प्रवचनसारः गाथा -53 ज्ञान और सुख की महिमा
#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -53,54

इन्द्रियजन्य बोध सुख मूर्तिक हो इससे और तरह भी ।
हेय यही आदेय दूसरा यों कहते आचार्य सभी
सूक्ष्मान्तरित दूर चीजों को सबको सदा जानता है।
यह ही है प्रत्यक्ष वहाँ आत्माधीन प्रमाणता है २७ ॥


गाथा -51,52,53,54

सारांश:- इन्द्रियजन्य और इन्द्रियातीत के भेदसे ज्ञान जैसे दो प्रकारका होता है वैसे ही सुख भी दो प्रकारका होता है क्योंकि सुखका ज्ञानके साथमें अविनाभाव सम्बन्ध है। जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ सुख होता है और जहाँ ज्ञान नहीं होता है वहाँ सुख भी नहीं होता है।

शङ्काः- -ज्ञानके साथमें सुख ही क्यों? दुःख भी तो हुआ करता है। जब हम लोग शक्कर खाते हैं तब सुख होता है किन्तु नमक खाते हैं तो दुःख होता है।
उत्तर: - तुमने बात कही किन्तु कुछ सोच विचारकर नहीं कहीं। नमक खाने से दुःख ही होता हो, ऐसी बात नहीं है। कभी सुख भी होता है। जैसे किसी शाक में नमक न हो या कम हो तब यह कहा जाता है कि आज शाक में नमक नहीं है, इसलिये अच्छा नहीं लगता है। यहाँ नमक से सुख भी होता है। इसी प्रकार जब एक मनुष्य बरफी खाता है और बरफीमें यदि मावा (खोवा) कम होकर शक्कर अधिक होती है तब कह देता है कि इसमें तो शक्कर ही शक्कर है, इसलिये अच्छी नहीं लगती है। यहाँ शक्कर से सुख न होकर दुःख हो रहा है, अतः न नमक खाने में दुख है और न शक्कर खाने में सुख हैं किन्तु बात कुछ और ही है।
वह यह है कि संसारी आत्मा के ज्ञान के साथ में इच्छा लगी हुई होती है। इस इच्छा में जब कोई बाधा आती है तब उस विपरीत कार्य में ज्ञान सुखरूप न रह कर दुःखरूपमें  परिणत हो जाता है अर्थात् उसमें विकार आ जाता है। इच्छा के होने से ही आत्मा का ज्ञान सर्वाङ्गी व्यापक न होकर एकाङ्गी और क्रमिक बना हुआ है।

मानलो आप किसी शहरके बाजारमें पहुँचे और एक कुकर चूल्हा खरीदने की इच्छासे चले जारहे हैं। अनेक दुकानें आपकी दृष्टिमें आती हैं परन्तु उन्हें छोड़ते हुए आप सीधे किसी बरतनवाले की दुकान पर पहुँचते हैं। वहाँ पर भी कई प्रकार के बरतन रखे हुए हैं जो आपके देखने में आ रहे हैं परन्तु आपका मन तो कुकर चूल्हे की ओर ही है। उधर हो लग रहा है कि यह रहा कुकर चूल्हा । यदि वहाँ कुकर चूल्हा न हो तो आप दुकानदार से पूछते हैं कि क्या तुम्हारे पास कुकर चूल्हा है? इस पर यदि उसने उत्तर दिया कि कुकर चूल्हा तो नहीं है। तब आप शीघ्र ही कह देते हैं कि जब तुम्हारे पास कुकर चूल्हा नहीं है तो और क्या है? कुछ भी नहीं है ऐसा कहकर चल देते हैं।

मार्ग में भी यदि कोई पूछता है कि आप कहाँ गये थे? तब आप यहाँ उत्तर देते हैं कि बाजार में गया था परन्तु बाजार में क्या रक्खा है? कुछ भी तो नहीं है। मुझे एक कुकर की आवश्यकता थी, वहीं यहाँ नहीं मिला। अब विचार की बात है कि यद्यपि बाजार में बहुत सी चीजें हैं किन्तु आपका ज्ञान कुकर की इच्छा से बँधा हुआ है इसीलिये आप ऐसा कहते हैं और दुखी होते हैं। यदि आपके यह इच्छा न हो तो आप ही कह देंगे कि इस बाजार में तो बहुत सी विचित्र विचित्र वस्तुएं हैं। इनको देखकर मेरा मन प्रसन्न हो रहा है। तुम्हें क्या २ बताऊं जिनको देखा उनको मेरा मन हो जानता है। यह तो एक उदाहरण है।

इसी प्रकार संसारी जीव का ज्ञान सदा इच्छाओं में फँसा रहता है, अतः संकुचित हो रहा है। केवल इन्द्रियों के आश्वासन रूप सुखके साथ साथ श्रम रूप दुःख को भी लिये हुए होता है। जिन लोगों ने सब प्रकार की आवश्यकताओं पर विजय प्राप्त करली हो, जो निरीह हो चुके हों, उन्हें जिन कहते हैं। इसका ज्ञान अखण्ड और सबको एकसाथ जाननेवाला होता है। इनका सुख भी स्वाभाविक और शाश्वत होता है, जो उपादेय है। इन्द्रियजन्य ज्ञान और सुख पराधीन होते हैं इसलिये हेय हैं
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प्रवचनसारः गाथा -53 ज्ञान और सुख की महिमा - by Manish Jain - 08-13-2022, 12:17 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा -53 ज्ञान और सुख की महिमा - by sandeep jain - 08-13-2022, 12:30 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा -53 ज्ञान और सुख की महिमा - by sumit patni - 08-15-2022, 01:13 PM

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