08-14-2022, 07:09 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -5,6
उनके प्रवचनसारको यहाँ हिन्दी छन्दोंमें गाऊँ
अपना और भद्रलोगोंका जिसपरसे हित कर पाऊँ ॥
सम्यग्ज्ञानसहित चेतनका चरित सदा सुख भरता है।
श्री सुरेश (देवासुर) मानवराज विभवयुत शिवपदको करता है ॥ ३ ॥
गाथा -5,6
सारांश: – सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान सहित जो सम्यक्चारित्र है वह सराग और वीतराग के भेदसे दो प्रकारका होता है। वीतराग चारित्रसे तो साक्षात् निर्वाणकी प्राप्ति होती है किन्तु सराग चारित्रसे देवेन्द्रपद प्राप्त करके तदुपरान्त मनुष्यभवमें चक्रवर्ती या बलदेव वगैरह की राजविभूतिको प्राप्त करके फिर मुनि होकर मुक्ति प्राप्त करता है। एवं सरागचारित्र परम्परा मुक्तिका कारण माना गया है; यही यहाँ बतलाया है। मूलग्रंथकी छठी गाथाका शुद्ध पाठ 'संपज्जदि णिव्वाणं देवेसुरमणुयरायविहेवेहिं' ऐसा है क्योंकि सम्यकुदृष्टि जीव मरकर असुरोंमें कभी भी उत्पन्न नहीं होता है। यह बात दूसरी है कि कोई सम्यग्दृष्टि जीव चारित्र धारण करके भी किसी असुरकुमारकी विभूतिको देखकर उसका सम्यक्त्व नष्ट हो जानेसे लालायित होकर निदान बंध करले तो वह मरकर धरणीन्द्र जैसी अवस्था भी प्राप्त कर लेता है। इस अपेक्षा 'देवासुरमणुयरायविहेवेहिं' ऐसा पाठ भी हो सकता है।
गाथा -5,6
उनके प्रवचनसारको यहाँ हिन्दी छन्दोंमें गाऊँ
अपना और भद्रलोगोंका जिसपरसे हित कर पाऊँ ॥
सम्यग्ज्ञानसहित चेतनका चरित सदा सुख भरता है।
श्री सुरेश (देवासुर) मानवराज विभवयुत शिवपदको करता है ॥ ३ ॥
गाथा -5,6
सारांश: – सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान सहित जो सम्यक्चारित्र है वह सराग और वीतराग के भेदसे दो प्रकारका होता है। वीतराग चारित्रसे तो साक्षात् निर्वाणकी प्राप्ति होती है किन्तु सराग चारित्रसे देवेन्द्रपद प्राप्त करके तदुपरान्त मनुष्यभवमें चक्रवर्ती या बलदेव वगैरह की राजविभूतिको प्राप्त करके फिर मुनि होकर मुक्ति प्राप्त करता है। एवं सरागचारित्र परम्परा मुक्तिका कारण माना गया है; यही यहाँ बतलाया है। मूलग्रंथकी छठी गाथाका शुद्ध पाठ 'संपज्जदि णिव्वाणं देवेसुरमणुयरायविहेवेहिं' ऐसा है क्योंकि सम्यकुदृष्टि जीव मरकर असुरोंमें कभी भी उत्पन्न नहीं होता है। यह बात दूसरी है कि कोई सम्यग्दृष्टि जीव चारित्र धारण करके भी किसी असुरकुमारकी विभूतिको देखकर उसका सम्यक्त्व नष्ट हो जानेसे लालायित होकर निदान बंध करले तो वह मरकर धरणीन्द्र जैसी अवस्था भी प्राप्त कर लेता है। इस अपेक्षा 'देवासुरमणुयरायविहेवेहिं' ऐसा पाठ भी हो सकता है।