08-25-2022, 08:51 AM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -57,58
अन्यचीज इन्द्रियाँ जीवसे वह अदृश्य से दृश्य अहो ।
इनपरसे हो ज्ञान हन्त वह फिर कैसा प्रत्यक्ष कहो |
क्योंकि दूसरेको सहायतासे हो उसे परोक्ष कहा ।
केवल आत्मभावसे होनेवाला ही प्रत्यक्ष रहा ॥ २९ ॥
सारांश: – सन्त सम्प्रदायमें जो ज्ञान दूसरे की सहायतासे हो वह परोक्ष है और जो केवल आत्मतन्त्र हो उसका नाम प्रत्यक्ष है। एवं इन्द्रियोंके द्वारा जो ज्ञान होता है वह परोक्ष ही होता है। इन्द्रियाँ सब पौद्गलिक हैं, आत्मासे भिन्न हैं। जैसे हमारी आँखें कमजोर हो जाने पर हम लोग ऐनक (चश्मा) लगाकर देखा करते हैं, वैसे ही संसारी आत्माका ज्ञान कर्मोसे दबा हुआ है (निर्बल है) इसलिये चक्षु आदि इन्द्रियोंको सहायतासे अपना कार्य करता है। जहाँ आत्मा और शरीरको एकसाथ समझा जा रहा हो उस भौतिक दृष्टिमें भले ही इसे प्रत्यक्ष कहा जावे किन्तु आत्मज्ञोंके विचारमें यह ज्ञान परोक्ष ही होता है, इसमें आत्माको श्रमका अनुभव करना पड़ता है अतः दुःखरूप ही है किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान सुखरूप होता है।
गाथा -57,58
अन्यचीज इन्द्रियाँ जीवसे वह अदृश्य से दृश्य अहो ।
इनपरसे हो ज्ञान हन्त वह फिर कैसा प्रत्यक्ष कहो |
क्योंकि दूसरेको सहायतासे हो उसे परोक्ष कहा ।
केवल आत्मभावसे होनेवाला ही प्रत्यक्ष रहा ॥ २९ ॥
सारांश: – सन्त सम्प्रदायमें जो ज्ञान दूसरे की सहायतासे हो वह परोक्ष है और जो केवल आत्मतन्त्र हो उसका नाम प्रत्यक्ष है। एवं इन्द्रियोंके द्वारा जो ज्ञान होता है वह परोक्ष ही होता है। इन्द्रियाँ सब पौद्गलिक हैं, आत्मासे भिन्न हैं। जैसे हमारी आँखें कमजोर हो जाने पर हम लोग ऐनक (चश्मा) लगाकर देखा करते हैं, वैसे ही संसारी आत्माका ज्ञान कर्मोसे दबा हुआ है (निर्बल है) इसलिये चक्षु आदि इन्द्रियोंको सहायतासे अपना कार्य करता है। जहाँ आत्मा और शरीरको एकसाथ समझा जा रहा हो उस भौतिक दृष्टिमें भले ही इसे प्रत्यक्ष कहा जावे किन्तु आत्मज्ञोंके विचारमें यह ज्ञान परोक्ष ही होता है, इसमें आत्माको श्रमका अनुभव करना पड़ता है अतः दुःखरूप ही है किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान सुखरूप होता है।