08-14-2022, 07:22 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -7,8
जो शमभावरूप होता है वहीं धर्म है कहलाता ।
मोहसोभविहीन आत्मपरिणाम जैनमत याँ गाता ॥
धर्मरूप परिणत आत्मा भी धर्म कहा जा सकता है।
क्योंकि भावसे भाववान तन्मयता तत्क्षण रखता है ॥ ४ ॥
गाथा -7,8,9,10
सारांश:- ज्ञानके द्वारा जाननेमें आवे उसे वस्तु या अर्थ कहते हैं, वह द्रव्य गुण और पर्यायात्मक सत्ताको स्वीकार किये हुए सद्रूप होता है। जो अपने आपको स्वीकार करते हुए भी औरसे और रूपमें होता रहे उसे द्रव्य कहते हैं। उस द्रव्यको स्थित रखनेवाली शक्तिको गुण और उसके परिवर्तनको पर्याय कहते हैं। ये तीनों बातें जहाँ पर हों वह वस्तु ज्ञानका विषय हुआ करती है। अब यहाँ पर एक बात विचारणीय है, वह यह है कि
गुण और पर्याय ये दोनों बातें जिसमें हों वह द्रव्य होता है। उसी को वस्तु कहते हैं और वहीं ज्ञानका विषय होता है, ऐसा हरएक विद्वान् मानता है परन्तु श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों बातें जिसमें हों वह वस्तु ज्ञानका विषय होती है। मानलो हमारे सम्मुख एक चीज आई जो हमारे अनुभवमें इसप्रकार आती हैं कि
यह एक खट्टे रसवाला आम है। इसमें आम तो विकारी द्रव्य है। जिसका रस गुण है और खट्टापन उस रस गुणकी पर्याय है। सो वहाँ पर वह उस आमका रसगुण खट्टेपन मात्र ही नहीं, किन्तु उससे अधिक दायरेवाला है। वहाँ खट्टापन मिटकर मोठापन आनेवाला है। इसीप्रकार आम भी रसगुण मात्र ही न होकर वह उससे भिन्न कहलानेवाले रूप, स्पर्श, गन्धादि अनेक गुणोंका पुञ्ज है। जिससे रसगुण कथञ्चित् भिन्न है, जो कि रसना इन्द्रियके द्वारा पहिचाना जाता है एवं द्रव्य, गुण पर्याय ये तोनों हमारी दृष्टिमें भिन्न भिन्न होकर भी ऐसे भिन्न नहीं है कि उनको हम देशापेक्षया भी भिन्न कर सकें जिस प्रदेश अर्थात् वस्तुमें खट्टेपनको लिए हुए हमें रसका अनुभव होता है, वहीं पर उसके साथ साथ इतर स्पर्शादि गुणोंके पुञ्जात्मक आमका भी अनुभव हो रहा है। वस्तु परिणमनशील होती है। जो अपने परिणमन के साथमें तादात्म्य, अभिन्न भावको लिए हुए हुआ करती है। वस्तुमें हरसमय कोई न कोई परिणमन अवश्य होता ही है। वस्तुको छोड़कर परिणमन नहीं होता है। इसीप्रकार परिणमनके बिना वस्तु भी स्थित नहीं रह सकती है।
आत्मा भी वस्तु है अतः परिणमनशील है। जिसका परिणमन शुभ, अशुभ और शुद्धके भेदसे तीन तरहका होता है और जब जैसा परिणमन होता है उस समय वह आत्मा ही स्वयं वैसा बन जाता है। शुभ परिणमनके समय शुभ तथा अशुभके समय अशुभ और शुद्धके समय यह आत्मा हो शुद्ध हो जाता है।
गाथा -7,8
जो शमभावरूप होता है वहीं धर्म है कहलाता ।
मोहसोभविहीन आत्मपरिणाम जैनमत याँ गाता ॥
धर्मरूप परिणत आत्मा भी धर्म कहा जा सकता है।
क्योंकि भावसे भाववान तन्मयता तत्क्षण रखता है ॥ ४ ॥
गाथा -7,8,9,10
सारांश:- ज्ञानके द्वारा जाननेमें आवे उसे वस्तु या अर्थ कहते हैं, वह द्रव्य गुण और पर्यायात्मक सत्ताको स्वीकार किये हुए सद्रूप होता है। जो अपने आपको स्वीकार करते हुए भी औरसे और रूपमें होता रहे उसे द्रव्य कहते हैं। उस द्रव्यको स्थित रखनेवाली शक्तिको गुण और उसके परिवर्तनको पर्याय कहते हैं। ये तीनों बातें जहाँ पर हों वह वस्तु ज्ञानका विषय हुआ करती है। अब यहाँ पर एक बात विचारणीय है, वह यह है कि
गुण और पर्याय ये दोनों बातें जिसमें हों वह द्रव्य होता है। उसी को वस्तु कहते हैं और वहीं ज्ञानका विषय होता है, ऐसा हरएक विद्वान् मानता है परन्तु श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों बातें जिसमें हों वह वस्तु ज्ञानका विषय होती है। मानलो हमारे सम्मुख एक चीज आई जो हमारे अनुभवमें इसप्रकार आती हैं कि
यह एक खट्टे रसवाला आम है। इसमें आम तो विकारी द्रव्य है। जिसका रस गुण है और खट्टापन उस रस गुणकी पर्याय है। सो वहाँ पर वह उस आमका रसगुण खट्टेपन मात्र ही नहीं, किन्तु उससे अधिक दायरेवाला है। वहाँ खट्टापन मिटकर मोठापन आनेवाला है। इसीप्रकार आम भी रसगुण मात्र ही न होकर वह उससे भिन्न कहलानेवाले रूप, स्पर्श, गन्धादि अनेक गुणोंका पुञ्ज है। जिससे रसगुण कथञ्चित् भिन्न है, जो कि रसना इन्द्रियके द्वारा पहिचाना जाता है एवं द्रव्य, गुण पर्याय ये तोनों हमारी दृष्टिमें भिन्न भिन्न होकर भी ऐसे भिन्न नहीं है कि उनको हम देशापेक्षया भी भिन्न कर सकें जिस प्रदेश अर्थात् वस्तुमें खट्टेपनको लिए हुए हमें रसका अनुभव होता है, वहीं पर उसके साथ साथ इतर स्पर्शादि गुणोंके पुञ्जात्मक आमका भी अनुभव हो रहा है। वस्तु परिणमनशील होती है। जो अपने परिणमन के साथमें तादात्म्य, अभिन्न भावको लिए हुए हुआ करती है। वस्तुमें हरसमय कोई न कोई परिणमन अवश्य होता ही है। वस्तुको छोड़कर परिणमन नहीं होता है। इसीप्रकार परिणमनके बिना वस्तु भी स्थित नहीं रह सकती है।
आत्मा भी वस्तु है अतः परिणमनशील है। जिसका परिणमन शुभ, अशुभ और शुद्धके भेदसे तीन तरहका होता है और जब जैसा परिणमन होता है उस समय वह आत्मा ही स्वयं वैसा बन जाता है। शुभ परिणमनके समय शुभ तथा अशुभके समय अशुभ और शुद्धके समय यह आत्मा हो शुद्ध हो जाता है।