08-15-2022, 08:00 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -33,34
श्रुतज्ञानको पाकरके स्वज्ञायकपनपर चित्त दिया ।
श्रुतकेवली नाम उसने हो ऋषि लोगो से प्राप्त किया ॥
जिनवरजीके दिव्य वचनका नाम सूत्र या श्रुत होता
जिसे श्रवण कर भव्यजीव यह बोधोदधिमें ले गोता ॥ १७
गाथा -35,36
ज्ञान भिन्न है नहीं जीवसे इसीलिये जो जाने सो
ज्ञान और सब ज्ञेय ज्ञानगत होते हैं स्वभाव ऐसो
ज्ञान जीव ही ज्ञेय जीव भी और द्रव्य भी होता है।
जो कि सदा परिणमनरूपसे त्रिविधभावको ढोता है १८
गाथा -33,34
सारांशः – यहाँ पर आचार्यश्रीने श्रुतज्ञान किसे कहते हैं? वह किस तरहसे होता है और उस श्रुतज्ञानका धारक जीव भी श्रुतकेवली कब होता है? ये तीनों बातें बताई है। सामान्य रूपसे सुनी हुई बात को श्रुत कहते हैं और उसके वाच्यार्थके जाननेको श्रुतज्ञान कहा जाता है। हमारे सुननेमें दो तरहकी बात आती है। एक तो अल्पज्ञकी अपनी तरफ से कही हुई बात जो उत्सूत्र कहलाती है। इससे हमको वस्तुस्वरूपका यथार्थ ज्ञान नहीं होता है अतः इसके निमित्तसे हम सबको जो ज्ञान होता है वह कुश्रुतज्ञान होता है। किन्तु श्री वीतराग सर्वज्ञ अरहन्त देवके वचन या उन्होंके शिष्य प्रशिष्य श्री गणधरादिके वचनों को सूत्र कहते हैं। जिससे हमको वस्तु तत्त्वका निर्देश प्राप्त होता है। उनके ज्ञानको श्रुतज्ञान कहा जाता है। हमारे उस ज्ञानमें जिनवचन अनिवार्य निमित्त होते हैं। अतः कारणमें कार्यका उपचार करके जिनवचनको श्रुतज्ञान कहा जावे तो भी कोई हानि नहीं है।
गाथा -35,36
सारांश:- व्याकरणके अनुसार 'जानातीति ज्ञानं' जो जानता है वह ज्ञान होता है इस प्रकार कर्तृ साधनसे तो ज्ञान आत्माका ही नाम ठहरता है क्योंकि जाननेवाला आत्मा ही 'ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं' जिसके द्वारा जाना जाता है वह ज्ञान होता है। इस तरह से करण साधन करने पर आत्मा और ज्ञान भिन्न भिन्न ठहरते हैं। आत्मा तो जाननेवाला है और ज्ञान जाननेका साधन है। फिर भी यहाँ पर ऐसा भेद नहीं है जैसा कि कुठारके द्वारा लकड़ीको काटने वाले बढ़ई में पाया जाता है। बढ़ई और कुठार दोनों भिन्न भिन्न है।
ज्ञान आत्माका धर्म है और आत्मा उसका धर्मी है। जैसे कि अग्नि अपनी उष्णता से भिन्न न होकर उसीका गुण है या धर्म व परिणमन है। केवल इनमें परस्पर परिणाम, परिणामी भाव बतानेके लिए इन्हें भिन्न भिन्न कहा जाता है। वास्तवमें प्रदेशत्वेन इनमें भिन्नत्व नहीं है। यदि ज्ञप्तिक्रियाके प्रति आत्मा कर्त्ता और ज्ञान उसका करण होने मात्र उन्हें भिन्न ही कहा जाये (जैसी कि कुछ लोगों की मान्यता है) तो फिर ज्ञानको लेकर आत्मा ज्ञानवान् ही बन सकता है। ज्ञ एवं ज्ञाता नहीं कहा जा सकता है परन्तु आत्मा ज्ञाता है। ज्ञानसे अभिन्न है, ज्ञानमय है। सब पदार्थ इसके ज्ञेय हैं। जानने योग्य हैं। आत्मा ज्ञान रूप भी है और ज्ञेयरूप भी है क्योंकि वह जिस प्रकार इतर पदार्थों को जानता है उसी प्रकार अपने आपको भी जानता है। जो अपने आपको नहीं जानता है वह दूसरे को भी नहीं जान सकता है और न देख ही सकता है।
शङ्काः – हमारी आंखें अपने आपको तो नहीं देखतीं परन्तु दूसरों को देखा करती हैं, यह कैसे ?
