण स्थिरता प्राप्त हो गयी है । उनका ज्ञान न हमारी भाँति आगे-पीछे होता है और न कविता है । ज्ञानको कँपानेका कारण मन था, उससे वे मुक्त हो चुके हैं। अतः अनन्त काल पर्यन्त वे अनन्त प्रकाश द्वारा अन्त विनिष्कम्प रूपसे बराबर जानते तथा देखते रहते है. और उस प्रकाश द्वारा प्राप्तकम्प रीतिले उपभोग करते रहते हैं। चन्य है उसका सर बोर्ड । यही सच्चा वीर्यं है ।
२१. अनुभव श्रद्धा तथा रुचि
अनुभव, श्रद्धा तथा रुचि भी दो प्रकारको होती है-लौकिक तथा अलौकिक । लोकिक अनुभवादि दो-दो प्रकारके हैं बाह्य तथा अन्तरग। यह शरीर हो मैं हूँ, इसका सुखदुख ही मेरा सुख दुख है, धन-कुटुम्बादि बाह्य पदार्थ हो मेरे लिए है इत्यादि प्रकारके अनुभवादि तो बाह्य है, और विषयभोग सम्बन्धी यह ज सुख तथा हर्ष अन्दरसे हो रहा है यह मेरा सुख है तथा अतरप में यह जो शोक हो रहा है 'यही मेरा दुख है, ये अन्तर अतु भवादि है। ये दोनो ही अनुभवादि लौकिक है।
अलौकिक अनुभवादि एक ही प्रकार है। ज्ञाता द्रष्टा बनकर स्थित रहना, मनको को रोककर ज्ञानका विष्कम्प रहना, ज्ञानका ज्ञान प्रकाशमे ही मग्न रहता रूप जो आनन्द है वही मेरा है. इसके अतिरिक्त मुझे कुछ नही चाहिए। इस प्रकारका अनुभव ढ़ा तथा रुचि अलोकिक है। ये उन ज्ञानी-जोको हो होते है जो कि संसारको पोलको पहचानकर आत्म-कल्याणके प्रति अर हुए हैं। इनके अतिरिक अलौकिक जो मुरु जो है उन्हें तो होते ही हैं।