08-14-2022, 10:37 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -17,18 हिन्दी पद्यानुवाद
भङ्गहीन उत्पाद और उत्पादहीन हो नाश जहाँ
किन्तुत्पत्ति विनाश स्थिति समवाय सहित सद्भाव वहां
पहिली पर्यय विष्ट होकर उत्तर पर्यय होती है
सब चीजोंमें किन्तु चीज सद्भूतपने जोती है
गाथा -17,18
सारांश:- जिस शुद्ध अवस्थाकी प्राप्ति हुई है उसका अब कभी भी अभाव नहीं होगा। और जिस अशुद्ध दशाका अभाव कर दिया गया है उसका फिर कभी सद्भाव नहीं होगा।
ऐसा होते हुये भी इस परम विशुद्ध आत्मामें - द्रव्यका असाधारण लक्षण जो उत्पाद, व्यय और धाव्ययुक्तता है उसका अभाव नहीं होता है। क्योंकि ऐसा होने पर तो आत्माका अस्तित्व ही नहीं रहता है अत: ऐसा कभी नहीं हो सकता है। प्रत्युत हरएक द्रव्य अपनी पूर्व पर्यायका उल्लंघन करके तदुत्तर पर्याय के रूपमें परिणत होता रहता है। यह परिणमन दो प्रकारका होता है। एक विलक्षणतासे और दूसरा स्वलक्षणतासे। जैसे आम हरे से पीला हो जाया करता हैं, यह विलक्षण परिणमन हुआ। एवं कोई भी चीज वैसीकी वैसी होकर भी हमें नईसे पुरानी प्रतीत होने लगती है यह स्वलक्षण परिणमन हुआ।
सूर्यका प्रतिविम्ब जिसे हम लोग नित्य देखा करते हैं बहुत पुराना है फिर भी हमको वैसा ही प्रतीत होता है। किन्तु उसमें अपने आपमें परिणमन अवश्य होता है। स्पष्ट रूपमें जाड़ेके दिनोंमें उसके घाममें मंदपना और गरमीके दिनोंमें उसमें तेजी दीख पड़ती है। निरन्तर उसमेंसे किरणें प्रगट होती रहती हैं। फिर भी सूर्यबिम्ब सदासे ऐसा ही है जैसा कि आज दीख रहा है और आगे भी ऐसा ही रहेगा। इसीप्रकार शुद्धात्मा भी अब शुद्ध हो रहेगा। उसमें उसके अगुरुलघु गुणको अपेक्षासे निरन्तर परिवर्तन होते हुए भी वह किसी दूसरे रूपमें कभी भी नहीं बदलता है। जैसे कि पहिले अशुद्ध दशामें नरसे नारकी और नारकीसे पशु तथा देव वगैरह होजाया करता था। ऐसे इस घातिकर्महर्त्ता भगवान्का जो लोग स्मरण करते हैं उनके भी दुख: दूर हो जाया करते हैं, यही बताते हैं
गाथा -17,18 हिन्दी पद्यानुवाद
भङ्गहीन उत्पाद और उत्पादहीन हो नाश जहाँ
किन्तुत्पत्ति विनाश स्थिति समवाय सहित सद्भाव वहां
पहिली पर्यय विष्ट होकर उत्तर पर्यय होती है
सब चीजोंमें किन्तु चीज सद्भूतपने जोती है
गाथा -17,18
सारांश:- जिस शुद्ध अवस्थाकी प्राप्ति हुई है उसका अब कभी भी अभाव नहीं होगा। और जिस अशुद्ध दशाका अभाव कर दिया गया है उसका फिर कभी सद्भाव नहीं होगा।
ऐसा होते हुये भी इस परम विशुद्ध आत्मामें - द्रव्यका असाधारण लक्षण जो उत्पाद, व्यय और धाव्ययुक्तता है उसका अभाव नहीं होता है। क्योंकि ऐसा होने पर तो आत्माका अस्तित्व ही नहीं रहता है अत: ऐसा कभी नहीं हो सकता है। प्रत्युत हरएक द्रव्य अपनी पूर्व पर्यायका उल्लंघन करके तदुत्तर पर्याय के रूपमें परिणत होता रहता है। यह परिणमन दो प्रकारका होता है। एक विलक्षणतासे और दूसरा स्वलक्षणतासे। जैसे आम हरे से पीला हो जाया करता हैं, यह विलक्षण परिणमन हुआ। एवं कोई भी चीज वैसीकी वैसी होकर भी हमें नईसे पुरानी प्रतीत होने लगती है यह स्वलक्षण परिणमन हुआ।
सूर्यका प्रतिविम्ब जिसे हम लोग नित्य देखा करते हैं बहुत पुराना है फिर भी हमको वैसा ही प्रतीत होता है। किन्तु उसमें अपने आपमें परिणमन अवश्य होता है। स्पष्ट रूपमें जाड़ेके दिनोंमें उसके घाममें मंदपना और गरमीके दिनोंमें उसमें तेजी दीख पड़ती है। निरन्तर उसमेंसे किरणें प्रगट होती रहती हैं। फिर भी सूर्यबिम्ब सदासे ऐसा ही है जैसा कि आज दीख रहा है और आगे भी ऐसा ही रहेगा। इसीप्रकार शुद्धात्मा भी अब शुद्ध हो रहेगा। उसमें उसके अगुरुलघु गुणको अपेक्षासे निरन्तर परिवर्तन होते हुए भी वह किसी दूसरे रूपमें कभी भी नहीं बदलता है। जैसे कि पहिले अशुद्ध दशामें नरसे नारकी और नारकीसे पशु तथा देव वगैरह होजाया करता था। ऐसे इस घातिकर्महर्त्ता भगवान्का जो लोग स्मरण करते हैं उनके भी दुख: दूर हो जाया करते हैं, यही बताते हैं