उत्तर: – आँखें जैसे अपने आपको नहीं देखती हैं वैसे ही वे दूसरों को भी कभी नहीं देखती हैं किन्तु आंखों के द्वारा हम देखते हैं। हमारी आंखें तो हमारे लिए खिड़की की तरह हैं। ज्ञान हमारा स्वभाव है। यह हर एक पदार्थ के अस्तित्व को बतलाने वाला है, यही हमको यह बताता है कि यह अमुक चीज है। ज्ञान अपने आपको नहीं जानता जब ऐसा कहा जाता है तब इसका मतलब यह हुआ कि ज्ञान है ही नहीं।
शङ्काः - अपने आपको न जानने वाले ज्ञान का अभाव क्यों कहा गया है क्योंकि अपने आपको न जानकर भी उसको दूसरा ज्ञान या दूसरे का ज्ञान जान सकता है।
उत्तर: – दूसरा भी तो अपने आपको नहीं जानने वाला ही है, फिर उससे क्या स्वार्थ सिद्ध हो सकता है? स्वयं गिरता हुआ मनुष्य किसी दूसरे को स्थिर रख सके यह कैसे माना जा सकता है? अतः अनवस्था दोष से बचने के लिए ज्ञान को स्वप्रकाशक भी मानना ही पड़ता है। ज्ञान हर पदार्थ की एवं अपने आपकी भी सत्ता को प्रकाशित करने वाला है, जो सत्ता उत्पत्ति, विनाश और स्थिति इन तीनों रूपों को लिए हुए होती है एवं हर पदार्थ को सत्ता अपनी भूत और भविष्यत पर्यायों के साथ में वर्त्तमान को सम्बद्ध रखते हुए एक श्रृंखला के समान हैं। एवं सम्पूर्ण पदार्थों की अविकल सत्ता केवली के ज्ञान का स्पष्ट विषय होती है, यही बताते हैं
गाथा -33,34
श्रुतज्ञानको पाकरके स्वज्ञायकपनपर चित्त दिया ।
श्रुतकेवली नाम उसने हो ऋषि लोगो से प्राप्त किया ॥
जिनवरजीके दिव्य वचनका नाम सूत्र या श्रुत होता
जिसे श्रवण कर भव्यजीव यह बोधोदधिमें ले गोता ॥ १७
गाथा -35,36
ज्ञान भिन्न है नहीं जीवसे इसीलिये जो जाने सो
ज्ञान और सब ज्ञेय ज्ञानगत होते हैं स्वभाव ऐसो
ज्ञान जीव ही ज्ञेय जीव भी और द्रव्य भी होता है।
जो कि सदा परिणमनरूपसे त्रिविधभावको ढोता है १८
गाथा -33,34
सारांशः – यहाँ पर आचार्यश्रीने श्रुतज्ञान किसे कहते हैं? वह किस तरहसे होता है और उस श्रुतज्ञानका धारक जीव भी श्रुतकेवली कब होता है? ये तीनों बातें बताई है। सामान्य रूपसे सुनी हुई बात को श्रुत कहते हैं और उसके वाच्यार्थके जाननेको श्रुतज्ञान कहा जाता है। हमारे सुननेमें दो तरहकी बात आती है। एक तो अल्पज्ञकी अपनी तरफ से कही हुई बात जो उत्सूत्र कहलाती है। इससे हमको वस्तुस्वरूपका यथार्थ ज्ञान नहीं होता है अतः इसके निमित्तसे हम सबको जो ज्ञान होता है वह कुश्रुतज्ञान होता है। किन्तु श्री वीतराग सर्वज्ञ अरहन्त देवके वचन या उन्होंके शिष्य प्रशिष्य श्री गणधरादिके वचनों को सूत्र कहते हैं। जिससे हमको वस्तु तत्त्वका निर्देश प्राप्त होता है। उनके ज्ञानको श्रुतज्ञान कहा जाता है। हमारे उस ज्ञानमें जिनवचन अनिवार्य निमित्त होते हैं। अतः कारणमें कार्यका उपचार करके जिनवचनको श्रुतज्ञान कहा जावे तो भी कोई हानि नहीं है।
गाथा -35,36
