08-14-2022, 06:51 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -3,4
नमस्कार हो अरहन्तोंको सिद्धोंको गणपतियोंको ।
उपाध्याय लोगोंको भी फिर मेरा यो सब यतियोंको ॥
विशुद्ध दर्शन बोध विधायक जिनके उत्तम आश्रमसे
साम्यभावको मैं पा करके पाऊं निर्वाण क्रमसे ॥
गाथा -5,6
उनके प्रवचनसारको यहाँ हिन्दी छन्दोंमें गाऊँ
अपना और भद्रलोगोंका जिसपरसे हित कर पाऊँ ॥
सम्यग्ज्ञानसहित चेतनका चरित सदा सुख भरता है।
श्री सुरेश (देवासुर) मानवराज विभवयुत शिवपदको करता है ॥ ३ ॥
गाथा -1,2, 3,4
सारांशः—यहाँ प्रथम वृत्तमें स्वामी कुन्दकुन्दाचार्य देवने भगवान् वर्द्धमान् तीर्थङ्करको नमस्कार किया है। सो इसमें विचारकी बात यह है कि- कुन्दकुन्दाचार्य के समयमें तो श्री वर्द्धमान स्वामी आठों कर्मोंसे रहित हो चुके थे, फिर भी यहाँ पर उनके लिये यातिघातकर्ता ही क्यों कहा गया है? तो इसका उत्तर यह हैं कि- आत्माके द्वारा जीतने योग्य यद्यपि आठ कर्म हैं परन्तु उनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इसप्रकार इन घातिया कहलानेवाले चार कर्मों पर तो प्रयत्नपूर्वक विजय प्राप्त करनी पड़ती है, बाकींके अघातिया कहलानेवाले चार कर्म तो उन पूर्वोक्त पातियाकर्मीको दूर हटा देने पर फिर समयानुसार अनायास ही इस आत्मासे दूर हो जाया करते हैं एवं धर्मतीर्थ प्रवर्तक तथा सकलज्ञ भी घातिकर्मोके नाश होते ही हो जाते हैं। इसी बातको ध्यान में रखते हुए आचार्यश्री ने ऐसा लिखा है।
गाथा -5,6
सारांश: – सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान सहित जो सम्यक्चारित्र है वह सराग और वीतराग के भेदसे दो प्रकारका होता है। वीतराग चारित्रसे तो साक्षात् निर्वाणकी प्राप्ति होती है किन्तु सराग चारित्रसे देवेन्द्रपद प्राप्त करके तदुपरान्त मनुष्यभवमें चक्रवर्ती या बलदेव वगैरह की राजविभूतिको प्राप्त करके फिर मुनि होकर मुक्ति प्राप्त करता है। एवं सरागचारित्र परम्परा मुक्तिका कारण माना गया है; यही यहाँ बतलाया है। मूलग्रंथकी छठी गाथाका शुद्ध पाठ 'संपज्जदि णिव्वाणं देवेसुरमणुयरायविहेवेहिं' ऐसा है क्योंकि सम्यकुदृष्टि जीव मरकर असुरोंमें कभी भी उत्पन्न नहीं होता है। यह बात दूसरी है कि कोई सम्यग्दृष्टि जीव चारित्र धारण करके भी किसी असुरकुमारकी विभूतिको देखकर उसका सम्यक्त्व नष्ट हो जानेसे लालायित होकर निदान बंध करले तो वह मरकर धरणीन्द्र जैसी अवस्था भी प्राप्त कर लेता है। इस अपेक्षा 'देवासुरमणुयरायविहेवेहिं' ऐसा पाठ भी हो सकता है।
गाथा -3,4
नमस्कार हो अरहन्तोंको सिद्धोंको गणपतियोंको ।
उपाध्याय लोगोंको भी फिर मेरा यो सब यतियोंको ॥
विशुद्ध दर्शन बोध विधायक जिनके उत्तम आश्रमसे
साम्यभावको मैं पा करके पाऊं निर्वाण क्रमसे ॥
गाथा -5,6
उनके प्रवचनसारको यहाँ हिन्दी छन्दोंमें गाऊँ
अपना और भद्रलोगोंका जिसपरसे हित कर पाऊँ ॥
सम्यग्ज्ञानसहित चेतनका चरित सदा सुख भरता है।
श्री सुरेश (देवासुर) मानवराज विभवयुत शिवपदको करता है ॥ ३ ॥
गाथा -1,2, 3,4
सारांशः—यहाँ प्रथम वृत्तमें स्वामी कुन्दकुन्दाचार्य देवने भगवान् वर्द्धमान् तीर्थङ्करको नमस्कार किया है। सो इसमें विचारकी बात यह है कि- कुन्दकुन्दाचार्य के समयमें तो श्री वर्द्धमान स्वामी आठों कर्मोंसे रहित हो चुके थे, फिर भी यहाँ पर उनके लिये यातिघातकर्ता ही क्यों कहा गया है? तो इसका उत्तर यह हैं कि- आत्माके द्वारा जीतने योग्य यद्यपि आठ कर्म हैं परन्तु उनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इसप्रकार इन घातिया कहलानेवाले चार कर्मों पर तो प्रयत्नपूर्वक विजय प्राप्त करनी पड़ती है, बाकींके अघातिया कहलानेवाले चार कर्म तो उन पूर्वोक्त पातियाकर्मीको दूर हटा देने पर फिर समयानुसार अनायास ही इस आत्मासे दूर हो जाया करते हैं एवं धर्मतीर्थ प्रवर्तक तथा सकलज्ञ भी घातिकर्मोके नाश होते ही हो जाते हैं। इसी बातको ध्यान में रखते हुए आचार्यश्री ने ऐसा लिखा है।
गाथा -5,6
सारांश: – सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान सहित जो सम्यक्चारित्र है वह सराग और वीतराग के भेदसे दो प्रकारका होता है। वीतराग चारित्रसे तो साक्षात् निर्वाणकी प्राप्ति होती है किन्तु सराग चारित्रसे देवेन्द्रपद प्राप्त करके तदुपरान्त मनुष्यभवमें चक्रवर्ती या बलदेव वगैरह की राजविभूतिको प्राप्त करके फिर मुनि होकर मुक्ति प्राप्त करता है। एवं सरागचारित्र परम्परा मुक्तिका कारण माना गया है; यही यहाँ बतलाया है। मूलग्रंथकी छठी गाथाका शुद्ध पाठ 'संपज्जदि णिव्वाणं देवेसुरमणुयरायविहेवेहिं' ऐसा है क्योंकि सम्यकुदृष्टि जीव मरकर असुरोंमें कभी भी उत्पन्न नहीं होता है। यह बात दूसरी है कि कोई सम्यग्दृष्टि जीव चारित्र धारण करके भी किसी असुरकुमारकी विभूतिको देखकर उसका सम्यक्त्व नष्ट हो जानेसे लालायित होकर निदान बंध करले तो वह मरकर धरणीन्द्र जैसी अवस्था भी प्राप्त कर लेता है। इस अपेक्षा 'देवासुरमणुयरायविहेवेहिं' ऐसा पाठ भी हो सकता है।