08-15-2022, 08:33 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -37,38
तात्कालिक पर्याय की तरह भूत भावि पर्याय भी
झलका करती है सुबोध द्रव्यों की सारी के भी
जो न अभी हो पाई हो या होकर नष्ट हो चुकी हों।
असद्भूत वे पर्यायें भी गोचर स्फुट ज्ञानकी हों ॥ 19॥
गाथा -37,38,39,40
सारांश:- मान लो एक घास की टाल लगी हुई थी। उसमें बिजली का करेण्ट लगकर आग हो गई। अब देखने वाला देखता है कि वह कुछ देर पहिले यहाँ घास थी, अब आग बन गई और थोड़ी देर में वह भस्म हो जायेगी। इस प्रकार सर्व साधारण जब भूत भविष्यत और वर्तमान पदार्थ को पर्यायों को जानता है तब केवली का तो कहना ही क्या?
शङ्काः -पदार्थ की वर्तमान दशा की तरह अतीत अनागत अवस्था का ज्ञान होता है इस बात का कौन निषेध करता है किन्तु वर्तमान का तो प्रत्यक्ष और भूत भविष्यत पर्याय का स्मरण वगैरह हो सकता है जैसा कि ऊपर वाले उदाहरण से भी स्पष्ट है। प्रश्न तो केवल इतना ही है कि जो अभी है ही नहीं, उसका भी प्रत्यक्ष हो जावे, यह कैसे हो सकता है?
उत्तरः- प्रत्यक्ष ज्ञान कई प्रकार का होता है। इन्द्रियों के द्वारा पदार्थ का सत्रिकर्ष होकर जो ज्ञान होता है उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं जैसे कि हम जीभ से चखकर आम के खट्टेमीठेपन को जान जाते हैं यह ज्ञान तो वर्तमान वस्तु का ही होता है, सो सही बात है। दूसरा मानसिक प्रत्यक्ष होता है। जब किसी मनुष्य का मन किसी चीज पर दृढता से लगा हुआ होता है तब वह वस्तु दूर रह करके भी उसके सम्मुख नाचती हुई सी प्रतीत होती है, इसको स्वसंवेदन ज्ञान भी कहते हैं।
तीसरा ज्ञान योगी प्रत्यक्ष होता है जो योगियों को अपने योग बल के द्वारा लोगों के जन्म जन्मान्तर की और सुदूर देशान्तर की बात को भी स्पष्ट रूप से दिखलाया करता है। स्थूल से स्थूल और निकट से निकट रहने वाली चीज को तेज से तेज आँखों वाला मनुष्य भी इतना स्पष्ट नहीं देख सकता है जितना स्पष्ट एक महर्षि अपने अनिन्द्रिय ज्ञान के द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म और दूर से दूर रहने वाली चीज को भी देख लेता है।
यह ज्ञान इन्द्रियादि बाह्य कारणों की अपेक्षा न रखकर पूर्णरूप से आत्माधीन होता है, इसलिये वास्तविक प्रत्यक्ष यही होता है क्योंकि अक्ष नाम भी आत्मा का है, ऐसा संस्कृत के कोशकारोंने बताया है। एवं अक्ष अर्थात् आत्मा के प्रति नियत होता है वह प्रत्यक्ष है ऐसा अर्थ ठीक हो जाता है। इसी को पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी कहते हैं क्योंकि यह ज्ञान परमार्थ के ज्ञाता ऋषियों के ही होता है।
यदि अक्ष शब्द का अर्थ इन्द्रिय माना जावे तो फिर यह उपर्युक्त ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं ठहरता है क्योंकि यह ज्ञान इन्द्रियों से नहीं होता है। इन्द्रियाधीन परतंत्र ज्ञान को प्रत्यक्ष कहना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता है क्योंकि ज्ञान आत्मा का गुण है। अतः आत्म तंत्र ज्ञान ही उसके अधिक सन्निकट एवं सहज तथा सरल होता है। वह ज्ञान चराचर सब जीवों को स्पष्ट जानता है, यही बताते हैं
गाथा -37,38
तात्कालिक पर्याय की तरह भूत भावि पर्याय भी
झलका करती है सुबोध द्रव्यों की सारी के भी
जो न अभी हो पाई हो या होकर नष्ट हो चुकी हों।
असद्भूत वे पर्यायें भी गोचर स्फुट ज्ञानकी हों ॥ 19॥
गाथा -37,38,39,40
सारांश:- मान लो एक घास की टाल लगी हुई थी। उसमें बिजली का करेण्ट लगकर आग हो गई। अब देखने वाला देखता है कि वह कुछ देर पहिले यहाँ घास थी, अब आग बन गई और थोड़ी देर में वह भस्म हो जायेगी। इस प्रकार सर्व साधारण जब भूत भविष्यत और वर्तमान पदार्थ को पर्यायों को जानता है तब केवली का तो कहना ही क्या?
