07-03-2022, 02:01 PM
२७. अन्त करण के गुण
मिली हुई वस्तुमे से एक वस्तु तथा उसके गुण निकाल लेनेपर जो शेष रह जाये वह सब उस दूसरी वस्तुका जानना चाहिए। अतः पूर्वमे कहे गये जीवके गुण तथा उनके सर्व भेद-प्रभेदोमे-से उपर्युक्त अलोकिक गुण निकाल लेनेपर शेष बचे सर्व लौकिक गुण अन्तःकरण के रह जाते हैं, यह बात स्पष्ट है। अतः ज्ञानके भेदोमे-से अलौकिक ज्ञान अर्थात् केवलज्ञानको छोड़कर दोष जो मति, श्रुत, अवधि व मन पर्यय ज्ञान हैं वे अन्त-करण के धर्म है चेतन के नहीं। इसी प्रकार दर्शनमें से अलौकिक दर्शन अर्थात् केवलदर्शन को छोड़कर शेष जो चक्षु, अचक्षु ओर अवधिदर्शन हैं वे अन्तः करणके धर्म हैं । अलौकिक ज्ञानानन्द रूप सुखको छोड़कर लौकिक जो विषयजनित बाह्य तथा भीतरका अर्थात् शारीरिक व मानसिक जितना भी सुख-दु ख है वह अन्त करणका धर्म है चेतनका नही । इसी प्रकार अन्तरगमे निष्कम्प अलौकिक स्थिति रूप वीर्यको छोड कर बाहर के विषयोमे मनका दौडते रहना रूप तथा उसमे उलझ उलझकर उनका स्वाद लेने रूप जितनी भी लौकिक मानसिक चचल वीर्य वृत्ति है, वह अन्त. करणका धर्म है, चेतनका नही । अन्तरंग अलौकिक अनुभवको छोड़कर बाहरके विषयो या पदार्थों का ही स्वाद लेना अर्थात् उनसे उत्पन्न सुख-दुखका ही रस लेना लौकिक अनुभव, श्रद्धा व रुचि है जो अन्त. करणके धर्म हैं चेतनके नही । समस्त कषाय अन्तःकरण के धर्म हैं ।
इसी बात को यो कह लीजिए कि जितने भी निरावरण तथा स्वाभाविक गुण हैं, वे चेतनके हे ओर सावरण तथा विकारी जितने भी गुण है वे अन्त करणके हैं।
अन्त. करणका भी यदि विश्लेषण करके इसे बुद्धि, चित्, अहं कार व मन इस प्रकार चार भागोमे विभक्त कर दिया जाये तो उनके पृथक्-पृथक् धर्मोका भी निर्णय किया जा सकता है। मति, श्रुत, अवधि, मन. पर्यय ये चारो सावरण ज्ञान तथा चक्षु, अचक्षु, अवधि ये तीनो सावरण दर्शन बुद्धिके धर्म है। नयोकि पदार्थ सम्बन्धी निश्चय करना बुद्धिका लक्षण है, और सभी ज्ञान तथा दर्शन भी कम पूर्वक अपने-अपने योग्य एक-एक पदार्थका आगे-पीछे निश्चय करानेमे समर्थ है। तर्क उत्पन्न हो जानेके पश्चात् उसके सम्बन्धमे जो विचारणा चला करती है वह श्रुतज्ञान है और वह चित्तका धर्म है ।
शरीर तथा बाह्य पदार्थोंमे, धन-कुटुम्ब आदिमे 'ये मेरे हैं तथा मुझे इष्ट हैं, इन सम्बन्धी ही सुख-दुःख मेरा है,' ऐसी जो प्राणी मात्रकी सामान्य लौकिक श्रद्धा है, और यही सुख किसी प्रकार मुझे प्राप्त करना चाहिए तथा इस दु.खसे बचना चाहिए' ऐसी जो प्राणी मात्रकी सामान्य लौकिक रुचि है, वे अहकारके धर्म हैं, क्योकि चेतनसे पृथक् अन्य पदार्थों की श्रद्धा व रुचि अहंकारका लक्षण है। यहाँ इतना जानना कि चेतनको ही अपना जानना तथा मानना और उसे हित रूपसे अंगीकार करना अहंकारका नही बुद्धिका काम है, विवेकका काम है।
