08-15-2022, 12:17 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -47,48
वर्तमान की तरह भाविभूतोंको जो युगपत जाने
वह ही क्षायिकज्ञान सदा मूर्तामूर्तो को पहिचाने ॥
तीन लोक या तीन काल को चीजों को नहिं जान सके ।
एक चीज को भी पूरी अनुभव करने में क्यों न थके ॥ २४ ॥
गाथा -47,48
सारांश:- निरावरण क्षायिक ज्ञान तीनों लोकों में पाये जाने वाले सब पदार्थों की भूत भविष्यत वर्तमान कालकी सम्पूर्ण अवस्थाओं को एक साथ जानने वाला होता है क्योंकि ज्ञान का स्वभाव जानने का है। क्षायिक ज्ञान में किसी भी प्रकार की रुकावट शेष नहीं रहती है। वह एक देश, कालगत किसी एक पदार्थ की एक अवस्था को जानता है इसी प्रकार सर्व देश काल गत सम्पूर्ण पदार्थों की सभी पर्यायों को जान सकता है। इसमें कौनसी बाधा है?
जैसे पानी का स्वभाव, अपने भीतर पत्थर को डुबा लेने का है। वह समुद्र का पानी किसी एक पत्थर को अपने भीतर डुबा लेवे किन्तु दूसरे को न डूबा सके ऐसा नहीं हो सकता है। उसमें तो जितने भी पत्थर गिरेंगे सब तत्काल डूब ही जायेंगे। इसी प्रकार सर्वज्ञ के ज्ञान का विषय है। जितने भी ज्ञेय हैं वे सब उसमें झलकते हैं।
हमारे आध्यात्मिक सन्तों ने एक शब्द का अर्थ भी आत्मा ही स्वीकार किया है। महर्षि कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जो एक अर्थात् अपनी आत्मा को अच्छी तरह जानता है वह संसार के सभी पदार्थों को जानने वाला होता है। जो सबको जानने वाला नहीं होता, वह अपने आपको भी पूर्णरूपसे नहीं जान सकता है क्योंकि आत्मा ज्ञान रूप है। ज्ञान ज्ञेय परिमित है जैसा कि पहिले बता आये हैं। सम्पूर्ण ज्ञेयों को जानना ही ज्ञान को पर्याप्तता है। ज्ञान की पर्याप्तता का होना, आत्मा की अविकल दशा है। जो सबको एक साथ पूर्णरूप से जाने वही सर्वज्ञ होता है,
गाथा -47,48
वर्तमान की तरह भाविभूतोंको जो युगपत जाने
वह ही क्षायिकज्ञान सदा मूर्तामूर्तो को पहिचाने ॥
तीन लोक या तीन काल को चीजों को नहिं जान सके ।
एक चीज को भी पूरी अनुभव करने में क्यों न थके ॥ २४ ॥
गाथा -47,48
सारांश:- निरावरण क्षायिक ज्ञान तीनों लोकों में पाये जाने वाले सब पदार्थों की भूत भविष्यत वर्तमान कालकी सम्पूर्ण अवस्थाओं को एक साथ जानने वाला होता है क्योंकि ज्ञान का स्वभाव जानने का है। क्षायिक ज्ञान में किसी भी प्रकार की रुकावट शेष नहीं रहती है। वह एक देश, कालगत किसी एक पदार्थ की एक अवस्था को जानता है इसी प्रकार सर्व देश काल गत सम्पूर्ण पदार्थों की सभी पर्यायों को जान सकता है। इसमें कौनसी बाधा है?
जैसे पानी का स्वभाव, अपने भीतर पत्थर को डुबा लेने का है। वह समुद्र का पानी किसी एक पत्थर को अपने भीतर डुबा लेवे किन्तु दूसरे को न डूबा सके ऐसा नहीं हो सकता है। उसमें तो जितने भी पत्थर गिरेंगे सब तत्काल डूब ही जायेंगे। इसी प्रकार सर्वज्ञ के ज्ञान का विषय है। जितने भी ज्ञेय हैं वे सब उसमें झलकते हैं।
हमारे आध्यात्मिक सन्तों ने एक शब्द का अर्थ भी आत्मा ही स्वीकार किया है। महर्षि कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जो एक अर्थात् अपनी आत्मा को अच्छी तरह जानता है वह संसार के सभी पदार्थों को जानने वाला होता है। जो सबको जानने वाला नहीं होता, वह अपने आपको भी पूर्णरूपसे नहीं जान सकता है क्योंकि आत्मा ज्ञान रूप है। ज्ञान ज्ञेय परिमित है जैसा कि पहिले बता आये हैं। सम्पूर्ण ज्ञेयों को जानना ही ज्ञान को पर्याप्तता है। ज्ञान की पर्याप्तता का होना, आत्मा की अविकल दशा है। जो सबको एक साथ पूर्णरूप से जाने वही सर्वज्ञ होता है,