प्रवचनसारः गाथा -3, 4, 5
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित प्रवचनसार

गाथा -3

ते ते सव्वे समगं समग पत्तेगमेव पत्तेगं /
वंदामि य वदंते अरहंते माणुसे खेत्ते // 3 //

[च पुनः अहं ] फिर मैं कुंदकुंदाचार्य [मानुषे क्षेत्रे वर्तमानान् ] मनुष्योंके रहनेका क्षेत्र जो ढाई द्वीप, (जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, और आधा पुष्करद्वीप ) उसमें रहनेवाले जो जो अरहंत हैं, [तान् तान् सर्वानहतः] उन उन सब अरहंतोंको [समकं समकं प्रत्येकमेव प्रत्येकं] सबको एकही समय अथवा हरएकको कालके क्रमसे [ वन्दे ] नमस्कार करता हूँ। भावार्थ-इस भरतक्षेत्रमें इस समय तीर्थकर मौजूद नहीं हैं, इस कारण जो महाविदेहमें तीर्थंकर वर्तमान हैं, उनको मन वचन कायसे शास्त्रके अनुसार नमस्कार करता हूँ। वह नमस्कार दो तरहका है, द्वैत तथा अद्वैत, जो शरीरको नमाकर मस्तकको भूमिमें लगाकर, अनेक स्तुतियोंसे पंचपरमेष्ठीको अष्टाङ्ग नमस्कार करना हैं, वह द्वैत नमस्कार है, और जिस जगह भाव्यभावकभावोंकी विशेषता ( उत्कटता ) से अत्यंत लीन होकर ' ये पश्चपरमेष्ठी' 'यह मैं' ऐसा अपना और परका मेद मिट जावे, उस जगह अद्वैत नमस्कार कहा जाता है। अभ्यन्तरके परिणामोंको भाव्य, तथा वचनोंके बोलनेरूप बाह्य भावोंको भावक कहते हैं // 3 //

गाथा -4
किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं /
अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसि // 4 //

[अहं साम्यं उपसंपद्ये] मैं ग्रन्थकर्ता शान्त भाव जो वीतरागचारित्र उसको स्वीकार करता हूँ। क्या करके [अर्हय नमस्कृत्य ] अरहंत जो अनन्तचतुष्टयसहित जीवन्मुक्त जिनवर हैं, उनको पहिले कहा हुआ दो तरहका नमस्कार करके, [तथा सिद्धेभ्यः ] और उसी प्रकार सिद्धोंको, [गणघरेभ्यः ] आचार्योंको, [अध्यापकवर्गेभ्यः] उपाध्यायोंके समूहको [च इति सर्वेभ्यः साधुभ्यः ] और इसी प्रकार सब साधुओंको नमस्कार करके 

गाथा -5
तेसिं विसुद्धदसणणाणपहाणासमं समासेज /
उवसंपयामि सम्म जसो णिव्वाणसंपत्ती // 5 // [पणगं]


फिर क्या करके शमपरिणामोंको स्वीकार करता हूँ ? [ तेषां विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रमं] उन पञ्चपरमेष्ठियोंके निर्मल दर्शनज्ञानस्वरूप मुख्य स्थानको [समासाद्य ] पाकरके / [यतो निर्वाणसंप्राप्तिः] क्योंकि इन शान्तपरिणामोंसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है।

भावार्थ-

सब उपाधियोंसे जुदा आत्माको जानना, और वैसा ही श्रद्धान करना, ये ही निर्मल दर्शन, ज्ञान पंचपरमेष्ठीके स्थान हैं। इनमें ही पंचपरमेष्ठी प्राप्त होते हैं। इस तरह स्थानोंको मैं पाकर वीतरागचारित्रको धारण करता हूँ / यद्यपि गुणस्थानोंके चढ़नेके क्रममें सरागचारित्र जबर्दस्ती अर्थात् चारित्रमोहके मन्द उदय होनेसे अपने आप आजाता है, तो भी मैं उसको दूर ही से छोड़ता हूँ, क्योंकि वह कषायके अंशोंसे मिला हुआ है, और पुण्यबन्धका कारण है / इस कारण समस्ल कषाय-कलंकरहित तथा साक्षात् मोक्षका कारण वीतरागचारित्रको अंगीकार कस्ता हूँ॥

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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प्रवचनसारः गाथा -3, 4, 5 - by Manish Jain - 07-29-2022, 12:15 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा -3, 4, 5 - by sandeep jain - 08-01-2022, 09:33 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा -3, 4, 5 - by sumit patni - 08-14-2022, 06:51 AM

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