पदार्थके सम्बन्धमे निर्णय करनेके लिए जो विचारणा होती है। वह यद्यपि बुद्धिका धर्म है परन्तु इसके सम्बन्ध में उठनेवाले अनेको तर्क-वितर्क मनके धर्म है, क्योकि सकल्प-विकल्प मनका लक्षण है। इन तर्क-वितर्कोंके अतिरिक्त जितने कुछ भी सकल्प-विकल्प के तथा ग्रहण त्यागके राग-द्वेषात्मक द्वन्द्व और कषाय भाव है वे सब मनके धर्म हैं क्योकि यदि मन कही अन्यत्र लगा हो तो दु ख सुखका अनुभव नही होता। इस प्रकार जीवके सर्व लौकिक धर्मोमे-से अर्थात् ज्ञान, दर्शन, सुख, बीयं, अनुभव, श्रद्धा, रुचि तथा कषायोमें-से ज्ञान-दर्शन बुद्धिके, चिन्तनात्मक श्रुतज्ञान चित्तका, मुख-वीर्य अनुभव तथा कपाय मनके और श्रद्धा व रुचि अहकारके धर्म हैं ।
२८. शरीर के धर्म
पहले वताया जा चुका है कि सर्व ही ससारी जीव शरीर, मन्त करण व चेतन इन तीन पदार्थोंके मिश्रण से बने हुए हैं। अतः इन तीनोके पृथक्-पृथक् धर्म या गुण जानने आवश्यक है । इनमे से तीनोके मिश्रणरूप जीव-सामान्यके धर्म बता दिये गये। फिर उनके पृथक्-पृथक् धर्मोमे भी चेतन तथा अन्त. करणके धर्म बता दिये गये । अब शरीरके धर्म भी जानने चाहिए ।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है शरीर वास्तवमे जीव नही हे बल्कि अजीव है, क्योकि मृत्यु हो जानेपर इसमे से चेतन तथा अन्त करण ये दो निकल जाते हैं, तब जो कुछ शेष रह जाता है वही तीसरा पदार्थ यह शरीर है। यह स्पष्ट है कि वह अजीव है, क्योकि उस समय वह जान देख नही सकता । अजीव भी कई प्रकारके होते हैं जैसा कि आगे अजीवका परिचय देते हुए बताया जायेगा। उनमे से भी वह मूर्तिक अजीव है अर्थात् इन्द्रियोसे दिखाई देनेवाला है। यह कोई अखण्ड पदार्थ नही है क्योकि काटा तथा जोडा जा सकता है, इसलिए अनेक अखण्डित सूक्ष्म अजीव पदार्थों या परमाणुओंसे मिलकर बना है । अत शरीरमे परमाणु ही मूल तत्त्व है, शरीर स्वय कोई मूलभूत पदार्थ नही है ।
मूर्तिक तथा जुडने तुडनेको शक्तिवाले अजीव पदार्थका नाम पुद्गल है । उसमे स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण ये चार मुख्य गुण हैं। छूकर जो जाना जाये वह चिकना रूखा आदि स्पर्श गुण है, चख कर जो जाना जाये वह खट्टा मीठा आदि रस गुण है, सूंघकर जो जाना जाये ऐसे सुगन्ध व दुर्गन्ध गन्ध गुण है, ओर देखकर जो जाना जाये ऐसा काला-पीला रंग वर्ण नामका गुण है। यही शरीरके धर्म है । इनके अतिरिक्त इसका ओर कुछ महत्त्व नही है ।
Taken from प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6 - जीवके धर्म तथा गुण - जिनेन्द्र वर्णी
