08-24-2022, 12:04 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -55,56
है अमूर्त यह किन्तु मूर्तिगत है अनादि से इसीलिये ।।
जाया करता मूर्त चीजको यथायोग्य व्यवधान किये।
स्पर्श और रसगन्धवर्ण या शब्दरुप पुद्गल क्रमसे ।
जाती जाया करती किन्तु न एक साथ इन्द्रिय श्रमसे २८
गाथा -55,56
सारांश: – यह चेतना लक्षण वाला आत्मा यदि अपने स्वभाव में आजावे तब तो बिलकुल अमूर्त है। आकाश के समान किसी से भी बाँधा हुआ बँध नहीं सकता। जल में गल नहीं सकता। अग्नि से जल नहीं सकता और हवा से सुख नहीं सकता है किन्तु यह तो अनादिकाल से मूर्त्तिमान् पुद्गलके साथ में घुलमिल रहा है। अपने आपमें न होकर मूर्त्तपन धारण किये हुए है अत: इस मूर्त शरीरगत स्पर्शनादि इन्द्रियों द्वारा मूर्त पदार्थ को ही अवग्रहादिक के रूपमें कुछ कुछ जानता रहता है। ऐसा जानना, इस विश्वप्रकाशक आत्मा प्रभु के लिए न जानने के समान ही है। स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा स्पर्श का, जीभ के द्वारा रसका, नाक से गंध का, आँख से रूपका और कान से शब्दरूप पुद्गल का स्थूल ज्ञान होता है। यह भी एक साथ न होकर क्रमपूर्वक होता है। जिस समय रूप को देखता है, उस समय रसको नहीं चख सकता है। जिस समय रस को चखता है, उस समय गंध को नहीं सूंघ सकता है अर्थात् एक समय में एक ही इन्द्रियके विषय का ज्ञान कर सकता है।
शङ्काः—जब हम आम चूसते हैं तब जीभसे उसके रसको, नाकसे उसको गंधको, हाथसे उसके स्पर्शको और आँख से उसके रूपको एकसाथ हो तो जानते हैं?
उत्तर:- स्थूल दृष्टि से तुम कह रहे हो वैसा ही है परन्तु यदि गंभीरता के साथ विचार कर देखें तो वहाँ समय का भेद बना हुआ रहता है। जैसे किसी मनुष्य ने सैकड़ों पानों के समूहमें बड़े वेग के साथ सूई चुभी दी, जिससे उन सब पानों में छेद हो गया। तब हम लोग कहते हैं कि इसने एक ही साथ इन सब पानों में छेद कर दिया है। वास्तवमें देखा जाये तो छेद, उन पत्तों में एकसाथ न होकर क्रमपूर्वक ही हुआ है। इसी प्रकार इन्द्रिय ज्ञान को प्रवृत्ति भी भिन्न भिन्न इन्द्रियों के विषयों में क्रम पूर्वक ही होती है। इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष ज्ञान होता है.
गाथा -55,56
है अमूर्त यह किन्तु मूर्तिगत है अनादि से इसीलिये ।।
जाया करता मूर्त चीजको यथायोग्य व्यवधान किये।
स्पर्श और रसगन्धवर्ण या शब्दरुप पुद्गल क्रमसे ।
जाती जाया करती किन्तु न एक साथ इन्द्रिय श्रमसे २८
गाथा -55,56
सारांश: – यह चेतना लक्षण वाला आत्मा यदि अपने स्वभाव में आजावे तब तो बिलकुल अमूर्त है। आकाश के समान किसी से भी बाँधा हुआ बँध नहीं सकता। जल में गल नहीं सकता। अग्नि से जल नहीं सकता और हवा से सुख नहीं सकता है किन्तु यह तो अनादिकाल से मूर्त्तिमान् पुद्गलके साथ में घुलमिल रहा है। अपने आपमें न होकर मूर्त्तपन धारण किये हुए है अत: इस मूर्त शरीरगत स्पर्शनादि इन्द्रियों द्वारा मूर्त पदार्थ को ही अवग्रहादिक के रूपमें कुछ कुछ जानता रहता है। ऐसा जानना, इस विश्वप्रकाशक आत्मा प्रभु के लिए न जानने के समान ही है। स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा स्पर्श का, जीभ के द्वारा रसका, नाक से गंध का, आँख से रूपका और कान से शब्दरूप पुद्गल का स्थूल ज्ञान होता है। यह भी एक साथ न होकर क्रमपूर्वक होता है। जिस समय रूप को देखता है, उस समय रसको नहीं चख सकता है। जिस समय रस को चखता है, उस समय गंध को नहीं सूंघ सकता है अर्थात् एक समय में एक ही इन्द्रियके विषय का ज्ञान कर सकता है।
शङ्काः—जब हम आम चूसते हैं तब जीभसे उसके रसको, नाकसे उसको गंधको, हाथसे उसके स्पर्शको और आँख से उसके रूपको एकसाथ हो तो जानते हैं?
उत्तर:- स्थूल दृष्टि से तुम कह रहे हो वैसा ही है परन्तु यदि गंभीरता के साथ विचार कर देखें तो वहाँ समय का भेद बना हुआ रहता है। जैसे किसी मनुष्य ने सैकड़ों पानों के समूहमें बड़े वेग के साथ सूई चुभी दी, जिससे उन सब पानों में छेद हो गया। तब हम लोग कहते हैं कि इसने एक ही साथ इन सब पानों में छेद कर दिया है। वास्तवमें देखा जाये तो छेद, उन पत्तों में एकसाथ न होकर क्रमपूर्वक ही हुआ है। इसी प्रकार इन्द्रिय ज्ञान को प्रवृत्ति भी भिन्न भिन्न इन्द्रियों के विषयों में क्रम पूर्वक ही होती है। इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष ज्ञान होता है.