सारांश:- व्याकरणके अनुसार 'जानातीति ज्ञानं' जो जानता है वह ज्ञान होता है इस प्रकार कर्तृ साधनसे तो ज्ञान आत्माका ही नाम ठहरता है क्योंकि जाननेवाला आत्मा ही 'ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं' जिसके द्वारा जाना जाता है वह ज्ञान होता है। इस तरह से करण साधन करने पर आत्मा और ज्ञान भिन्न भिन्न ठहरते हैं। आत्मा तो जाननेवाला है और ज्ञान जाननेका साधन है। फिर भी यहाँ पर ऐसा भेद नहीं है जैसा कि कुठारके द्वारा लकड़ीको काटने वाले बढ़ई में पाया जाता है। बढ़ई और कुठार दोनों भिन्न भिन्न है।
ज्ञान आत्माका धर्म है और आत्मा उसका धर्मी है। जैसे कि अग्नि अपनी उष्णता से भिन्न न होकर उसीका गुण है या धर्म व परिणमन है। केवल इनमें परस्पर परिणाम, परिणामी भाव बतानेके लिए इन्हें भिन्न भिन्न कहा जाता है। वास्तवमें प्रदेशत्वेन इनमें भिन्नत्व नहीं है। यदि ज्ञप्तिक्रियाके प्रति आत्मा कर्त्ता और ज्ञान उसका करण होने मात्र उन्हें भिन्न ही कहा जाये (जैसी कि कुछ लोगों की मान्यता है) तो फिर ज्ञानको लेकर आत्मा ज्ञानवान् ही बन सकता है। ज्ञ एवं ज्ञाता नहीं कहा जा सकता है परन्तु आत्मा ज्ञाता है। ज्ञानसे अभिन्न है, ज्ञानमय है। सब पदार्थ इसके ज्ञेय हैं। जानने योग्य हैं। आत्मा ज्ञान रूप भी है और ज्ञेयरूप भी है क्योंकि वह जिस प्रकार इतर पदार्थों को जानता है उसी प्रकार अपने आपको भी जानता है। जो अपने आपको नहीं जानता है वह दूसरे को भी नहीं जान सकता है और न देख ही सकता है।
शङ्काः – हमारी आंखें अपने आपको तो नहीं देखतीं परन्तु दूसरों को देखा करती हैं, यह कैसे ?
उत्तर: – आँखें जैसे अपने आपको नहीं देखती हैं वैसे ही वे दूसरों को भी कभी नहीं देखती हैं किन्तु आंखों के द्वारा हम देखते हैं। हमारी आंखें तो हमारे लिए खिड़की की तरह हैं। ज्ञान हमारा स्वभाव है। यह हर एक पदार्थ के अस्तित्व को बतलाने वाला है, यही हमको यह बताता है कि यह अमुक चीज है। ज्ञान अपने आपको नहीं जानता जब ऐसा कहा जाता है तब इसका मतलब यह हुआ कि ज्ञान है ही नहीं।
शङ्काः - अपने आपको न जानने वाले ज्ञान का अभाव क्यों कहा गया है क्योंकि अपने आपको न जानकर भी उसको दूसरा ज्ञान या दूसरे का ज्ञान जान सकता है।
उत्तर: – दूसरा भी तो अपने आपको नहीं जानने वाला ही है, फिर उससे क्या स्वार्थ सिद्ध हो सकता है? स्वयं गिरता हुआ मनुष्य किसी दूसरे को स्थिर रख सके यह कैसे माना जा सकता है? अतः अनवस्था दोष से बचने के लिए ज्ञान को स्वप्रकाशक भी मानना ही पड़ता है। ज्ञान हर पदार्थ की एवं अपने आपकी भी सत्ता को प्रकाशित करने वाला है, जो सत्ता उत्पत्ति, विनाश और स्थिति इन तीनों रूपों को लिए हुए होती है एवं हर पदार्थ को सत्ता अपनी भूत और भविष्यत पर्यायों के साथ में वर्त्तमान को सम्बद्ध रखते हुए एक श्रृंखला के समान हैं। एवं सम्पूर्ण पदार्थों की अविकल सत्ता केवली के ज्ञान का स्पष्ट विषय होती है, यही बताते हैं