08-14-2022, 11:51 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -24,25,26
ज्ञान अधिक यदि हो आत्मा से तो वह ज्ञान अचेतन हो
यदि हो हीन हन्त वह आत्मा ज्ञान बिना ज्ञाता न कहो
जगको जितनी चीज ज्ञानका विषय सभी हैं यों करके
ज्ञानो जिनसर्वग सब चीजें सदा आत्मगत जिनवरके ॥ १३ ॥
गाथा -27,28
चेतन बिना न बोध कहीं भी चेतन बोधरूप होता ।
चारित्रादिरूप भी ऐसे धर्म धर्मिका समझौता
ज्ञानी ज्ञानात्मक होता है ज्ञेयात्मक पदार्थ सारे ।
एक दूसरे में न समायें दृष्टि यथा रूप निहारे ॥ १४
गाथा -22,23, 24,25,26
सारांश :- आत्मा गुणी है और ज्ञान उसका गुण एवं ज्ञान और आत्मामें तादात्म्य है। ज्ञान आत्माको छोड़कर कहीं अन्यत्र नहीं रहता है और ज्ञानसे शून्य आत्माका एक भी प्रदेश कभी नहीं होता है। भगवान् आत्माका ज्ञान सम्पूर्ण संसारके सभी पदार्थोंको एक साथ स्पष्ट जानता है। कोई भी पदार्थ उनके ज्ञानसे बाहर नहीं है। वह सम्पूर्ण लोकाकाशके पदार्थोंकी तरह अलोकाकाशको भी जानता है, अतः विषय विषयीके रूपमें वह सर्वगत है। ज्ञान आत्मारूप है किन्तु आत्माके ज्ञानरूप होते हुए भी उसमें और भी गुण पाये जाते हैं, यही बताते हैं
गाथा -27,28
सारांश:- एक गुणीमें अनेक गुण होते हैं। जैसे गुलाबके फूलमें सुगन्ध, कोमलता, रेचकता और सुन्दरता आदि अनेक गुण होते हैं। वह गुलाबका फूल सुगन्ध मात्र ही नहीं होता है। वैसे ही आत्मा ज्ञानमय अवश्य है परन्तु ज्ञानमात्र ही आत्मा हो, ऐसी बात नहीं है। उसमें ज्ञानके साथ साथ सम्यक्त्व, दर्शन, अगुरुलघुत्व, अमूर्तत्व वगैरह और भी अनेक गुण हैं। ज्ञान आत्माके हरएक प्रदेशमें पाया जाता है और उसे छोड़ कर वह ज्ञान अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता है। ज्ञान आत्माका असाधारण गुण है। इसीसे यह आत्मा हरएक पदार्थ को जानता है। अन्य पदार्थों को जानते हुए भी आत्मा या आत्मा का ज्ञान उन अन्य पदार्थोंमें प्रविष्ट नहीं हो जाता है। पदार्थ अपने आपके प्रदेशों में स्थित रहते हैं और आत्मा अपने आपके प्रदेशोंमें स्थित रहता है। जैसे नेत्र अपनी जगह पर होता हुआ ही अन्य पदार्थों में पाये जाने वाले रूपको देखा करता है।
गाथा -24,25,26
ज्ञान अधिक यदि हो आत्मा से तो वह ज्ञान अचेतन हो
यदि हो हीन हन्त वह आत्मा ज्ञान बिना ज्ञाता न कहो
जगको जितनी चीज ज्ञानका विषय सभी हैं यों करके
ज्ञानो जिनसर्वग सब चीजें सदा आत्मगत जिनवरके ॥ १३ ॥
गाथा -27,28
चेतन बिना न बोध कहीं भी चेतन बोधरूप होता ।
चारित्रादिरूप भी ऐसे धर्म धर्मिका समझौता
ज्ञानी ज्ञानात्मक होता है ज्ञेयात्मक पदार्थ सारे ।
एक दूसरे में न समायें दृष्टि यथा रूप निहारे ॥ १४
गाथा -22,23, 24,25,26
सारांश :- आत्मा गुणी है और ज्ञान उसका गुण एवं ज्ञान और आत्मामें तादात्म्य है। ज्ञान आत्माको छोड़कर कहीं अन्यत्र नहीं रहता है और ज्ञानसे शून्य आत्माका एक भी प्रदेश कभी नहीं होता है। भगवान् आत्माका ज्ञान सम्पूर्ण संसारके सभी पदार्थोंको एक साथ स्पष्ट जानता है। कोई भी पदार्थ उनके ज्ञानसे बाहर नहीं है। वह सम्पूर्ण लोकाकाशके पदार्थोंकी तरह अलोकाकाशको भी जानता है, अतः विषय विषयीके रूपमें वह सर्वगत है। ज्ञान आत्मारूप है किन्तु आत्माके ज्ञानरूप होते हुए भी उसमें और भी गुण पाये जाते हैं, यही बताते हैं
गाथा -27,28
सारांश:- एक गुणीमें अनेक गुण होते हैं। जैसे गुलाबके फूलमें सुगन्ध, कोमलता, रेचकता और सुन्दरता आदि अनेक गुण होते हैं। वह गुलाबका फूल सुगन्ध मात्र ही नहीं होता है। वैसे ही आत्मा ज्ञानमय अवश्य है परन्तु ज्ञानमात्र ही आत्मा हो, ऐसी बात नहीं है। उसमें ज्ञानके साथ साथ सम्यक्त्व, दर्शन, अगुरुलघुत्व, अमूर्तत्व वगैरह और भी अनेक गुण हैं। ज्ञान आत्माके हरएक प्रदेशमें पाया जाता है और उसे छोड़ कर वह ज्ञान अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता है। ज्ञान आत्माका असाधारण गुण है। इसीसे यह आत्मा हरएक पदार्थ को जानता है। अन्य पदार्थों को जानते हुए भी आत्मा या आत्मा का ज्ञान उन अन्य पदार्थोंमें प्रविष्ट नहीं हो जाता है। पदार्थ अपने आपके प्रदेशों में स्थित रहते हैं और आत्मा अपने आपके प्रदेशोंमें स्थित रहता है। जैसे नेत्र अपनी जगह पर होता हुआ ही अन्य पदार्थों में पाये जाने वाले रूपको देखा करता है।