08-14-2022, 12:10 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -29,30
ज्ञान काचको ज्यों निर्मलतासे सब जग को गहता है ।
ज्ञेयोंमें न समा करके भी तदाकार हो रहता है |
दुग्धभाण्डमें नीलमको यदि डाल दिया वह निज भा से ।
सभी दूधको नीला करदे त्यों जगको ज्ञान प्रकासे ॥ १५ ॥
गाथा -31,32
यदि कहो कि न तदाकारतया भी बोधमें वस्तु वसे ।
तो फिर कैसा उस पदार्थका ज्ञान हुआ यह तर्क लसे ॥
हाँ आदानोज्झन विहीन होकर निरीह जिन बोध रहे।
सहजभावसे मणिके प्रकाशकी ज्यों वस्तु विशोध लहे ॥ १६ ॥
गाथा -29,30,31,32
सारांश:–ज्ञान जब पदार्थोंको जानता है तब वह उन्हें उनके रूपमें ही जानता है, यहाँ ज्ञानका पदार्थाकार होना है। ऐसा नहीं है कि वह उन्हें ग्रहण करता हो और छोड़ता हो या उनरूप स्वयं भी बन जाता हो। जैसे दर्पण के सम्मुख जब पदार्थ आते हैं तब उनका प्रतिबिम्ब उस दर्पणमें पड़ता है फिर भी दर्पण उनरूप नहीं होता है। यदि ऐसा न माना जावे तो बर्फके प्रतिबिम्बसे काच ठंडा और अनिके प्रतिबिम्बसे गर्म हो जाना चाहिए परन्तु ऐसा कभी होता नहीं है किन्तु प्रतिविम्बके रूपमें वे सभी पदार्थ दर्पणके अन्दर आया जाता करते हैं, यही ज्ञानकी दशा है।
दूसरा उदाहरण
नील मणिको यदि दूधके बरतन में डाल दिया जावे तो उस नीलमणिकी कान्तिसे सारा दूध नीला दीखने लगता है। नीलमणि अपने रूपमें अपने स्थान पर ही रहता है और दूध बरतनमें रहता है तो भी उस नीलमणिकी नीली कान्ति सारे दूधको नीला बना देती है। इसीप्रकार ज्ञान भी हर पदार्थको ज्ञेयके रूपमें आक्रान्त करके रहता है। जितना ज्ञान है वह सबका सब आत्मा ही है। सर्वज्ञ भगवान्को सम्पूर्ण पदार्थोंका साक्षात् परिपूर्ण ज्ञान होता है अतः उनकी आत्मा भी पूर्ण और उनके साक्षात् है इसीलिये वे केवली कहलाते हैं। उन्ही कि आदेश और उपदेशानुसार अपने विचारको जो स्थिर कर लेता है वह भी बहिरात्मपन ( मिथ्याज्ञान) को छोड़कर ज्ञानवान् अर्थात् अन्तरात्मा बन जाता है। एवं सब बाह्य बातोंका परित्याग करके जो केवल अपनी शुद्धात्मा के ही विचारमें निमग्न रहता है वह श्रुतकेवली कहलाता है।
गाथा -29,30
ज्ञान काचको ज्यों निर्मलतासे सब जग को गहता है ।
ज्ञेयोंमें न समा करके भी तदाकार हो रहता है |
दुग्धभाण्डमें नीलमको यदि डाल दिया वह निज भा से ।
सभी दूधको नीला करदे त्यों जगको ज्ञान प्रकासे ॥ १५ ॥
गाथा -31,32
यदि कहो कि न तदाकारतया भी बोधमें वस्तु वसे ।
तो फिर कैसा उस पदार्थका ज्ञान हुआ यह तर्क लसे ॥
हाँ आदानोज्झन विहीन होकर निरीह जिन बोध रहे।
सहजभावसे मणिके प्रकाशकी ज्यों वस्तु विशोध लहे ॥ १६ ॥
गाथा -29,30,31,32
सारांश:–ज्ञान जब पदार्थोंको जानता है तब वह उन्हें उनके रूपमें ही जानता है, यहाँ ज्ञानका पदार्थाकार होना है। ऐसा नहीं है कि वह उन्हें ग्रहण करता हो और छोड़ता हो या उनरूप स्वयं भी बन जाता हो। जैसे दर्पण के सम्मुख जब पदार्थ आते हैं तब उनका प्रतिबिम्ब उस दर्पणमें पड़ता है फिर भी दर्पण उनरूप नहीं होता है। यदि ऐसा न माना जावे तो बर्फके प्रतिबिम्बसे काच ठंडा और अनिके प्रतिबिम्बसे गर्म हो जाना चाहिए परन्तु ऐसा कभी होता नहीं है किन्तु प्रतिविम्बके रूपमें वे सभी पदार्थ दर्पणके अन्दर आया जाता करते हैं, यही ज्ञानकी दशा है।
दूसरा उदाहरण
नील मणिको यदि दूधके बरतन में डाल दिया जावे तो उस नीलमणिकी कान्तिसे सारा दूध नीला दीखने लगता है। नीलमणि अपने रूपमें अपने स्थान पर ही रहता है और दूध बरतनमें रहता है तो भी उस नीलमणिकी नीली कान्ति सारे दूधको नीला बना देती है। इसीप्रकार ज्ञान भी हर पदार्थको ज्ञेयके रूपमें आक्रान्त करके रहता है। जितना ज्ञान है वह सबका सब आत्मा ही है। सर्वज्ञ भगवान्को सम्पूर्ण पदार्थोंका साक्षात् परिपूर्ण ज्ञान होता है अतः उनकी आत्मा भी पूर्ण और उनके साक्षात् है इसीलिये वे केवली कहलाते हैं। उन्ही कि आदेश और उपदेशानुसार अपने विचारको जो स्थिर कर लेता है वह भी बहिरात्मपन ( मिथ्याज्ञान) को छोड़कर ज्ञानवान् अर्थात् अन्तरात्मा बन जाता है। एवं सब बाह्य बातोंका परित्याग करके जो केवल अपनी शुद्धात्मा के ही विचारमें निमग्न रहता है वह श्रुतकेवली कहलाता है।