प्रवचनसारः गाथा -36 ज्ञान का स्वभाव
#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -35,36
ज्ञान भिन्न है नहीं जीवसे इसीलिये जो जाने सो
ज्ञान और सब ज्ञेय ज्ञानगत होते हैं स्वभाव ऐसो
ज्ञान जीव ही ज्ञेय जीव भी और द्रव्य भी होता है।
जो कि सदा परिणमनरूपसे त्रिविधभावको ढोता है |18|


गाथा -35,36
सारांश:- व्याकरणके अनुसार 'जानातीति ज्ञानं' जो जानता है वह ज्ञान होता है इस प्रकार कर्तृ साधनसे तो ज्ञान आत्माका ही नाम ठहरता है क्योंकि जाननेवाला आत्मा ही 'ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं' जिसके द्वारा जाना जाता है वह ज्ञान होता है। इस तरह से करण साधन करने पर आत्मा और ज्ञान भिन्न भिन्न ठहरते हैं। आत्मा तो जाननेवाला है और ज्ञान जाननेका साधन है। फिर भी यहाँ पर ऐसा भेद नहीं है जैसा कि कुठारके द्वारा लकड़ीको काटने वाले बढ़ई में पाया जाता है। बढ़ई और कुठार दोनों भिन्न भिन्न है।

ज्ञान आत्माका धर्म है और आत्मा उसका धर्मी है। जैसे कि अग्नि अपनी उष्णता से भिन्न न होकर उसीका गुण है या धर्म व परिणमन है। केवल इनमें परस्पर परिणाम, परिणामी भाव बतानेके लिए इन्हें भिन्न भिन्न कहा जाता है। वास्तवमें प्रदेशत्वेन इनमें भिन्नत्व नहीं है। यदि ज्ञप्तिक्रियाके प्रति आत्मा कर्त्ता और ज्ञान उसका करण होने मात्र उन्हें भिन्न  ही कहा जाये (जैसी कि कुछ लोगों की मान्यता है) तो फिर ज्ञानको लेकर आत्मा ज्ञानवान् ही बन सकता है। ज्ञ एवं ज्ञाता नहीं कहा जा सकता है परन्तु आत्मा ज्ञाता है। ज्ञानसे अभिन्न है, ज्ञानमय है। सब पदार्थ इसके ज्ञेय हैं। जानने योग्य हैं। आत्मा ज्ञान रूप भी है और ज्ञेयरूप भी है क्योंकि वह जिस प्रकार इतर पदार्थों को जानता है उसी प्रकार अपने आपको भी जानता है। जो अपने आपको नहीं जानता है वह दूसरे को भी नहीं जान सकता है और न देख ही सकता है।
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प्रवचनसारः गाथा -36 ज्ञान का स्वभाव - by Manish Jain - 08-04-2022, 08:16 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा -37 - by sandeep jain - 08-04-2022, 08:19 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा -36 ज्ञान का स्वभाव - by sumit patni - 08-15-2022, 08:17 AM

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