शङ्काः -पदार्थ की वर्तमान दशा की तरह अतीत अनागत अवस्था का ज्ञान होता है इस बात का कौन निषेध करता है किन्तु वर्तमान का तो प्रत्यक्ष और भूत भविष्यत पर्याय का स्मरण वगैरह हो सकता है जैसा कि ऊपर वाले उदाहरण से भी स्पष्ट है। प्रश्न तो केवल इतना ही है कि जो अभी है ही नहीं, उसका भी प्रत्यक्ष हो जावे, यह कैसे हो सकता है?
उत्तरः- प्रत्यक्ष ज्ञान कई प्रकार का होता है। इन्द्रियों के द्वारा पदार्थ का सत्रिकर्ष होकर जो ज्ञान होता है उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं जैसे कि हम जीभ से चखकर आम के खट्टेमीठेपन को जान जाते हैं यह ज्ञान तो वर्तमान वस्तु का ही होता है, सो सही बात है। दूसरा मानसिक प्रत्यक्ष होता है। जब किसी मनुष्य का मन किसी चीज पर दृढता से लगा हुआ होता है तब वह वस्तु दूर रह करके भी उसके सम्मुख नाचती हुई सी प्रतीत होती है, इसको स्वसंवेदन ज्ञान भी कहते हैं।
तीसरा ज्ञान योगी प्रत्यक्ष होता है जो योगियों को अपने योग बल के द्वारा लोगों के जन्म जन्मान्तर की और सुदूर देशान्तर की बात को भी स्पष्ट रूप से दिखलाया करता है। स्थूल से स्थूल और निकट से निकट रहने वाली चीज को तेज से तेज आँखों वाला मनुष्य भी इतना स्पष्ट नहीं देख सकता है जितना स्पष्ट एक महर्षि अपने अनिन्द्रिय ज्ञान के द्वारा सूक्ष्म से सूक्ष्म और दूर से दूर रहने वाली चीज को भी देख लेता है।
यह ज्ञान इन्द्रियादि बाह्य कारणों की अपेक्षा न रखकर पूर्णरूप से आत्माधीन होता है, इसलिये वास्तविक प्रत्यक्ष यही होता है क्योंकि अक्ष नाम भी आत्मा का है, ऐसा संस्कृत के कोशकारोंने बताया है। एवं अक्ष अर्थात् आत्मा के प्रति नियत होता है वह प्रत्यक्ष है ऐसा अर्थ ठीक हो जाता है। इसी को पारमार्थिक प्रत्यक्ष भी कहते हैं क्योंकि यह ज्ञान परमार्थ के ज्ञाता ऋषियों के ही होता है।
यदि अक्ष शब्द का अर्थ इन्द्रिय माना जावे तो फिर यह उपर्युक्त ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं ठहरता है क्योंकि यह ज्ञान इन्द्रियों से नहीं होता है। इन्द्रियाधीन परतंत्र ज्ञान को प्रत्यक्ष कहना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता है क्योंकि ज्ञान आत्मा का गुण है। अतः आत्म तंत्र ज्ञान ही उसके अधिक सन्निकट एवं सहज तथा सरल होता है। वह ज्ञान चराचर सब जीवों को स्पष्ट जानता है, यही बताते हैं