08-14-2022, 11:15 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -19, (आचार्य अमृतचंद की टीका)
गाथा -20a (आचार्य जयसेन की टीका)
घातिघातकर अतुलवीर्य होनेसे। अधिक तेजवाले ।
अक्षातीत बोध सुख पाते हुए आपको सम्भालें ॥
अमरासुर वर भी जिनके चरणों में मस्तक घिसते हैं
उस परमार्थभूतको माने उसके दुःख विनशते हैं ॥ १० ॥
गाथा -20,21 (आचार्य अमृतचंद की टीका)
नहीं केवलज्ञानयानके सुख दुख शरीरगत होते ।
क्योंकि इन्द्रियादीत बोधसे सबको एकसाथ जोते
मतिज्ञानपूर्वक क्रमार्जित नहीं काम उनका होता ।
फिर क्यों खाने पोने जैसी आठोंका हो समझोता ॥ ११
गाथा -19,20a, 20,21
सारांश:- कुछ लोगोंका यह प्रश्न हो सकता है कि वीतराग सर्वज्ञ होजाने पर जबतक यह आत्मा शरीरमें विद्यमान रहता है तबतक तो छद्मस्थकी तरह वह भी खाना पीना करता ही होगा? इसी प्रश्नका यहाँ उत्तर दिया गया है। जब भगवान् सर्वज्ञ होगये, सब बातों को युगपत् जानने लगे और किसी भी बातकी चाह नहीं रही तब फिर उन्हें खानेकी क्या आवश्यकता है? खानेका मतलब तो यह है कि भोजनस्वाद जिह्वाके द्वारा लिया जावे।
शङ्काः - श्री अरहन्त भगवान् स्वाद लेनेके लिये नहीं किन्तु देहस्थितिके लिए भोजन करते हैं।
उत्तर:- क्या भगवान शरीरको रखना चाहते हैं? नहीं, क्योंकि उन्हें अब शरीरसे कोई भी प्रयोजन शेष नहीं रहा है। उनका शरीर तो आयुकर्मके आधार पर स्थित है। वह न तो नष्ट ही किया जासकता है और न उसकी रक्षा ही की जासकती है। वह तो निश्चित समय पर अपने आप ही आयुकर्मके अभाव से छूट जावेगा।
शङ्काः वेदनीय कर्म के उदय का भी कुछ कार्य होना चाहिये?
उत्तर:- सिंहासन छत्र चामरादिकका होना वेदनीय कर्मके उदयसे ही होता है। भोजन करना तो मोहनीय कर्मके उदय और ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा अन्तराय कर्मके क्षयोपशमसे हुआ करता है। जिनकी सत्ता भगवान् अर्हन्तके सर्वथा नहीं है। वे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यके धारक हो चुके हैं। उनके केवलज्ञानमें सब पदार्थ एक साथ प्रतिभासित होते रहते हैं। ऐसा ही कहते हैं
गाथा -19, (आचार्य अमृतचंद की टीका)
गाथा -20a (आचार्य जयसेन की टीका)
घातिघातकर अतुलवीर्य होनेसे। अधिक तेजवाले ।
अक्षातीत बोध सुख पाते हुए आपको सम्भालें ॥
अमरासुर वर भी जिनके चरणों में मस्तक घिसते हैं
उस परमार्थभूतको माने उसके दुःख विनशते हैं ॥ १० ॥
गाथा -20,21 (आचार्य अमृतचंद की टीका)
नहीं केवलज्ञानयानके सुख दुख शरीरगत होते ।
क्योंकि इन्द्रियादीत बोधसे सबको एकसाथ जोते
मतिज्ञानपूर्वक क्रमार्जित नहीं काम उनका होता ।
फिर क्यों खाने पोने जैसी आठोंका हो समझोता ॥ ११
गाथा -19,20a, 20,21
सारांश:- कुछ लोगोंका यह प्रश्न हो सकता है कि वीतराग सर्वज्ञ होजाने पर जबतक यह आत्मा शरीरमें विद्यमान रहता है तबतक तो छद्मस्थकी तरह वह भी खाना पीना करता ही होगा? इसी प्रश्नका यहाँ उत्तर दिया गया है। जब भगवान् सर्वज्ञ होगये, सब बातों को युगपत् जानने लगे और किसी भी बातकी चाह नहीं रही तब फिर उन्हें खानेकी क्या आवश्यकता है? खानेका मतलब तो यह है कि भोजनस्वाद जिह्वाके द्वारा लिया जावे।
शङ्काः - श्री अरहन्त भगवान् स्वाद लेनेके लिये नहीं किन्तु देहस्थितिके लिए भोजन करते हैं।
उत्तर:- क्या भगवान शरीरको रखना चाहते हैं? नहीं, क्योंकि उन्हें अब शरीरसे कोई भी प्रयोजन शेष नहीं रहा है। उनका शरीर तो आयुकर्मके आधार पर स्थित है। वह न तो नष्ट ही किया जासकता है और न उसकी रक्षा ही की जासकती है। वह तो निश्चित समय पर अपने आप ही आयुकर्मके अभाव से छूट जावेगा।
शङ्काः वेदनीय कर्म के उदय का भी कुछ कार्य होना चाहिये?
उत्तर:- सिंहासन छत्र चामरादिकका होना वेदनीय कर्मके उदयसे ही होता है। भोजन करना तो मोहनीय कर्मके उदय और ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा अन्तराय कर्मके क्षयोपशमसे हुआ करता है। जिनकी सत्ता भगवान् अर्हन्तके सर्वथा नहीं है। वे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यके धारक हो चुके हैं। उनके केवलज्ञानमें सब पदार्थ एक साथ प्रतिभासित होते रहते हैं। ऐसा ही कहते हैं