प्रवचनसारः गाथा -12, 13
#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -11,12
शुद्धोपयोग युत होता है पाता है निर्वाण वही
जब होता है शुभोपयोगी तो पाता है स्वर्ग सही ॥
अशुभोदयसे तो कुमत्यं तिर्यञ्च नारकी हो करके ।
चोर दुःख पाता अनन्त संसारितया यह मर करके ॥


गाथा -13,14
शुद्धोपयोगसे हो चेतन नित्य सुखी कहलाता है ।
अनुपम विषयातीतः आत्मगत वह अनन्तसुख पाता है ।
तत्वार्थ श्रद्धानी होकर संयमतपयुक्त जो योगी
समसुखदुःखतया विराग हो वह शुद्धोपयोग भोगी ॥ ७ ॥


गाथा -11,12
सारांश:- यहाँ पर पाठक देख रहे हैं कि शुद्ध और शुभके साथमें तो उपयोग शब्द है किन्तु अशुभके साथ उपयोग शब्द न होकर उदय शब्द दिया गया है। ऐसा क्यों? इसका मतलब यह है कि शुद्ध या शुभ उपयोगकी अवस्थामें आत्मा अपने आत्मत्व को स्वीकार किये हुए रहता है किन्तु अशुभ की दशा में आत्मभाव आत्मत्वसे दूर हटकर उत्पथको अपनाये हुए रहा करता है। शुद्ध या शुभोपयोगी जीव धर्मात्मा होता है और अशुभोपयोगी जीव अधर्मी, पापी, पाखण्डी होता है। इसीलिये वह नरकादिक दुःखोंका भाजन होता है।

गाथा -13,14
सारांशः—यहाँ आचार्यश्रीने शुद्धोपयोगवालेको ही वास्तविक सुख होता हैं ऐसा कहते हुए यह बतलाया है कि शुद्धोपयोग उसी पुरुषके होता है जो सर्वप्रथम यथार्थ तत्त्वोंका श्रद्धान करके अपने उपयोगको अशुभसे हटाकर शुभरूप बना लेता है। बाह्य संपूर्ण पदार्थोंका त्याग करते हुए संयम धारण करके साधु दशाको स्वीकार कर लेता है। फिर अपने अंतरंगमें भी स्फुरायमान होने वाले रागद्वेष भाव पर भी विजय प्राप्त करता हुआ पूर्ण विरागता पर आजाता है। उसकी दृष्टिमें न तो कोई शत्रु हो होता है और न कोई मित्र ही होता है। वह सुख और दुःख को बिल्कुल समान समझता है। आत्मामें उत्पन्न होने वाले काम, क्रोध, मद, मात्सर्य और ईर्षा आदि विकारी भावोंका मूलोच्छेद करके जबतक अपने आपको शुद्ध न बना लिया जावे तबतक वास्तविक पूर्ण शान्ति नहीं मिल सकती है। और इन सब विकारोंका मूलोच्छेद इस दुनियाँदारीकी झंझटवाले कौटुम्बिक जीवनमें फँसे रह कर कभी नहीं हो सकता किन्तु इससे मुक्त होकर निर्द्वन्द दशा अपनानेसे ही हो सकता है।
 
शङ्काः – क्या आत्मा वास्तवमें अशुद्ध है?
उत्तर: - वास्तव शब्दका मतलब होता है केवलपन। केवल (अकेले) पनकी अवस्था में विकार नहीं हो सकता है। परन्तु इस आत्माके साथमें अनादिकालसे कर्मपुद्गल परमाणुओंका मेल होरहा है अतः इस संसारी जीवमें विकार है।

शङ्काः - आत्माके साथ कर्मोंका मेल है तो भी क्या हुआ? कमका एक भी परमाणु आत्मरूप और आत्माका एक भी प्रदेश कर्मपरमाणुरूप नहीं हुआ है, फिर आत्माका क्या बिगड़ गया। आत्माके प्रदेश भिन्न हैं और कर्मपरमाणु भिन्न हैं। जैसे कुछ गेहूं हैं। इनमें कुछ कङ्कर मिला देनेसे ये कङ्करदार होगये, फिर भी गेहूं, गेहूं ही हैं और कङ्कर, कङ्कर ही हैं। हम जब चाहें गेहूंसे कङ्करोंको निकालकर बाहर कर सकते हैं।

उत्तर: – कर्मरूप पुद्गल परमाणुओंके साथ आत्माका सम्बन्ध होकर भी कोई भी कर्मपरमाणु आत्मरूप और कोई सा भी आत्माका प्रदेश कर्मपरमाणु रूपमें नहीं हो गया है। यह बात तो ठीक है किन्तु आत्मा और कर्मोंका गेहूँ और कङ्करोंके समान मेल नहीं है क्योंकि आत्माके प्रदेश गेहूँकी तरह भिन्न नहीं होते हैं। आत्मा तो असंख्यात प्रदेशोंका एक अखण्ड द्रव्य है। वह किसी तूम्बीके ऊपर मिट्टीकी तरह आत्मा के ऊपर कर्मपुञ्जसे लिपट रहा हो, ऐसा नहीं है। सरल रीतिसे समझने के लिये संसारी आत्माके साथमें कर्मका सम्बन्ध तो पुरुषके साथ स्त्रीके सम्बन्धकी तरह है। जिसप्रकार स्त्रीके प्रभावमें पुरुष और पुरुषके प्रभावमें स्त्री का प्रचलन रहता है वैसे ही आत्मपरिणामोंसे कर्मोंका और कर्मोक प्रभावसे आत्माका प्रचलन रहता है। मतलब यह है कि जैसे अग्रिके सम्पर्कसे मोम अपने घनत्वको त्यागकर पिघल जाया करता है वैसे ही स्त्री पुत्रादि बाह्य पदार्थोंके सम्पर्क में मोहनीयादि कर्मो के उदयको पाकर आत्मा भी रागद्वेषादि विकारोंके रूपमें परिणत हो जाया करता है अतः आत्माको उन विकारोंसे रहित शुद्ध बनाना चाहे तो मोहनीयादि कर्मों पर विजय पानेके लिए स्त्री पुत्रादि रूप बाह्य पदार्थोंसे अवश्य ही दूर हटना होगा जैसे कि मोमको घनत्व पर लानेके लिये अग्निपरसे दूर करना पड़ता है।
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प्रवचनसारः गाथा -12, 13 - by Manish Jain - 08-01-2022, 08:58 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा -12, 13 - by sandeep jain - 08-01-2022, 10:25 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा -12, 13 - by sumit patni - 08-14-2022, 08:50 AM

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