मिली हुई वस्तुमे से एक वस्तु तथा उसके गुण निकाल लेनेपर जो शेष रह जाये वह सब उस दूसरी वस्तुका जानना चाहिए। अतः पूर्वमे कहे गये जीवके गुण तथा उनके सर्व भेद-प्रभेदोमे-से उपर्युक्त अलोकिक गुण निकाल लेनेपर शेष बचे सर्व लौकिक गुण अन्तःकरण के रह जाते हैं, यह बात स्पष्ट है। अतः ज्ञानके भेदोमे-से अलौकिक ज्ञान अर्थात् केवलज्ञानको छोड़कर दोष जो मति, श्रुत, अवधि व मन पर्यय ज्ञान हैं वे अन्त-करण के धर्म है चेतन के नहीं। इसी प्रकार दर्शनमें से अलौकिक दर्शन अर्थात् केवलदर्शन को छोड़कर शेष जो चक्षु, अचक्षु ओर अवधिदर्शन हैं वे अन्तः करणके धर्म हैं । अलौकिक ज्ञानानन्द रूप सुखको छोड़कर लौकिक जो विषयजनित बाह्य तथा भीतरका अर्थात् शारीरिक व मानसिक जितना भी सुख-दु ख है वह अन्त करणका धर्म है चेतनका नही । इसी प्रकार अन्तरगमे निष्कम्प अलौकिक स्थिति रूप वीर्यको छोड कर बाहर के विषयोमे मनका दौडते रहना रूप तथा उसमे उलझ उलझकर उनका स्वाद लेने रूप जितनी भी लौकिक मानसिक चचल वीर्य वृत्ति है, वह अन्त. करणका धर्म है, चेतनका नही । अन्तरंग अलौकिक अनुभवको छोड़कर बाहरके विषयो या पदार्थों का ही स्वाद लेना अर्थात् उनसे उत्पन्न सुख-दुखका ही रस लेना लौकिक अनुभव, श्रद्धा व रुचि है जो अन्त. करणके धर्म हैं चेतनके नही । समस्त कषाय अन्तःकरण के धर्म हैं ।
इसी बात को यो कह लीजिए कि जितने भी निरावरण तथा स्वाभाविक गुण हैं, वे चेतनके हे ओर सावरण तथा विकारी जितने भी गुण है वे अन्त करणके हैं।
अन्त. करणका भी यदि विश्लेषण करके इसे बुद्धि, चित्, अहं कार व मन इस प्रकार चार भागोमे विभक्त कर दिया जाये तो उनके पृथक्-पृथक् धर्मोका भी निर्णय किया जा सकता है। मति, श्रुत, अवधि, मन. पर्यय ये चारो सावरण ज्ञान तथा चक्षु, अचक्षु, अवधि ये तीनो सावरण दर्शन बुद्धिके धर्म है। नयोकि पदार्थ सम्बन्धी निश्चय करना बुद्धिका लक्षण है, और सभी ज्ञान तथा दर्शन भी कम पूर्वक अपने-अपने योग्य एक-एक पदार्थका आगे-पीछे निश्चय करानेमे समर्थ है। तर्क उत्पन्न हो जानेके पश्चात् उसके सम्बन्धमे जो विचारणा चला करती है वह श्रुतज्ञान है और वह चित्तका धर्म है ।
शरीर तथा बाह्य पदार्थोंमे, धन-कुटुम्ब आदिमे 'ये मेरे हैं तथा मुझे इष्ट हैं, इन सम्बन्धी ही सुख-दुःख मेरा है,' ऐसी जो प्राणी मात्रकी सामान्य लौकिक श्रद्धा है, और यही सुख किसी प्रकार मुझे प्राप्त करना चाहिए तथा इस दु.खसे बचना चाहिए' ऐसी जो प्राणी मात्रकी सामान्य लौकिक रुचि है, वे अहकारके धर्म हैं, क्योकि चेतनसे पृथक् अन्य पदार्थों की श्रद्धा व रुचि अहंकारका लक्षण है। यहाँ इतना जानना कि चेतनको ही अपना जानना तथा मानना और उसे हित रूपसे अंगीकार करना अहंकारका नही बुद्धिका काम है, विवेकका काम है।
