08-14-2022, 09:14 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -13,14
शुद्धोपयोगसे हो चेतन नित्य सुखी कहलाता है ।
अनुपम विषयातीतः आत्मगत वह अनन्तसुख पाता है ।
तत्वार्थ श्रद्धानी होकर संयमतपयुक्त जो योगी
समसुखदुःखतया विराग हो वह शुद्धोपयोग भोगी ॥ ७ ॥
गाथा -15,16
निज विशुद्ध उपयोगद्वारा घातिकर्म जो हनता है
ज्ञेयभूत सम्पूर्ण वस्तुके पारङ्गत वह बनता है
यो लब्धस्वभाव होनेसे स्वयम्भू च सर्वज्ञ भया
सर्वलोकपतियोंसे पूजित होता है परमात्मतया ॥ ८ ॥
गाथा -13,14
सारांशः—यहाँ आचार्यश्रीने शुद्धोपयोगवालेको ही वास्तविक सुख होता हैं ऐसा कहते हुए यह बतलाया है कि शुद्धोपयोग उसी पुरुषके होता है जो सर्वप्रथम यथार्थ तत्त्वोंका श्रद्धान करके अपने उपयोगको अशुभसे हटाकर शुभरूप बना लेता है। बाह्य संपूर्ण पदार्थोंका त्याग करते हुए संयम धारण करके साधु दशाको स्वीकार कर लेता है। फिर अपने अंतरंगमें भी स्फुरायमान होने वाले रागद्वेष भाव पर भी विजय प्राप्त करता हुआ पूर्ण विरागता पर आजाता है। उसकी दृष्टिमें न तो कोई शत्रु हो होता है और न कोई मित्र ही होता है। वह सुख और दुःख को बिल्कुल समान समझता है। आत्मामें उत्पन्न होने वाले काम, क्रोध, मद, मात्सर्य और ईर्षा आदि विकारी भावोंका मूलोच्छेद करके जबतक अपने आपको शुद्ध न बना लिया जावे तबतक वास्तविक पूर्ण शान्ति नहीं मिल सकती है। और इन सब विकारोंका मूलोच्छेद इस दुनियाँदारीकी झंझटवाले कौटुम्बिक जीवनमें फँसे रह कर कभी नहीं हो सकता किन्तु इससे मुक्त होकर निर्द्वन्द दशा अपनानेसे ही हो सकता है।
गाथा -15,16
सारांश:-जब यह जीव अशुभसे शुभोपयोग पर आता है तब गुरुमुखसे तत्वोंका स्वरूप सुनकर ठीक ठीक श्रद्धान करता है। फिर शम और दम के द्वारा विशुद्धसे विशुद्धतरके रूपमें परिणत होनेवाले अपने परिणामोंको प्राप्त करता है और अपने अन्तरङ्गको क्षुब्धताको भी जीतकर चित्तको स्थिरतासे पूर्ण वीतराग होता हुआ अपने ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायको भी दूर हटाकर साक्षात् सर्वज्ञ हो जाता है। एवं संसारी जीवोंके लिये परमाराध्य बन जाता है। जिसे परमात्मा, भगवान्, स्वयम्भू परमेष्ठी और अरहन्तादि नामोंसे पुकारते हुए स्मरण किया जाता है। इस प्रकार वह संसारमुक्त हो जानेके बादमें, फिर संसारी कभी भी नहीं होता है |
गाथा -13,14
शुद्धोपयोगसे हो चेतन नित्य सुखी कहलाता है ।
अनुपम विषयातीतः आत्मगत वह अनन्तसुख पाता है ।
तत्वार्थ श्रद्धानी होकर संयमतपयुक्त जो योगी
समसुखदुःखतया विराग हो वह शुद्धोपयोग भोगी ॥ ७ ॥
गाथा -15,16
निज विशुद्ध उपयोगद्वारा घातिकर्म जो हनता है
ज्ञेयभूत सम्पूर्ण वस्तुके पारङ्गत वह बनता है
यो लब्धस्वभाव होनेसे स्वयम्भू च सर्वज्ञ भया
सर्वलोकपतियोंसे पूजित होता है परमात्मतया ॥ ८ ॥
गाथा -13,14
सारांशः—यहाँ आचार्यश्रीने शुद्धोपयोगवालेको ही वास्तविक सुख होता हैं ऐसा कहते हुए यह बतलाया है कि शुद्धोपयोग उसी पुरुषके होता है जो सर्वप्रथम यथार्थ तत्त्वोंका श्रद्धान करके अपने उपयोगको अशुभसे हटाकर शुभरूप बना लेता है। बाह्य संपूर्ण पदार्थोंका त्याग करते हुए संयम धारण करके साधु दशाको स्वीकार कर लेता है। फिर अपने अंतरंगमें भी स्फुरायमान होने वाले रागद्वेष भाव पर भी विजय प्राप्त करता हुआ पूर्ण विरागता पर आजाता है। उसकी दृष्टिमें न तो कोई शत्रु हो होता है और न कोई मित्र ही होता है। वह सुख और दुःख को बिल्कुल समान समझता है। आत्मामें उत्पन्न होने वाले काम, क्रोध, मद, मात्सर्य और ईर्षा आदि विकारी भावोंका मूलोच्छेद करके जबतक अपने आपको शुद्ध न बना लिया जावे तबतक वास्तविक पूर्ण शान्ति नहीं मिल सकती है। और इन सब विकारोंका मूलोच्छेद इस दुनियाँदारीकी झंझटवाले कौटुम्बिक जीवनमें फँसे रह कर कभी नहीं हो सकता किन्तु इससे मुक्त होकर निर्द्वन्द दशा अपनानेसे ही हो सकता है।
गाथा -15,16
सारांश:-जब यह जीव अशुभसे शुभोपयोग पर आता है तब गुरुमुखसे तत्वोंका स्वरूप सुनकर ठीक ठीक श्रद्धान करता है। फिर शम और दम के द्वारा विशुद्धसे विशुद्धतरके रूपमें परिणत होनेवाले अपने परिणामोंको प्राप्त करता है और अपने अन्तरङ्गको क्षुब्धताको भी जीतकर चित्तको स्थिरतासे पूर्ण वीतराग होता हुआ अपने ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायको भी दूर हटाकर साक्षात् सर्वज्ञ हो जाता है। एवं संसारी जीवोंके लिये परमाराध्य बन जाता है। जिसे परमात्मा, भगवान्, स्वयम्भू परमेष्ठी और अरहन्तादि नामोंसे पुकारते हुए स्मरण किया जाता है। इस प्रकार वह संसारमुक्त हो जानेके बादमें, फिर संसारी कभी भी नहीं होता है |