प्रवचनसारः गाथा - 41, 42 अतीन्द्रिय ज्ञान की विशेषताएँ
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आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश


गाथा -41,42

मूर्त अमूर्त स्थूल सूक्ष्म हो चुका और होने वाला ।
हाल अतीन्द्रिय बोधगम्य हो क्या जाने इन्द्रिय वाला ||
इष्टानिष्ट विकल्पयुक्त जो ज्ञान वस्तुको लखता है
अक्षायिक वह ज्ञान जीवका स्वयं कर्मफल चखता है २१


गाथा -41,42
सारांश: – पदार्थों का परिणमन दो प्रकार का होता है। एक प्रदेशत्व गुण के विकार रूप स्थूल परिणमन और दूसरा अप्रदेशात्मक सूक्ष्म परिणमन। दूसरी तरह से एक मूर्त रूप, रस गंधादिमय । दूसरा अमूर्त रूपादि से रहित किञ्च एक वर्तमान और दूसरा, अवर्तमान (हो चुका या होनेवाला) । वर्तमान मूर्त पदार्थोंके स्थूल परिणमन को इन्द्रिय ज्ञान यथासंभव जान सकता है। यह बात ठीक है परन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान तो स्थूल और सूक्ष्म, मूर्त और अमूर्त, वर्तमान तथा भूत और भावी सभी प्रकार के परिणमनको जानता है। अतीन्द्रय ज्ञान आत्मा के कर्मोंका नाश करने वाला होता है किन्तु इन्द्रियाधीन ज्ञान, हर पदार्थ के पीछे लग कर, उसमें भला बुरापन मानने के कारण कर्मों को जीतनेमें असमर्थ ही रहता है और अपने किये हुए कर्मो के फल को भोगता रहता है।

शङ्काः अवधिज्ञान और मन:पर्यय नाम के अतीन्द्रिय ज्ञान से भी तो बन्ध होता है। केवल इन्द्रिय ज्ञानसे ही बंध क्यों कहा गया, यह समझ में नहीं आया?

उत्तर:- वस्तुतः इन्द्रियजन्य ज्ञान और अतीन्द्रिय ज्ञान इसप्रकारसे दो ज्ञान भिन्न भिन्न नहीं हैं। ज्ञान तो पहिले बताया जा चुका है कि वह आत्मा का गुण है, वह एक ही है, उसका काम जानना है परन्तु जैसे लज्जाशील नवविवाहिता कुलवधू अपने घूंघट की ओट में देखा करती है। वह अपने पीहरवालों को देखकर प्रसन्न हो जाती है और ससुराल वालों को देखकर संकुचित हो जाती है तथा पराधीनता में जकड़ी हुई रहती है। इसी प्रकार यह संसारी आत्मा भी अपने मोहनीय कर्म के कारण, सेन्द्रियता के परदे में होकर देखता जानता है। यह अपने अभीष्ट को देखकर प्रसन्न और अनिष्ट को देखकर दुखी हो जाता है एवं कर्मबंध करता रहता है। कर्मबंध का कारण देखना और जानना नहीं है किन्तु पदार्थको भला या बुरा मानकर उससे रागद्वेष करना है।

यह मखमली गद्दा बहुत कोमल है, सुहावना है, यह कङ्करीली जमीन कठोर है, चुभती है, दुख देती है। हलवा मीठा और सुस्वादु है किन्तु यह नीमका पत्ता कड़वा है, खाया नहीं जाता। गुलाब के फूलकी सुंगध बहुत अच्छी है परन्तु मिट्टी के तेल की दुर्गंध से नाक फटा जा रहा है। चन्द्रमा तो देखने में अच्छा लगता है परन्तु भूत को देखकर तो डर लगता है। कोयल की बोली बड़ी प्यारी है और कौए का शब्द बड़ा बुरा लगता है। इस प्रकार से इन्द्रियों के विषयोंको ग्रहणकर जानते हुए रागद्वेषरूप प्रवृत्त होता है।
अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान के द्वारा जानते हुए भी पदार्थ के प्रति जो भले बुरेपन को कल्पना उठती है, वह सब इन्द्रियाधीनता को लेकर ही चलती है। वास्तव में तो कोई भी पदार्थ न तो भला ही है और न बुरा ही है। हर एक पदार्थ अपने अपने द्रव्य क्षेत्र काल और भाव के अनुसार परिणमन करता है। ज्ञान उसे जानता है। इसलिये आगमकारों ने इन्हें विकलातीन्द्रिय और देशप्रत्यक्षके रूप में स्वीकार किया है।

मतिज्ञान और श्रुतज्ञान भी जब इष्टानिष्ट कल्पना से रहित होकर, इतर पदार्थों से दूर रह कर, केवल आत्म तल्लीन हो जाते हैं उस समय वे भी प्रत्यक्ष कहे जाते हैं। 'क्षयः प्रयोजनं यस्य तत् क्षायिकं' इस निरुति के अनुसार ज्ञानावरणादिक कर्मो के नाश के कारण हो जाते हैं। मतलब यही है कि न तो ज्ञान ही बंध का कारण है और न आत्मा की चेष्टा ही बंध का कारण है। बंध का कारण तो आत्मा का राग द्वेष है,
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प्रवचनसारः गाथा - 41, 42 अतीन्द्रिय ज्ञान की विशेषताएँ - by Manish Jain - 08-08-2022, 09:49 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा - 42, 43 - by sandeep jain - 08-08-2022, 09:52 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा - 41, 42 अतीन्द्रिय ज्ञान की विशेषताएँ - by sumit patni - 08-15-2022, 10:19 AM

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