पदार्थके सम्बन्धमे निर्णय करनेके लिए जो विचारणा होती है। वह यद्यपि बुद्धिका धर्म है परन्तु इसके सम्बन्ध में उठनेवाले अनेको तर्क-वितर्क मनके धर्म है, क्योकि सकल्प-विकल्प मनका लक्षण है। इन तर्क-वितर्कोंके अतिरिक्त जितने कुछ भी सकल्प-विकल्प के तथा ग्रहण त्यागके राग-द्वेषात्मक द्वन्द्व और कषाय भाव है वे सब मनके धर्म हैं क्योकि यदि मन कही अन्यत्र लगा हो तो दु ख सुखका अनुभव नही होता। इस प्रकार जीवके सर्व लौकिक धर्मोमे-से अर्थात् ज्ञान, दर्शन, सुख, बीयं, अनुभव, श्रद्धा, रुचि तथा कषायोमें-से ज्ञान-दर्शन बुद्धिके, चिन्तनात्मक श्रुतज्ञान चित्तका, मुख-वीर्य अनुभव तथा कपाय मनके और श्रद्धा व रुचि अहकारके धर्म हैं ।
२८. शरीर के धर्म
पहले वताया जा चुका है कि सर्व ही ससारी जीव शरीर, मन्त करण व चेतन इन तीन पदार्थोंके मिश्रण से बने हुए हैं। अतः इन तीनोके पृथक्-पृथक् धर्म या गुण जानने आवश्यक है । इनमे से तीनोके मिश्रणरूप जीव-सामान्यके धर्म बता दिये गये। फिर उनके पृथक्-पृथक् धर्मोमे भी चेतन तथा अन्त. करणके धर्म बता दिये गये । अब शरीरके धर्म भी जानने चाहिए ।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है शरीर वास्तवमे जीव नही हे बल्कि अजीव है, क्योकि मृत्यु हो जानेपर इसमे से चेतन तथा अन्त करण ये दो निकल जाते हैं, तब जो कुछ शेष रह जाता है वही तीसरा पदार्थ यह शरीर है। यह स्पष्ट है कि वह अजीव है, क्योकि उस समय वह जान देख नही सकता । अजीव भी कई प्रकारके होते हैं जैसा कि आगे अजीवका परिचय देते हुए बताया जायेगा। उनमे से भी वह मूर्तिक अजीव है अर्थात् इन्द्रियोसे दिखाई देनेवाला है। यह कोई अखण्ड पदार्थ नही है क्योकि काटा तथा जोडा जा सकता है, इसलिए अनेक अखण्डित सूक्ष्म अजीव पदार्थों या परमाणुओंसे मिलकर बना है । अत शरीरमे परमाणु ही मूल तत्त्व है, शरीर स्वय कोई मूलभूत पदार्थ नही है ।
मूर्तिक तथा जुडने तुडनेको शक्तिवाले अजीव पदार्थका नाम पुद्गल है । उसमे स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण ये चार मुख्य गुण हैं। छूकर जो जाना जाये वह चिकना रूखा आदि स्पर्श गुण है, चख कर जो जाना जाये वह खट्टा मीठा आदि रस गुण है, सूंघकर जो जाना जाये ऐसे सुगन्ध व दुर्गन्ध गन्ध गुण है, ओर देखकर जो जाना जाये ऐसा काला-पीला रंग वर्ण नामका गुण है। यही शरीरके धर्म है । इनके अतिरिक्त इसका ओर कुछ महत्त्व नही है ।
Taken from प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6 - जीवके धर्म तथा गुण - जिनेन्द्र वर्णी